भौगोलिक दृष्टि से मैदानी एवं पठारी व कुछ हिस्सों में सतपुडा व मैकल श्रेणियों के पहाडों में फैला छत्तीसगढ भारत के हृदय स्थल पर स्थित प्राकृतिक रूप से सुरम्य प्रदेश है, यहां की प्राकृतिक संरचना से मुग्ध होकर अनेक साहित्यकारों नें इसकी महिमा को शव्द दिया है । सौंदर्यबोध एवं धरती की कृतज्ञता में छत्तीसगढ महतारी की महिमा गीतों एवं आलेखों को हम अपने दिलों में भारत गणराज्य की संपूर्णता के साथ बसाये हुए हैं, यही हमारे गौरव की निशानियां हैं और हमें अपने स्वाभिमान से जीने हेतु प्रेरित भी करती है ।
वसुधैव कुटुम्बकम व सबै भूमि गोपाल की के सर्वोच्च आदर्श से परिपूर्ण भारत देश के वासी होने के बावजूद कभी कभी हमें लगता है कि हम छत्तीसगढ - छत्तीसगढ का ‘हरबोलवा’ बोल बोलते हैं, इसकी महिमा गान बखान चारण की भांति नित करते हैं । इससे मेरे देश की संपूर्णता के अतिरिक्त अपना एक पृथक अस्तित्व के प्रदर्शन का स्वार्थ भी झलकता है । हमें अपने क्षेत्रीय अतीत पर गर्व होना ही चाहिए किन्तु बार बार उसे रटने से अन्य प्रदेश वाले ऐसे में हमारी वसुधैव कुटुम्बकम के सार्वभैमिक भाव पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं । साहित्य इतिहास में तो हमने देखा ही है कि इस भूगोल से परे जाकर हमारे साहित्यकारों नें सार्वभौम रचनाधर्मिता का परिचय दिया है और उनकी कृतियों से संपूर्ण देश का साहित्य संसार समृद्ध हुआ है ।
अखंडता एवं क्षेत्रीयतावाद के इस दोराहे की स्थिति को अजीत जोगी जी स्पष्ट करते हैं - ‘हम जानते हैं कि भाषा, संस्कृति और आर्थिक विकास आधारित क्षेत्रीयतावाद, अराजक स्थिति उत्पन्न कर देगी, किन्तु हम असंतोष के इन स्वरों के अवदमन के पक्ष में नहीं हैं । हम इसे मुखरित होने देना चाहते हैं, इनके निहितार्थ को समझकर ........... क्योंकि यही वह एकमात्र तरीका है, जिससे संकीर्णतावाद व्यापकता में विलुप्त हो सकता है ।‘ इन्हीं शव्दों के कारण लेखक अपने क्षेत्रीय लेखन से आत्ममुग्ध हो अपनी दुनिया में खोता चला जाता है ।
हमारी इसी क्षेत्रीयतावाद एवं संकीर्णतावाद के भूगोलीय चिंतन नें हमारे मन में अपनी अस्मिता को जगाया है । बरसों से दबे कुचलों के रूप में जीते हुए अभी तो हमने मुह भर सांस लिया है । इन सबके बावजूद संपूर्ण देश की संपूर्णता में ही हमारी क्षेत्रीयता का अस्तित्व है, जिस प्रकार शरीर की प्रतिपादकता संपूर्ण शरीर के साथ ही अहम है । इस विचार को डॉ. पालेश्वर शर्मा जी इस प्रकार पुष्ट करते हैं - ’ छत्तीसगढ का स्मरण करते हुए एक ऐसी अन्नपूर्णा अंबा की प्रतिमा नयनों के सम्मुख छविमान हो उठती है, जिसके उदार हृदय पर मोती नीलम की माला पडी है, कटि प्रदेश में रजत मेखला रेवा तथा चरणों तले महानदी का जल उसे छू छू कर तंरंगायित हो रहा है । मॉं के एक हाथ में धान की स्वर्णिम बालियां । हां वे बालियां भारत भू की सम्पदा हैं जिनका शस्य श्यामल रूप छत्तीसगढ के खेतों में दिखाई देता हैं । उसकी धानी आंचल सर्वथा हिरतिमा – लालिमा लिए वासंती वायु में जब आंदोलित होता हैं तो उसके बेटे उसी प्रकार चहकते हैं जिस प्रकार खग शावक अपने नीड में अपनी मॉं की चंचु में चारा देखकर चुरूलू – चूरूलू चहचहा उठते हैं ।‘
छत्तीसगढ के भूगोलीय अस्मिता पर लिखते हुए डॉ.हनुमंत नायडू के एक शोध ग्रंथ के उपसंहार में लिखे पंक्ति पर बरबस ध्यान जाता है और इस पर कुछ भी लिखना उन पंक्तियों के सामने फीका पड जाता हैं, डॉ.हनुमंत नायडू स्वयं स्वीकारते हैं कि वे छत्तीसगढी भाषी नहीं हैं किन्तु सन 1985 के लगभग पीएचडी के लिए वे इसी भाषा को चुनते हैं । हमें इनसे एवं इनके जैसे हजारों उन व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिए जो छततीसगढ भाषी नहीं हैं फिर भी इस माटी का कर्ज चुकाते हुए छत्तीसगढ के लिए काम किया है, ऐसा ही एक नाम है डॉ. चित्तरंजन कर जिनका नाम लेते हुए सिर आदर से झुक जाता है क्योंकि सहीं मायने में ऐसे प्रेरक विभूतियों के उत्कृष्ट प्रयासों नें हमारे स्वाभिमान को जगाया है ।
‘इस प्रदेश के जीवन में प्रेम का स्थान अर्थ और धर्म से उंचा है । पौराणिक काल से लेकर आधुनिक युग तक छत्तीसगढ के द्वार हर आगंतुक के लिए सदैव खुले रहे हैं । प्राचीन काल में जहां दण्डकारण्य नें वनवास काल में श्रीराम और पाण्डवों को आश्रय दिया था तो वर्तमान काल में स्वतंत्रता के पश्चात बंगाल से आये शरणार्थियों को दण्डकारण्य योजना के अंतर्गत आश्रय दिया है परन्तु छत्तीसगढ के इस प्रेम को उसकी निर्बलता समझने वालों को इतना ही स्मरण कर लेना यथेष्ठ होगा कि कौरवों को पराजित करने वाली पाण्डवों की विजयवाहिनी को इसी प्रदेश में बब्रुवाहन एवं ताम्रध्वज के रूप में दो दो बार चुनौती का सामना करना पडा था ।‘
छत्तीसगढिया सहजता एवं प्रेम पर आगे वे कहते हैं - ‘भारतीय आर्य जीवन में प्रेम और दया जैसे जिन शाश्वत जीवन मूल्यों को आज भारतीयों नें विष्मृत कर दिया है वे आज भी यहां जीवित हैं । जाति, धर्म और भाषा आदि की लपटों से झुलसते हुए भारतीय जीवन को यह प्रदेश आज भी प्रेम और दया का शीतल-आलोक जल दे सकता है । आज भारत ही नहीं समस्त विश्व की सबसे बडी आवश्यकता प्रेम और सहिष्णुता की है जिसके बिना शांति मृगजल और शांति के सारे प्रयत्न बालू की दीवार की भांति हैं । प्रेम और सहिष्णुता का मुखरतम स्वर छत्तीसगढी लोक-गीतों का अपना स्वर है जो भारतीय जीवन से इन तत्वों के बुझते हुए स्वरों को नई शक्ति प्रदान कर सकता है ।‘
क्रमश: आगे की कडियों में पढें संक्षिप्त गौरव इतिहास व संस्कृति, लोक गीत, लोक कला व साहित्य, भाषा व वर्तमान परिवेश
अत्यंत मनोहर एवम आह्लादक वास्तव मे आरंभ छ्तीसगढ कि चेतना का आरंभ है
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