छत्तीसगढ : संदर्भों में आत्ममुग्धता का अवलोकन - 4


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हमें गर्व है कि हमारी भाषा को शासन नें भी सम्मान दिया और इसे संवैधानिक मान्यता प्रदान की । छत्तीगसगढी भाषा पूर्व से ही समृद्ध भाषा थी अब इसे संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद निश्चित ही इसके विकास के लिए शासन द्वारा समुचित ध्यान दिया जायेगा एवं हमारी भाषा सुदृढ होगी । वैसे छत्तीसगढी भाषा संपूर्ण छत्तीसगढ में बोली जाने वाली विभिन्न जनजातीय भाषाओं एवं हिन्दी का एक मिलाजुला रूप है यह गुरतुर बोली है । छत्तीसगढ की भाषा एवं भाषा परिवार पर डॉ. हीरालाल शुक्ल कहते हैं - ’ छत्तीसगढ के तीन भाषा परिवारों की लगभग दो दर्जन से भी अधिक भाषाओं में भावों की रसधार सर्वत्र समभाव से बहती है । यहां की आर्यभाषाओं के अंतर्गत छत्तीसगढी, सदरी, भथरी तथा हल्बीए आदि बोलियां सम्मिलित हैं । द्रविड परिवार के अंतर्गत कुडुख, परजी तथा गोंडवाना-वर्ग की चार बोलियां शामिल हैं । मुंडा-परिवार के अंतर्गत र्कोकू, कोरवा, गदबा, हो, खडिया, संथाली, जुआंग, निहाली, मुडा आदि की अपनी ही बानगी है । इन बोलियों के लोकगीतों में अपने-अपने अंचलों की कुछ मौलिक विशेषतायें भी हैं । इनमें इतिहास भी पूरी तरह अंतर्भूत है । अनेक वीर पुरूष लोकदेवों के रूप में और नारियां देवियों के रूप में पूजी जाती हैं । इनका लोक साहित्य बहुत प्राचीन और पीढी दर पीढी चली आ रही है । इस साहित्य के अध्ययन से हम ग्रामवासियों की मनोवृत्ति का सजीव परिचय पा सकेंगें । इसका संग्रह तथा अध्ययन उस पुल का काम दे सकता है जो हमें नगरों और ग्रामों के बीच की गहरी खाई तथा विस्तींर्ण इकाई को पाटने में मदद दे सकेगा ।‘


छत्तीसगढ के हिन्दी व छत्तीसगढी भाषा में पंडित शुकलाल पाण्डेय से लेकर अब तक प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखे गये हैं किन्तु उनकी जन उपलब्धता बहुत कम है । यह साहित्य अब धरोहर के रूप में विभिन्न विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में शोधार्थी छात्रों के लिये उपलब्ध हैं । यदि कोई उत्सुक इन कृतियों को पढना चाहे तो यह सहज में अपलब्ध नहीं है फिर भी हम कहते नहीं अघाते कि हम साहित्य के क्षेत्र में समृद्ध हैं । शासन को इस संबंध में सहयोग करते हुए सभी उत्कृष्ट पूर्व प्रकाशित साहित्य का पुन: प्रकाशन करवाना चाहिये । इसी के साथ ही उपलब्ध साहित्य को विभिन्न स्थानीय प्रशासन व ग्राम पंचायतों के पुस्तकालयों में अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिये । इस संबंध में कुछ साहित्यकारों के द्वारा यह सराहनीय कदम उठाया गया है कि कुछ लेखक व साहित्यकार अपनी कृतियां लेखन विधा से जुडे ब्यंक्तियों को लागत मूल्य पर उपलब्ध करा रहे हैं । जब तक हम अपने लोगों की रचनाओं को आत्मसाध नहीं करेंगें, समसामयिक लेखन के प्रवाह को एवं पाठकों की रूचि को समझ नहीं पायेंगें । हमारा एकमात्र उद्देश्य पाठकों की संतुष्टि एवं विचारात्मक जागरण है लेखन कोई व्यवसाय नहीं ।


पिछले दिनों छत्तीसगढ साहित्य सम्मेलन में उद्बोधन देते हुए डॉ. श्रीमति सत्य भामा आडिल नें भाषा के मानविकीकरण एवं लेखन की सीमाओं पर बडे स्प‍ष्ट शव्दों में कहा कि अभी छत्तीसगढ में लेखन की सीमा एवं स्तर के बंधन से परे आबाद गति से लेखन की आवश्यकता है । उन्हों नें साहित्यकारों, लेखकों से आहवान किया कि आबाध गति से लिखें, अपनी भावनायें व विचारों को जनता तक लायें समयानुसार जनता स्वयं तय कर लेगी कि कौन पठनीय है और कौन स्तरीय । लेखन के मामले में तो मेरा मानना है कि छत्तीसगढ में नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन के बजाय हतोत्साहन ज्यादा मिलता है ऐसे में नवोदित लेखकों के लिये डॉ. श्रीमति आडिल के ये शव्द प्रेरक के रूप में याद किया जायेगा । लेखन में प्रत्येक की अपनी अपनी अलग – अलग शैली होती है एवं अलग – अलग विधा में पकड होती है । बादल को हम बदरा लिखते हैं आप जलज लिखते हैं ऐसी स्थिति में हमारा मानना है कि बादल को जो बदरा समझते हैं वही हमारे पाठक हैं और हम उन्ही के लिये लिखते हैं ।

छत्तीसगढ की वैदिक कालीन महिमा के संबंध में स्थापित साहित्यकारों का लेखन सराहनीय है, मेरा मानना है कि इस पर हम जैसे नवोदित लेखकों को कम ही लिखना चाहिए क्योंकि छत्तीसगढ महिमा लेखन नवोदित लेखकों के द्वारा महिमामंडन साबित हुआ है । विगत दिनों मैं उत्तर भारत के प्रवास पर था वहां मुझे एक बुजुर्ग गुजराती दम्पत्ति एवं दक्षिण आफ्रिका व कनाडा मूल के युवा दम्पत्ति मिले जो मेरे परिवार के साथ ही लगभग संपूर्ण प्रवास में संयोगवश साथ – साथ रहे । चर्चा के दौरान एवं गाईडों के स्थान महिमा के लच्छेंदार वर्णन में हम सब एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगते थे । गुजराती दम्पत्ति बुजुर्ग एवं अध्यावसायी होने के कारण भारतीय संस्कृति व इतिहास से पूर्ण परिचित थे एवं कनाडा मूल के दम्पति भारतीय धर्म व दर्शन विषय पर पीएचडी कर रहे थे ऐसे में प्राय: हर स्थान को राम व कृष्ण या वैदिक कालीन किसी और परंपरा कथा से जोड कर उसका महिमामंडन किया जाता था तो वे मुझसे पूछते थे कि ऐसा किस्सा तो फलां स्थाद का भी है । मेरे कहने का मतलब यह कि ऐसा बारंबार कहने से हमारी विश्व‍नीयता कुछ कम होती है । अब हमें अपने गौरवशाली अतीत का प्रमाण, बार बार देने की आवश्यकता नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत का इतिहास लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है इसे कहने व लिखने का काम हमारे वरिष्ठों का है जिन पर समाज को विश्वास है ।


वरिष्ठों से हमें उसी प्रकार से आशा है जिस प्रकार से सरस्वती के संपादक के रूप में काम करते हुए पदुम लाल पन्ना लाल बख्शी जी नें बडे बडे साहित्याकारों की भाषा एवं शैली को परिष्कृत किया वैसे ही वरिष्ठ साहित्यकार स्वस्थ प्रतियोगिता, कार्यशाला आदि के माध्यमों से नवलेखकों की लेखनी को परिस्कृत करने का निरंतर प्रयास करते रहें । जिस प्रकार से विगत दिनों रायपुर में अखिल भारतीय लघुकथा कार्यशाला का आयोजन किया गया था ।


क्रमश: आगे की कडियों में पढें वर्तमान परिवेश

आलेख एवं प्रस्तुतिसंजीव तिवारी

3 टिप्‍पणियां:

  1. संजीव भाई , आपकी श्रृंखला बहुत अच्छी है ४थी कड़ी में आपने छत्तीसगढ़ की जनभाषा के बारे में लिखा है इस भाषा में लिखने वाले पंडित शुकलाल पाण्डेय ,कपिलनाथ कश्यप , द्वारिका प्रसाद विप्र ,पंडित लोचन प्रसाद , पंडित मुकुटधर पाण्डेय , लखनलाल गुप्ता आदि हैं इनका उल्लेख आप कर सकते हैं आप चाहेंगे तो मैं उनकी किताबों की सूचि भेज दूंगा ...आपने इस श्रृंखला के लेख में मेरा भी उद्धरण दिया है इसके लिए धन्यवाद

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  2. तिवारी जी अभी तो हम छ्त्तीसगढी नवजात है धीरे धीरे पढेंगे और बढ रहे ही है ॥

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  3. सही जा रहे हैं. अच्छी जानकारी के साथ इस श्रृंख्ला के लिए हार्दिक शुभकामनायें.

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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