जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि लोक गीत संस्कृति के अभिन्नि अंग हैं और हमारे इन्हीं गीतों में हमारी संस्कृति की स्पष्ट झलक नजर आती है । छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा कालांतर से लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर पारंपरिक लोकगीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी ।
छत्तीसगढ के लोकगीतों में अन्य आदिवासी क्षेत्रों की तरह सर्वप्रमुख गाथा-महाकाव्य का अहम स्थान है जिसमें लोरिक चंदा, ढोला मारू, गोपीचंद, सरवन, भरथरी, आल्हा उदल, गुजरी गहिरिन, फुलबासन, बीरसिंग के कहिनी, कंवला रानी, अहिमन रानी, जय गंगा, पंडवानी आदि प्रमुख हैं । इसमें से हमारे पंडवानी को तीजन बाई और ऋतु वर्मा नें नई उंचाईयां प्रदान की है । नृत्य में गेडी, राउत, सुआ, करमा, चन्दैनी, पंथी, सैला, बिलमा, सुरहुल आदि में भी गीत के साथ नृत्य् प्रस्तुत किये जाते हें । इसके अतिरिक्त फाग, जस जेंवारा, भोजली, बांस गीत, ददरिया जैसे गीत यहां गुंजायमान होते हैं ।संस्कृति में जिस तरह से लोकगीतों का महत्व है उसी तरह से लोक कला का भी अहम स्थान है इस संबंध में लोक कलामर्मज्ञ राम हृदय तिवारी हमारे लोककला पर कहते हैं ‘यह एक सच्चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्हों ने हमें किया है । करमा, ददरिया और सुआ की स्वर लहरियॉं, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएँ सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं । यहां के निवासियों में सहज उदार, करूणामय और सहनशील मनोवृत्ति, संवेदना के स्तर पर कलारूपों से बहुत गहरे जुडे रहने का परिणाम है । छत्तीसगढ का जन जीवन अपने पारंपरिक कलारूपों के बीच ही सांस ले सकता है । समूचा अंचल एक ऐसा कलागत – लयात्मक – संसार है, जहां जन्म से लेकर मरण तक – जीवन की सारी हल-चलें, लय और ताल के धागे से गूंथी हुई हैं । कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्र्वर लोकमंचीय कला सृष्टि का जन्म हुआ है ।‘
लोकमंचीय, गायन, वादन कला के अतिरिक्त छत्तीसगढ में पारंपरिक चित्रकला, काष्टाकला, मूर्तिकला नें विकास के सोपान तय किये हैं किन्तु जिस प्रकार से हमारे लोकमंचीयकला नें विकास किया है वैसा विकास अन्य दूसरे कलाओं का नहीं हुआ है हमारे प्रदेश में विश्व में ख्यात संगीत व कला विश्वाविद्यालय है जिसने यहां के अनगढ प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
हमारे समृद्ध लोक नाट्य के वर्तमान विकसित परिवेश पर डॉ. महावीर अग्रवाल कहते हैं ‘..... आज परिस्थितियां बदल गई हैं । आधुनिक छत्तीसगढी लोकनाट्य का अभिप्राय विसंगतियों या कुरीतियों को उजागर करना तो है ही परन्तु इसके साथ ही साथ उनका समाधान प्रस्तुंत करने का प्रयास भी किया जाता है । समस्याऍं अब बहुत व्यापक हो गईं । गरीबी अत्याचार या धार्मिक आडम्बरों से आगे बढकर कलाकार और निर्देशक अब अशिक्षा नारी उत्थान वृक्षारोपण, सामाजिक समरसता तथा कृषि एवं औद्योगिक प्रगति से जुडने की आवश्यकता महसुस करने लगा है । वह समाज को संगठन और सहकारिता का महत्व समझाना चाहता है । लोक कथाओं को आधार बनाकर समकालीन राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपताओं को सबके सामने रखना चाहता है । इस प्रकार छत्तीआगढ का नाट्य कर्मी उस व्याप्त कैनवास को ध्यान में रखने लगा है जिस पर समाज के सारे चित्र अपनी शंकाओं और समाधानों के साथ उभरकर सामने आते हैं ।‘
छत्तीसगढी साहित्य और छत्तीसगढ के साहित्यकारों का भी एक समृद्ध इतिहास रहा है । छत्तीसगढ के साहित्तिक इतिहास में गाथा साहित्यत का सृजन आरंभिक कालों में नजर आता है उसके बाद के साहित्य में यहां छायावाद का जन्म पं.मुकुटधर पाण्डेय के कुकरी कथा से होता है वहीं लघुकथा टोकरी भर मुट्ठी के प्रणेता पदुमलाल पुन्नामलाल बख्शी जी हिन्दी साहित्य को पहली बार लघुकथा से परिचित कराते हैं । छत्तीसगढ के साहित्यकारों के संबंध में लिखते हुए प्रो. अश्विनी केशरवानी कहते हैं ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणास्रोत और विद्वजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। ‘
हिन्दी के साथ ही यहां संस्कृत साहित्य भी समृद्ध रहा है, संस्कृत के आदि कवियों में श्रीपुर के विश्व विख्यात परंपरा के कविराज ईशान, कविकुलगुरू भास्ककर भट्ट और श्रीकृष्णु दंडी तदनंतर कोसलानंद रचईता गंगाधर मिश्र, रामायण सार संग्रह के तेजनाथ शास्त्री , गीतमाधव के रेवाराम बाबू, गुरूघांसीदास चरित महाकाव्यर के डॉ. हीरालाल शुक्लत का नाम प्रमुख हैं ।
छत्तीसगढ के आदि साहित्यवकारों पर पंडित शुकलाल पांडेय अपने बहुचर्चित कृति छत्तीसगढ़ गौरव में लिखते हैं जिसमें उस काल के लगभग सभी साहित्यकारों के नामों का उल्लेख है :-
बंधुवर रामदयालु, स्वभाषा गौरव केतन। ठाकुर छेदीलाल विपुल विद्यादि निकेतन।
द्विजवर सुन्दरलाल मातृभाषा तम पूषण। बाबु प्यारेलाल देश छत्तीसगढ़ भूषण।
लक्ष्मण, गोविंद, रघुनाथ युग महाराष्ट्र नर कुल तिलक। नृप चतुर चक्रधर लख जिन्हें हिन्दी उठती है किलक॥
जगन्नाथ है भानु, चन्द्र बल्देव यशोधर। प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक। परमकृती शिवदास आशु कवि बुधवर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर। श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता कान्त वर॥
इन पदो में तद्समय के सभी वरिष्ठ साहित्यकारों के नामों का उल्लेख है । इन आदि साहित्यकारों के बाद की पीढी नें भी साहित्य सृजन में उल्लेखनीय योगदान दिया है ‘छत्तीसगढ : रचना का भूगोल, इतिहास और राजनीति’ में चिंतक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी जी नें विस्तार से इस भू भाग से जुडे रचनाधर्मी साहित्यकारों व साहित्य, का विश्लेषण किया है जो यहां के भौगोलिक साहित्य का एतिहासिक दस्तावेज है ।
क्रमश: आगे की कडियों में पढें लोक कला व साहित्य, भाषा व वर्तमान परिवेश
आलेख एवं प्रस्तुति – संजीव तिवारी
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कृपया भविष्य मे इसी प्रकार सस्कृति से संबंधित जानकारी देते रहिये बहुत बढ़िया रोचक जानकारी लगी
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह आपका छत्तीसगढ़ का विविध आयामीय प्रोजेक्शन बहुत स्तरीय है।
जवाब देंहटाएंआपकी निस्वार्थ मेहनत एक मानक है मित्र!
बहुत बढ़िया और रोचक जानकारी, जारी रखिये.
जवाब देंहटाएंछ्तीसगढ को नमन और आपके अमुल्य श्रम को भी ..
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