साहित्तिक कहावत है कि लेखक उपन्यास में आत्मकथा और आत्मकथा में उपन्यास लिखता है । वह ऐसा क्यों करता है ? मुझे लगता है कि वह ऐसा इसलिये करता है क्योंकि वह दोहरा चरित्र जीता है – एक वह, जो वह जीना चाहता है और एक वह, जो वह जीता है । आज के परिवेश में, बल्कि मैं तो कहूंगा कि प्रत्येक काल में, आदर्श और व्यवहार के मध्य समन्वय किये बिना सामाजिक जीवन संभव नहीं । आदर्श से समाज नहीं चलता और यथार्थवादी व्यवहार से मनुष्य-भाव नहीं बचता । इसलिये दोनों में तालमेल जरूरी है । ....... रचना - प्रक्रिया के संबंध में लेखकों से अधिकतर यही सुना गया है कि परिवेश में व्याप्त विसंगतियां उसे उद्धेलित करती है और वह रचनात्मक होना शुरू हो जाता है । अध्ययन मनन, विचार – विमर्श आदि के बाद एक दो सिटिंग में रचना का ड्राफ्ट फाईनल हो जाता है । फिर उसमें संशोधन संपादन, यानी जोड घटाव और परिर्वतन के पश्चात, रचना पाठकीय स्वरूप में आ जाती है ।
यह वाक्यांश कथाप्रधान त्रैमासिक पत्रिका ‘कथाबिंब’ में अमृतलाल नागर के प्रिय एवं ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ के पांडुलिपि टंकक व लखनउ से पूर्व में प्रकाशित ‘अविरल मंथन’ के संपादक कथाकार राजेन्द्र वर्मा के हैं ।
रचनाकारों के इसी अंदाज को प्रस्तुत करती पत्रिका ‘कथाबिंब’ अविरल गति से सन् 1979 से संस्कृति संरक्षण संस्था मुम्बई के सौजन्य से भाभा परमाणु केन्द्र के वैज्ञानिक व बहुचर्चित कथाकार साहित्यकार श्री डॉ. माधव सक्सेना ‘अरविंद’ जी के संपादन में प्रकाशित हो रही है ।
मुझे प्राप्त जनवरी-मार्च 2008 अंक में संकलित सामाग्रियों के संबंध में श्री अरविंद जी अपने संपादकीय में स्वयं लिखते हैं - पहली कहानी ‘हे राम’ (सुशांत प्रिय) भागीरथी प्रसाद की कहानी है जो अपनी कॉलोंनी की गंदगी की सफाई करना चाहता है लेकिन इसके चलते पागल करार कर दिया जाता है । मंगला रामचंद्रन की कहानी ‘सजायाप्ता’ उस बेटे की कहानी है जो एक गलत धारणा को मन में पाल कर अपने पिता को गंगा घाट पर छोड आता है लेकिन इस भयंकर गलती की सजा से बच नहीं पाता । अगली कहानी ‘बस चाय का दौर था ... ‘ में राजेन्द्र पाण्डेय नें रेखांकित किया है कि तथाकथित बुद्धिजीवी अधिकांशत: चाय के दौर के साथ तमाम मुद्दों पर मात्र चर्चा ही करते हैं , बस इससे अधिक कुछ नहीं । डॉ.वी.रामशेष की कहानी ‘मध्यान्तर’ एक अजीब स्थिति की कहानी है, दोस्त की मृत्यु के कारण एक खुशनुमा शाम बिताने की आकाश की सारी प्लानिंग धरी की धरी रह जाती है, या फिर यह दुखद हादसा एक मध्यांतर ही था । राजेन्द्र वर्मा की कहानी ‘रौशनी वाला’ उस व्यक्ति की कहानी है जो पढाई में अच्छा होने के बावजूद गरीब होने के नाते अपनी जिन्दगी में रोशनी नहीं भर सका । यह गौरतलब है कि इस अंक में श्रीमति मंगला रामचंद्रन को छोडकर अन्य रचनाकारों की कहानियां ‘कथाबिंब’ में पहली बार जा रही है ।
साहित्य के इतिहास में संपादन कला का सूत्रपात ‘सरस्वती’ से प्रारंभ है और अन्यान्य पत्रिकाओं के माध्यम से आज तक जीवित है । इन्हीं पत्रिकाओं नें हिन्दी साहित्य को पुष्पित व पल्लवित किया है एवं सृजन को आयाम दिया है । इस संबंध में श्री अरविंद जी का प्रयास सराहनीय है । प्रसिद्ध रचनाकार हरदयाल नें ‘विषयवस्तु’ के लघुपत्रिका मूल्यांकन अंक सितम्बर 86 में लिखा है ‘अक्सर बडी पत्रिकाओं नें बडे लेखकों की छोटी रचनाएं और लघु पत्रिकाओं नें छोटे लेखकों की बडी रचनाएं छापी हैं । बडी पत्रिकाएं तो इतनी ज्यादा बासी पडती हैं कि रद्दी में बिकना ही उनकी नियति है, इसलिये सहीं अर्थों में लघु पत्रिकाओं का ही प्रसार होता है और वही लेखक को यशस्वी बनाती है ।' मुम्बई से प्रकाशित यह पत्रिका इतने कम कीमत में इतनी अच्छी सामाग्री प्रस्तुत कर रही है जिसके लिये प्रधान संपादक श्री अरविंद जी को हमारी शुभकामनायें ।
कथाबिंब – कथा प्रधान त्रैमासिक
प्रधान संपादक – डॉ. माधव सक्सेना ‘अरविंद’
सदस्यता शुल्क – आजीवन 500 रू., त्रैवार्षिक 125 रू.,
वार्षिक 50 रू.
(वार्षिक शुल्क 5 रू. के डाक टिकटों के रूप में भी स्वीकार्य)
संपर्क – kathabimb@yahoo.com
ए 10, बसेरा, आफदिन क्वारी रोड, देवनार, मुम्बई 400088
फोन – 25515541, 09819162648
प्रस्तुति – संजीव तिवारी
प्रत्येक काल में, आदर्श और व्यवहार के मध्य समन्वय किये बिना सामाजिक जीवन संभव नहीं । आदर्श से समाज नहीं चलता और यथार्थवादी व्यवहार से मनुष्य-भाव नहीं बचता । इसलिये दोनों में तालमेल जरूरी है । ....... इस अवधारणा से सहमत हूं।
जवाब देंहटाएंआपके लेखन शैली काबिले तारिफ़ है !!
जवाब देंहटाएंकथाबिंब पर इस समीक्षात्मक आलेख के लिए आभार. जारी रखें इस तरह के प्रयास.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी.
जवाब देंहटाएंउपयोगी भी.
बधाई
डा.चंद्रकुमार जैन