अभी कुछ दिनों से छत्तीसगढ में प्राथमिक स्तर पर भाषा के अध्ययन की अनिवार्यता पर एक विमर्श की शुरूआत समाचार पत्रों के सम्पादकीय पन्ने से हो रही है जो सराहनीय है । इस सम्बंध में पहला लेख दैनिक भास्कर में वरिष्ठ साहित्यकार नंदकिशोर शुक्ल जी का प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंनें अपने शीर्षक से ही विमर्श को जन्म दिया । ‘संस्कृत के बजाय शिक्षा छत्तीसगढी में क्यों नहीं ?’ इस लेख में नंदकिशोर जी शुक्ल नें पहली से लेकर पांचवीं तक अनिवार्य विषय के रूप में संस्कृत पढाये जाने के सरकारी निर्णय का विरोध किया गया है । उनका मानना है कि ऐसा ही निर्णय छत्तीसगढी भाषा के लिये क्यों नहीं लिया गया जबकि 10 अक्टूबर 2007 को मुख्यमंत्री के नेतृत्व में हुए बैठक में यह सर्वसम्मति से निर्णय ले लिया गया कि क्षेत्रीय बोलियां जिनमें हल्बी, गोडी, गुडखू, भतरी व जसपुरिहा में पढाई प्राथमिक स्तर पर आरंभ की जायेगी । इस लेख में नंदकुमार शुक्ल जी नें सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष व राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम समिति के अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल के उस वाक्यांश का भी उल्लेख किया जिसमें यशपाल जी नें गुदडी के लालों को बाहर निकालने वाली शिक्षा व्यवस्था पर बल दिया है । छत्तीसगढी भाषा को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा में लेने के बजाय संस्कृत व अन्य क्षेत्रीय बोलियों को प्राथमिक स्तर पर अनिवार्य किया गया है जिसके लिये उन्होंनें लेख में दुख जताया है कि छत्तीसगढ के दो करोड निवासियों के साथ यह षडयंत्र है ।
इस लेख के बाद हरिभूमि के यशश्वी युवा संपादक व हिन्दी के विचारवान लेखक संजय द्विवेदी जी नें अपने समाचार पत्र हरिभूमि के संपादकीय पन्ने पर एक लम्बा लेख ‘भारतीय भाषाओं को लडाएं, अंग्रेजी को राजरानी बनांये’ लिखा जिसमें नंदकुमार शुक्ल के लेख पर विरोध जताते हुए संस्कृत के विरोध में उठते स्वरों की आहट व छत्तीसगढी के लिये क्षेत्रीय भाषाओं से छत्तीसगढी के टकराव की मानसिकता की निंदा की वहीं देव भाषा संस्कृत के लिये, लिये गए निर्णय को उचित ठहराया । इसी क्रम में साहित्यकार व शिक्षाविद एवं वरिष्ठ हिन्दी ब्लागर जय प्रकाश ‘मानस’ का लेख भी आया जिसमें उन्होंनें भाषा, बोली व भाषा परिवार के बीच सामन्जस्य पर अपने तर्क रखे हैं । भारतीय भाषा परिदृश्य, भाषिक विविधता एवं मातृभाषा के अध्ययन के साथ द्विभाषी शिक्षा पर जोर देते हुए उन्होंनें भी नंदकिशोर शुक्ल जी के संस्कृत विरोध की निंदा की है इसके साथ ही उन्होंनें जनजातीय क्षेत्रीय बोलियों के विरोध के फलस्वरूप वनांचल में स्थिति के और बिगड जाने का अंदेशा जाहिर किया है ।
इस लेख विमर्श में आज मुझे आशा थी कि कोई तो होगा जो नंदकिशोर शुक्ल के उक्त लेख के पक्ष में, किंचित समर्थन में अपना विचार प्रस्तुत करेगा किन्तु आज इस श्रृंखला में संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान एवं छत्तीसगढ में संस्कृत के ध्वज वाहक मनीषी डॉ. महेश चंद्र शर्मा जी का दमदार आलेख आया । इसमें कोई दो मत नहीं कि उन्होंनें संस्कृत अध्ययन के संबंध में तर्कपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किये हैं एवं छत्तीसगढी व संस्कृत के आपसी अंतरसंबंधों को स्पष्ट किया है । एक संस्कृत के विद्वान से ऐसे लेख की अपेक्षा की ही जा सकती है । लेखक नें अपनी प्रसंशा का शक्कर व संस्कृत के नीबू से हरिभूमि के संपादक संजय द्विवेदी का पक्ष लेते हुए शरबत पेश किया है एवं नंदकिशोर शुक्ल के संस्कृत विरोधी स्वर का विरोध किया है । लेख रोचक है पूरी तरह मिठास समेटे डॉ.शर्मा जी के व्यक्तित्व जैसा ही ।
छत्तीसगढी भाषा आंदोलन को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिये प्रयासरत विभिन्न गुटों में से कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के भीड का मैं भी हिस्सा रहा हूं । इस वैचारिक आंदोलन में मेरे कुछ मित्रों नें मेरा खुल कर विरोध किया था उनका तर्क यह था कि छत्तीसगढी को संवैधानिक दर्जा देने के पहले यहां के दो करोड निवासियों के दिलों में छत्तीसगढी को मान्यता दिलाना ज्यादा आवश्यक है । मेरा मानना यह रहा है कि इस दो करोड निवासियों में से अस्सी प्रतिशत जनता गांवों में रहती है और वहां अब भी यह भाषा राज करती है इसलिये बाकी बचे बीस प्रतिशत जो हिन्दी भाषी हैं वे शहरों में रहते हैं और जब संपूर्ण छत्तीसगढ के संबंध में हम विचार कर रहे हों तो हमें गांवों के संबंध में ही सोंचना है । फलत: मैं स्वयं अपने तर्कों को बिना विमर्श के स्वीकार कर लेता था । तब हमें यह अंदेशा भी नहीं था कि राजभाषा घोषित होने के बाद छत्तीसगढी भाषा पर इस कदर छीछालेदर आरंभ हो जायेगी, यद्धपि यह आभास तो था कि आंदोलन के लिए गुट और भीड के पीछे कुछ न कुछ राजनैतिक स्वार्थ तो अवश्य है ।
इस श्रृंखला में जिन भाषा परिवारों का बार बार उल्लेख आया है वे आरण्यकी संस्कृति के भाषा परिवार के अंग हैं । आर्य, द्रविड के साथ मुंडा भाषा परिवारों के द्वारा अपने भौगोलिक स्थिति में उपस्थिति के साथ ही सर्वमान्य रूप से छत्तीसगढी भाषा को एक महानद के रूप में स्वीकार किया गया है जिसमें अन्य बोलियां एवं भाषायें छोटी छोटी नदियों के रूप में अपनी सांस्कृतिक तरलता उडेल रही हैं ।
छत्तीसगढी के सामने हल्बी, गोडी, गुडखू, भथरी व जसपुरिया भाषाओं को खडा करना विरोध को अनावयश्क बढाना है । हमें अपनी इन बोलियों का सम्मान करना चाहिये एवं इसे समृद्ध करने हेतु हर संभव प्रयास करना चाहिए । वर्तमान दौर में आरण्यक संस्कृति अपने मूल अरण्य से दूर होती जा रही है । वनों में नागरी संस्कृति का निरंतर प्रहार हो रहा है यदि हम अपनी इन भाषाओं की ओर ध्यान नहीं देंगें तो मुंडा भाषा परिवार की बोली ‘गदबी’ का छत्तीसगढ से जिस प्रकार ह्रास हो गया वैसे ही हमारी अन्य बोलियां भी समाप्त हो जायेगी । भाषा विज्ञानियों नें माना है कि द्रविड परिवार की बोली ‘परजी’ व ‘ओराव’ तो अपनी अंतिम यात्रा पर है वहीं ‘गोडी’ को भी समय रहते बचाने का प्रयास नहीं किया गया तो वह भी समाप्त हो जायेगा इसलिये इसके संरक्षण एवं विकास के लिए हर संभव प्रयास किये जाने चाहिए न कि इन भाषा परिवारों का विरोध ।
संस्कृत के विरोध का संभवत: भारत भर में यह पहला मामला है । लोग अंग्रेजी के विरोध लिये लिखते लिखते थक गये हैं, जुटते जुटते बिखर गये हैं । हिन्दी प्रेमियों नें बडे उत्साह के साथ अपनी आदि भाषा संस्कृत पर अपनी श्रद्धा प्रस्तुत की है पर हिन्दी से ही पल्लवित व पुष्पित छत्तीसगढी के लिए संस्कृत भाषा के विरोध के स्वर छत्तीसगढ उठे यह कुछ अटपटा सा लगता है ।
हमें आशा है आगे इस कडी में एक से एक विद्वानों के लेख हरिभूमि में पढने को मिलेंगें एवं सभी के पक्षों पर जानकारी प्राप्त होगी किन्तु देखने में यह आता है कि समाचार पत्रों के माध्यम से साहित्यकारों की यश पताका चहुं ओर फैलती है इस कारण साहित्यकार सामान्यत: समाचार पत्र से वैचारिक मतभेद मोल नहीं लेता । इस मसले में समाचार पत्र नें सराहनीय मुद्दे को उठाया है इस कारण उनसे मतभेद या उनके विपक्ष में विचार तो प्रस्तुत होने से रहे किन्तु वैचारिक मंथन के लिये इस विमर्श में बतौर पाठक शामिल होने में भी आनंद है ।
संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठा होनी चाहिये। और इसमें एक भाषा और दूसरी भाषा के परस्पर विरोध की बात ही नहीं होनी चहिये!
जवाब देंहटाएंभाषा के प्रतिष्ठा के लिये युद्ध यह किंचित आश्चर्य्जनक है शायद मेरे समझ का दायरा छोटा है इसिलिये परंतु मुजे तो छ्त्तीसगढी पसंद है और रहेगी भले मेरे पास इसके लिये तर्क नही है ना ही मुझे किसी और भाषा से विरोध ही होगा मेरा ये मानना है कि हिन्दी पसंद करने का मतलब ये नही होता कि आप अंग्रेजी के दुश्मन हो जाये ॥
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