यद्यपि हिन्दी नाटकों के प्रादुर्भाव के प्रारंभिक चरण में भारतेन्दु हरिश्चंद्र नें ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ और ‘भारत दुर्दशा’ जैसे लोकोन्मुखी नाटक लिखे थे लेकिन बाद के साहित्यकारों ने कई ऐतिहासिक कारणों से इस परंपरा को नहीं निभाया ।
छत्तीसगढ के प्रेम साईमन देश में नाट्य स्क्रिप्ट लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है प्रस्तुत है इनका एक लेख :-
छत्तीसगढी पारंपरिक मंच का प्रभाव हिन्दी रंगमंच पर इतने व्यापक और विशद रूप से पडा हैं कि उसकी विवेचना के लिए एक पूरा ग्रंथ ही लिखना पडेगा । मैं यहां बहुत संक्षिप्त में कुछ खास बातों की चर्चा करूंगा ।
विगत चार पांच दशक पहले के हिन्दी रंगमंच की ओर यदि हम दृष्टि डालें, तो हमें स्पष्ट अनुभव होगा कि तात्कालीन नाट्य प्रस्तुतियों का स्वरूप जनोन्मुखी नहीं था । एक अभिजात्यवर्ग के लिए, एक अभिजात भावधारा के, एक अभिजात भाषा में लिखे गये नाटक ही उस समय हिन्दी रंगमंच की कुल संपदा थे । यद्यपि हिन्दी नाटकों के प्रादुर्भाव के प्रारंभिक चरण में भारतेन्दु हरिश्चंद्र नें ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ और ‘भारत दुर्दशा’ जैसे लोकोन्मुखी नाटक लिखे थे लेकिन बाद के साहित्यकारों ने कई ऐतिहासिक कारणों से इस परंपरा को नहीं निभाया । एक मुख्य कारण तो यह था कि एक लंबे समय तक हम पराधीन रहे थे और जैसा कि सर्वमान्य तथ्य है विजित हमेशा विजेता के प्रभाव में रहता है, हम भी पाश्चात्य सभ्यता के मोहजाल में जकडे अपनी संस्कृति भूल बैठे थे । हिन्दी नाटकों का यह प्रभाव इतना गहरा था कि पश्चिमी शैली में नाटक करना हमारी नियति बन चुकी थी । जबकि इसे हमारा दुर्भाग्य ही कहिए कि स्वयं, यूरोप में ब्रेख्त जैसे विख्यात नाटककार द्वारा अविष्कृत यथार्थवादी शैली, हमारी छत्तीसगढी नाचा शैली से प्रेरित और अनुप्रमाणित थी ।
सन् सत्तर के बाद साहित्य की अन्य विधाओं की तरह, नाटकों में भी तथाकथित सभ्य और सभ्रांत दायरे से निकल कर आम आदमी से जुडने की प्रक्रिया शुरू हुई । यह कार्य लोकमंच को आत्मसाध किये बिना कठिन ही नहीं असंभव भी था । पारंपरिक नाट्य शैलियों की सहज जीवंतता, अभिव्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता और दर्शकों से सीधे संवाद कर लेने के नैसर्गिक गुण के साथ साथ ही उनकी अद्भुत गीतात्मकता को अपनाए बगैर हिन्दी रंगमंच को जीवित रखा ही नहीं जा सकता था । निराला जी की एक पंक्ति मुझे याद आ रही है – ‘नूपूर के स्वर मंद हैं जब न चरण स्वच्छंद हैं ।’ नाटकों को यह स्वच्छंदता लोकनाट्य पद्धतियों का अनुसरण करने पर ही मिली है । आज हम स्पष्ट देख रहे हैं अधिकांश रंग प्रस्तुतियां किसी न किसी लोक शैली पर आधारित होती है । चाहे वह कारंत का यक्षगान की शैली में खेला गया ‘खडिया का घेरा’ हो या तेंदुलकर का तमाशा शैली में खेला गया ‘घासीराम कोतवाल’ हो ।
जहां तक हिन्दी रंगमंच पर छत्तीसगढी लोकमंच के प्रभाव की बात है, तो वह निश्चित ही बडे गहरे और व्यापक रूप से पडा है । बिना किसी मंच सज्जा के, बिना किसी सामाग्री के, केवल अभिनय और संवादों के सहारे खेले जाने वाले नाटकों की संख्या में निरंतर वृद्धि इसका ज्वलंत प्रमाण है । हमारी नाचा शैली की भी यही पद्धति है । छत्तीसगढ के लोकगीतों, लोक धुनों और लोकनृत्यों को हिन्दी मंच के रंग कर्मियों नें बडी इमानदारी से स्वीकारा है । अंचल के हिन्दी रंगमंचीय प्रस्तुतियों में से कईयों को मैने देखा है । अनेक रंगकर्मियों से मेरा संपर्क है और बहुतों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं । इसी आधार पर मैं कह सकता हूं कि इस अंचल के हिन्दी के अधिकतर ख्यातिनाम निर्देशकों नें अपने मंचीय प्रदर्शन में छत्तीसगढ के लोकमंच की शैलियों, रूढियों और पद्धतियों का उपयोग किया है और इस उपयोग से उनकी प्रस्तुतियों में न केवल सृजनात्मक भावबोध बढा है, बल्कि कलात्मक मूल्यों में वृद्धि भी हुई है ।
इस अबाध प्रभाव का आखिर कारण क्या है आप जानते हैं भारत गांवों का देश है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि हमारी संस्कृति और सृजनात्मक गतिविधियों के सूत्र ग्राम्य जीवन में ही हों । इसका प्रभाव जाने अंजाने हमारे चिंतन, कार्यो और संस्कारों पर पडता ही है । हम चाहे कितने भी आधुनिक हो जाएं पर इस प्रभाव से बच नहीं सकते । इस प्रभाव की जडे हमारी आत्मा में जमी हुई हैं और इन जडो को हमारा खून सींचता आया है । पारंपरिक गीत, संगीत या नाटक के प्रति हम जो बेहद आत्मीयता का अनुभव करते हैं उसका यही कारण है । हिन्दी नाटक दर्शकों के लिए तरसता रहा है । जबकि लोकमंच के साथ हजारों दर्शकों का स्वयमेव जुडाव एक चमत्कारिक घटना है ।
हिन्दी रंगमंच का दुर्भाग्य रहा है कि उसका स्वतंत्र अस्तित्व कभी नहीं बन पाया । आयातित शैलियों के इस्तेमालों की भरमार होने से मंचन एक अच्छे जिमनास्टिक भले बन गये हों, पर दर्शक उनसे कभी नहीं जुड पाये । स्टेज परफारमिंग मीडिया एक मास मीडिया है । जहां मास ही नहीं वहां पर परफारमिंग की सार्थकता और औचित्य क्या है हिन्दी रंगमंच को लोकमंच की शरण में जाना ही होगा और यह एक शुभ संकेत है कि वह उसकी शरण में जा रहा है । इसके अलावा उसके पास सही मार्ग हो भी नहीं सकता ।
प्रेम साईमन, 129 जी, रिसाली सेक्टर, भिलाई (छ.ग.)
(यह आलेख ख्यात सांस्कृतिक संस्था ‘लोकरंग’ के 2005 में प्रकाशित स्मारिका से साभार प्राप्त की गयी है)
छत्तीसगढ के प्रेम साईमन देश में नाट्य स्क्रिप्ट लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है प्रस्तुत है इनका एक लेख :-
छत्तीसगढी पारंपरिक मंच का प्रभाव हिन्दी रंगमंच पर इतने व्यापक और विशद रूप से पडा हैं कि उसकी विवेचना के लिए एक पूरा ग्रंथ ही लिखना पडेगा । मैं यहां बहुत संक्षिप्त में कुछ खास बातों की चर्चा करूंगा ।
विगत चार पांच दशक पहले के हिन्दी रंगमंच की ओर यदि हम दृष्टि डालें, तो हमें स्पष्ट अनुभव होगा कि तात्कालीन नाट्य प्रस्तुतियों का स्वरूप जनोन्मुखी नहीं था । एक अभिजात्यवर्ग के लिए, एक अभिजात भावधारा के, एक अभिजात भाषा में लिखे गये नाटक ही उस समय हिन्दी रंगमंच की कुल संपदा थे । यद्यपि हिन्दी नाटकों के प्रादुर्भाव के प्रारंभिक चरण में भारतेन्दु हरिश्चंद्र नें ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ और ‘भारत दुर्दशा’ जैसे लोकोन्मुखी नाटक लिखे थे लेकिन बाद के साहित्यकारों ने कई ऐतिहासिक कारणों से इस परंपरा को नहीं निभाया । एक मुख्य कारण तो यह था कि एक लंबे समय तक हम पराधीन रहे थे और जैसा कि सर्वमान्य तथ्य है विजित हमेशा विजेता के प्रभाव में रहता है, हम भी पाश्चात्य सभ्यता के मोहजाल में जकडे अपनी संस्कृति भूल बैठे थे । हिन्दी नाटकों का यह प्रभाव इतना गहरा था कि पश्चिमी शैली में नाटक करना हमारी नियति बन चुकी थी । जबकि इसे हमारा दुर्भाग्य ही कहिए कि स्वयं, यूरोप में ब्रेख्त जैसे विख्यात नाटककार द्वारा अविष्कृत यथार्थवादी शैली, हमारी छत्तीसगढी नाचा शैली से प्रेरित और अनुप्रमाणित थी ।
सन् सत्तर के बाद साहित्य की अन्य विधाओं की तरह, नाटकों में भी तथाकथित सभ्य और सभ्रांत दायरे से निकल कर आम आदमी से जुडने की प्रक्रिया शुरू हुई । यह कार्य लोकमंच को आत्मसाध किये बिना कठिन ही नहीं असंभव भी था । पारंपरिक नाट्य शैलियों की सहज जीवंतता, अभिव्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता और दर्शकों से सीधे संवाद कर लेने के नैसर्गिक गुण के साथ साथ ही उनकी अद्भुत गीतात्मकता को अपनाए बगैर हिन्दी रंगमंच को जीवित रखा ही नहीं जा सकता था । निराला जी की एक पंक्ति मुझे याद आ रही है – ‘नूपूर के स्वर मंद हैं जब न चरण स्वच्छंद हैं ।’ नाटकों को यह स्वच्छंदता लोकनाट्य पद्धतियों का अनुसरण करने पर ही मिली है । आज हम स्पष्ट देख रहे हैं अधिकांश रंग प्रस्तुतियां किसी न किसी लोक शैली पर आधारित होती है । चाहे वह कारंत का यक्षगान की शैली में खेला गया ‘खडिया का घेरा’ हो या तेंदुलकर का तमाशा शैली में खेला गया ‘घासीराम कोतवाल’ हो ।
जहां तक हिन्दी रंगमंच पर छत्तीसगढी लोकमंच के प्रभाव की बात है, तो वह निश्चित ही बडे गहरे और व्यापक रूप से पडा है । बिना किसी मंच सज्जा के, बिना किसी सामाग्री के, केवल अभिनय और संवादों के सहारे खेले जाने वाले नाटकों की संख्या में निरंतर वृद्धि इसका ज्वलंत प्रमाण है । हमारी नाचा शैली की भी यही पद्धति है । छत्तीसगढ के लोकगीतों, लोक धुनों और लोकनृत्यों को हिन्दी मंच के रंग कर्मियों नें बडी इमानदारी से स्वीकारा है । अंचल के हिन्दी रंगमंचीय प्रस्तुतियों में से कईयों को मैने देखा है । अनेक रंगकर्मियों से मेरा संपर्क है और बहुतों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं । इसी आधार पर मैं कह सकता हूं कि इस अंचल के हिन्दी के अधिकतर ख्यातिनाम निर्देशकों नें अपने मंचीय प्रदर्शन में छत्तीसगढ के लोकमंच की शैलियों, रूढियों और पद्धतियों का उपयोग किया है और इस उपयोग से उनकी प्रस्तुतियों में न केवल सृजनात्मक भावबोध बढा है, बल्कि कलात्मक मूल्यों में वृद्धि भी हुई है ।
इस अबाध प्रभाव का आखिर कारण क्या है आप जानते हैं भारत गांवों का देश है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि हमारी संस्कृति और सृजनात्मक गतिविधियों के सूत्र ग्राम्य जीवन में ही हों । इसका प्रभाव जाने अंजाने हमारे चिंतन, कार्यो और संस्कारों पर पडता ही है । हम चाहे कितने भी आधुनिक हो जाएं पर इस प्रभाव से बच नहीं सकते । इस प्रभाव की जडे हमारी आत्मा में जमी हुई हैं और इन जडो को हमारा खून सींचता आया है । पारंपरिक गीत, संगीत या नाटक के प्रति हम जो बेहद आत्मीयता का अनुभव करते हैं उसका यही कारण है । हिन्दी नाटक दर्शकों के लिए तरसता रहा है । जबकि लोकमंच के साथ हजारों दर्शकों का स्वयमेव जुडाव एक चमत्कारिक घटना है ।
हिन्दी रंगमंच का दुर्भाग्य रहा है कि उसका स्वतंत्र अस्तित्व कभी नहीं बन पाया । आयातित शैलियों के इस्तेमालों की भरमार होने से मंचन एक अच्छे जिमनास्टिक भले बन गये हों, पर दर्शक उनसे कभी नहीं जुड पाये । स्टेज परफारमिंग मीडिया एक मास मीडिया है । जहां मास ही नहीं वहां पर परफारमिंग की सार्थकता और औचित्य क्या है हिन्दी रंगमंच को लोकमंच की शरण में जाना ही होगा और यह एक शुभ संकेत है कि वह उसकी शरण में जा रहा है । इसके अलावा उसके पास सही मार्ग हो भी नहीं सकता ।
प्रेम साईमन, 129 जी, रिसाली सेक्टर, भिलाई (छ.ग.)
(यह आलेख ख्यात सांस्कृतिक संस्था ‘लोकरंग’ के 2005 में प्रकाशित स्मारिका से साभार प्राप्त की गयी है)
बहुत बढिया जानकारी। मुझे लगता है कि राज्य के रंगकर्म और रंगकर्मियो पर लेखो की एक लम्बी कडी तैयार करने की आवश्यकता है। इस दिशा मे आरम्भ एक अहम भूमिका निभा सकता है। शुरूआत तो आप ने कर ही दी है।
जवाब देंहटाएंमैं रंगमंच या किसी लोक कला से जुड़ा नहीं हूं - अत: अधिकार से विशेष टिप्पणी नहीं कर सकता. पर प्रेम साइमन जी के विचार पढ़ कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंआभार इस जानकारी के लिये और साइमन जी विचार जान कर.
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है साईमन जी ने!!
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ नाट्यक्षेत्र में साईमन जी का नाम तो काफ़ी जाना पहचाना है!
सएमन जी एक अभूतपूर्व प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व हैं जिनको वह सम्मान और लाभ नहीं मिल पाया जिसके वह हक़दार थे. यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य है की वास्तविक कलाकारों की जगह जुगाडू लोग खीर खा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंप्रेम भैया के आलेख में सब्बॊ छतीसगढ़ ह समा गे हे में हर प्रेम भैया ल नई कुम्मू भैया ल जानथॊं जब में हर नानचुन रहेंव तब उकर गॊदी का खेलेंव हॊं अब संजीव भाई का बिकट अकन धन्यवाद बॊले ला परही के अत्तेक बढ़िया लेख ल हमर बर कम्यूटर म दिस कुम्मू भैया नाटक लिखथे अतका जानत रहेंव अतका बढ़िया लेख लिखत हॊही येला नई जानत रहेंव आज मॊला अपन छत्तीसगढ़ी महतारी के सुरता आ गे
जवाब देंहटाएंडा महेश परिमल