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प्रकाशक : चंद्रशेखर पवार
संपादक : रामहृदय तिवारी
अंक : त्रैमासिक, प्रवेशांक, जुलाई-सितम्बर 2007
संपर्क : एलआईजी 259, पद्मनाभपुर, दुर्ग (छत्तीसगढ)
वार्षिक सहयोग राशि : 100 रू.
छत्तीसगढ से प्रकाशित साहित्तिक व कला एवं संस्कृति पर आधारित पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं की कमी नहीं है, किन्तु इन विभिन्न विषयों पर आधारित स्थापित पत्रिकाओं की बाजार में उपलब्धता नहीं होने के कारण जन मानस में पैठ नहीं के बराबर है । ऐसी पत्रिकायें विज्ञापनदाताओं के प्रतिष्ठानों में एवं क्षेत्रीय साहित्यकारों के घरों में ससम्मान पहुंचती हैं, साहित्यकारों व गोष्ठी, सभाओं में शिरकत करने वालों के घरों में भी ऐसी किताबें पहुच ही जाती है किन्तु हमारे जैसे जन जन तक ऐसी पत्रिकाओं की पहुंच सदैव दूभर रहती है ।
पिछले तीन चार माह से रायपुर व दुर्ग भिलाई के पुस्तक दुकानों का लगातार चक्कर लगा रहा हूं कि छत्तीसगढ पर आधारित पत्रिकायें या पुस्तकें उपलब्ध हो सके किन्तु मुझे एकाध निम्नस्तरीय पुस्तकों के अलावा स्तरीय साहित्य का बाजार में अभाव नजर आया वहीं ऐसे लोगों के घरों में छत्तीसगढ के साहित्य को धूल खाते देखा जिन्होंने कभी भी छत्तीसगढ के ऐसे किताबों का एक पन्ना भी नहीं पढा होगा पर शोभा व शान के लिए उसे सजाये बैठे हैं । छत्तीसगढ का सहित्य तो सजग नजर आता है क्षेत्रीय समाचार पत्रों में जहां विभिन्न फीचर पेजों में प्रत्येक सप्ताह जीवंत हो उठता है किन्तु ऐसे समाचार पत्र भी एक दो ही हैं । ऐसे समय में मुझे दुर्ग के साहित्यकार गुलबीर सिंह जी भाटिया की दुकान से छत्तीसगढी साहित्य, समाज व संस्कृति व कलाओं पर आधारित त्रैमासिक पत्रिका ‘सर्जना’ का प्रवेशांक प्राप्त हुआ यह छत्तीसगढ के क्रातिवीरों के नाम विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है । इसको शुरू से अंत तक पढने के बाद मुझे ऐसा लगा कि इसे दीर्धकालीन दस्तावेजी प्रमाण बनाने के उद्देश्य से इसके संबंध में यहां कुछ लिख जाए । तो प्रस्तुत है मेरे विचार ‘सर्जना’ के प्रवेशांक पर शुभकामनाओं सहित :-
इस पत्रिका में संकलित छत्तीसगढ के छ: क्रांतिकारी वीरों की यशोगाथा क्षेत्र के वरिष्ठ लोककला मर्मज्ञ, सहित्यकार व निर्देशक रामहृदय तिवारी के सहज, सरल व बोधगम्य भाषा में लिखी गयी है वहीं इस पत्रिका में वरिष्ठ समाजवादी चिंतक व सहित्यकार हरि ठाकुर की एक दुर्लभ लेख ‘छत्तीसगढ पर गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव’ को समाहित किया गया है ।
‘छत्तीसगढ का बघवा बेटा - वीरनारायण सिंह’ में रामहृदय तिवारी लक्ष्मण मस्तुरिहा के उत्तेजक शव्दों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं – ‘जोर जुलूम के उसी समय में साभिमानी मन करिन विचार/परन ठान के कफन बांध के म्यान ले लिन तलवार/निकार/उही समे म छत्तीसगढ के, गरजिस वीर नारायण सिंह/रामसाय के बघवा बेटा, सोनाखान धरती के धीर ।‘ ............ फूकिन संख संतावन म, कॉपिन बैरी, गे घबराय/साह बहादुर लक्ष्मीबाई, नाना टोपे सुरेंदर साय/मंदसौर ले खान फिरोज, ग्वालियर के बैजा रानी/सहित कुंवर सिंह आरा वाले, बांधपुर के मर्दन बागी/राहतगढ के आदिल मोहम्मद, अजमेर ले बख्तावर सिंग/सादत खाँ इन्दौर ले गरजिस, देस धरम बर जीव दे दिन ।‘
इस लेख में महान क्रातिकारी वीर वीरनारायण सिंह के संबंध में आगे लिखते हैं – ‘उन्हें प्राणदण्ड की सजा सुना दी गई । वीरनारायण सिंह चाहते तो माफीनामे के साथ अपने प्राण बचा सकते थे मगर उस वीर ने आततायियों के आगे सर झुकाने के बदले, कटाना कबूल किया । ........... १० दिसम्बर १८५७ ! सुबह का वक्त था जयस्तम्भ चौक रायपुर में सैनिकों और आम जनता की उपस्थिति में ६२ वर्षीय क्रान्तिवीर की वज्रकाया को तोप के गोले से उडा दिया गया । नि:स्तब्धता के बीच, वातावरण में गूंज उठी उस अमर आत्मा की अधूरी हसरत....
कभी वह दिन भी आएगा, जब अपना राज देखेंगे/ जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा ।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास गवाह है- छत्तीसगढ के प्रथम ज्ञात शहीद के रुप में, वीर नारायण सिंह का नाम सदा के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया । जिस पर आने वाली पीढियां गर्व करती रहेंगी.....’
छत्तीसगढ के दूसरे क्रातिकारी अमर शहीद सुरेन्द्र साय के संबंध में लिखते हुए रामहृदय तिवारी लिखते हैं - ‘आदिवासियों के सारे परम्परागत अधिकार और सुविधाएँ छीन ली गयीं । पक्षपात और शोषण का निरंकुश दौर चल पड़ा । यातना से मुक्ति पाने जनता ने सुरेन्द्र साय से गुहार लगाई और एक स्वर से उन्हें अपना नेता चुन लिया । जय सुरुज जय जनम भूमि के, गरजिस वीर उठाके हाथ/सुरुज देव के नमन करिस अउ, धुर्रा उठा चढा लिस माथ । ‘ सन् 1809 में भरे पूरे संगलपुर स्टेट के भरे पूरे रावंश में पैदा हुए भव्य व्यक्तित्व के स्वामी सुरेन्द्र साय नें अंग्रेजों की दासता को ठुकरा कर उनके विरूद्व आदिवासियों को खडा कर स्वयं ताउम्र लडते रहे 26 जनवरी 1864 को पूरे रावंश को घेरकर गिफ्तार कर लिया एवं रायपुर व नागपुर फिर असीरगढ के किले में उन्हें रखा गया जहां वे वंदेमातरम के जयघोष व कैदियों में देश प्रेम की भावना व अंग्रेजों के प्रति विद्रोह जगाते हुए 28 फरवरी 1884 को मृत्यु को शहीद हो गये । ........ ‘एक न एक दिन माटी के, पीरा रार मचाही रे/नरी कटाही बैरी मन के, नवा सुरुज फेर आही रे... ‘
‘यथा नाम तथा गुण - वीर हनुमान सिंह’ में बलशाली व प्रभावशाली व्यक्तित्व के क्रातिकारी हनुमान सिेह के संबंध में लिखते हैं – ‘तप तप तन मन बज्जुरा होथे, खप खप देह भभूत समान/जनम जनम के जंग जुझारु, होथे वीर सपूत महान/कौन कथे माटी के मनखे, जागे नइ हे सुते हे/जब-जब जुल्मी मुड़ उठाथे, तब तब बारुद फूटे हे ।‘ आगे लिखते हैं – ‘यथानाम तथा गुण के अवतार, रामायण कालीन हनुमान की तरह वीर सेनानी हनुमान सिंह का भी बस एक ही मंत्र था : कौमकाज कीन्हे बिनु, मोहिं कहाँ बिश्राम । ......... स्वाधीनता के लिए संघर्षरत् वीर सेनानी हनुमान सिंह की लड़ाई, मात्र सैन्य युद्ध या राजनीतिक लड़ाई नहीं थी । १८५७ के महासंग्राम में कई प्रश्न संघर्षरत् थे । यह अंग्रेज बनाम भारतीय का ही संघर्ष नहीं था, बल्कि जीवन के ज्वलंत प्रश्नों से तमाम मनुष्यता को अपनी जद में लेता, एक मानवीय संघर्ष भी था । यह लड़ाई दूसरों की भूमि और सम्पदा हड़पने वाली नृशंस सत्ता के विरुद्ध ही नहीं थी, बल्कि मानवीय गरिमा, अधिकार और स्वाभिमान के लिए लड़ी गई लड़ाई थी ।‘
‘जो न लहू से लिखी जाए, वो कहानी क्या है/वक्त का न रुख बदल दे, वो रवानी क्या है/ मुश्किले, हार, थकन, बात है कमजोरों की/जो न तूफान से टकराए, वो जवानी क्या है ।‘ हनुमान सिंह के संबंध में ज्ञात श्रुतियों के आधार पर 20 जनवरी 1858 को छत्तीसगढ के डिप्टी कमिश्नर के बंगले में हमले के उद्देश्य से ठाकुर हनुमान सिंह घुसे थे पर सुरक्षा प्रहरियों के जाग जाने से वे कमिश्नर की हत्या करने में सफल नहीं हो पाये थे इसके बाद – ‘कहाँ गए वे ? आगे उनका क्या हुआ ? इतिहास मौन है । मौन इतिहास के अलिखित अक्षर को यदि पढना चाहें तो हम पढ सकते हैं : जीवन में जीतना उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना किसी उद्देश्य के लिए संघर्ष करना है ।‘
‘भूमकाल के क्रान्तिवीर - लाल कालेन्द्र सिंह’ में रामहृदय तिवारी बस्तर के संबंध की प्रकृति का बहुत ही मनोहारी चित्रण पुस्तुत करते हैं – ‘बस्तर, छत्तीसगढ की धरती पर फुदकती हुई कविता का नाम है । जहाँ वृक्ष केवल वृक्ष नहीं, वनवासियों का प्राणवान मित्र है । बस्तर, जहाँ नृत्यगीत केवल आमोद का आरोह-अवरोह नहीं, सरल जीवन का साँस्कृतिक समारोह है । बस्तर जहॉं गीत की हर लय, नृत्य की हर थिरकन, मांदरी की हर थाप दन्तेश्वरी मैया के चरणों में चढाई गई चढौत्री है । केवल इतना ही नहीं, अपने आप मे रमे साहसी और स्वाभिमानी लोगों का संसार है बस्तर ।अद्भूत प्रकृति, निराली संस्कृति के साथ-साथ उनके शौर्य का सिलसलेवार इतिहास भी है बस्तर । बस्तर में अंग्रेजी दासता के विरुद्ध संघर्ष में अनगिनत शूरवीरों का योगदान है, जिनके नाम, केवल इतिहास में नहीं, जन-जन के मानव पटल में अंकित है । उन्हीं में एक अमिट शिलालेख की तरह जगमगाता हुआ नाम है-शहीद कालेन्द्र सिंह । ऐसे ही शहीदों के रक्त से लहलहाती है धरती । शहीदों के खून से निखरती है संस्कृती । शहीदों की स्मृति स्वतंत्रता को देती है नई जिन्दगी । आइए, आज हम महान शहीद कालेन्द्र सिंह के शहादत का स्मरण करें । ......... बिटिश सत्ता के विरुद्ध, सन् १९१० में एक महान जनक्रान्ति का विस्फोट बस्तर के वनांचल में हुआ । स्थानीय भाषा में यह क्रान्ति भूमकाल के नाम से, आज भी विख्यात है । इस क्रान्ति के सूत्रधार, सिपहसालार और प्रेरणा स्रोत थे-लाल कालेन्द्र सिंह । बस्तर के राजवंश में जन्म लेने के बावजूद, उनमें राजशाही दंभ नहीं था । महल की सुख सुविधाओं के बदले उन्होंने असुविधाओं को झेलते देहात में रहना कबूल किया, ताकि वनवासियों के बीच उनके अपने बनकर रह सकें ।‘
‘१८०८ में परजा जनजाति के लोगों के सामूहिक नरसंहार और बलात्कार की घटना ने तो समूचे बस्तर को एकबारगी दहला दिया । पहले से क्षुब्ध और क्रुद्ध, पूरा का पूरा बस्तर ज्वालामुखी के भीषण विस्फोट के लिये तैयार हो गया । ......... सूझ-बूझ के पांव धरव अब, पांव तुंहर चढ नाचत हे । मोर कोरा के लइका लइका, करनी तुंहर बांचत हे । तुंहर रद्दा रद्दा के चिन्हारी अब हमला होगे मनखे मनखे के टोरत मा, तुंहर मन पगला होगे अब न सइहौं कुछ गारि रे , मय काल कटइया आरी अवं मय छत्तीसगढ के माटी अंव ।‘
‘रानी के सुझाव पर, नेता नार के वीर गुंडा धुर को भूमकाल का नायक निर्वाचित किया गया । प्रत्येक परगने से एक एक व्यक्ति को नेता नियुक्त किया गया । कालेन्द्र सिंह के नेतृत्व में क्रांति की सुनियोजित रुप रेखा तैयार हो गयी । १ फरवरी १९१० को सम्पूर्ण बस्तर में विद्रोह का बिगूल बज उठा । .......... रानी सुबरन कुंवर ने क्रांतिकारियों की सभा में मुरिया राज की स्थापना की घोषणा की । वनवासियों ने नये जाश के साथ अंग्रेज आधिपत्य वाले शेष स्थानों को कब्जा करने में पूरी ताकत झोंक दी । छोटे डोंगर में क्रांतिकारियों एवं सेना के बीच दो बार मुठभेड़े हुई । ................ आजीवन कारावास का दंड भोगते भोगते वनवासियों के आंखों का तारा वीर कालेन्द्र सिंह ने १९१६ में अपनी आंखे सदा सदा के लिये मूंद ली और अपनी मातृ भूमि के नाम शहीद हो गये ।‘
‘मुक्ति संग्राम का पहला बलिदानी - शहीद गेंद सिंह’ में रामहृदय तिवारी नें अपनी दिल की व्यथा को कुछ इस तरह से अभिव्यक्त किया है – ‘इतिहास तड़प कर कहता है वीर नारायण सिंह से पहले छत्तीसगढ की धरती में प्रथम शहीद कहलाने का गौरव जमींदार गेंद सिंह को ही प्राप्त है । गेंद सिंह एक साधारण सा नाम लेकिन क्रांतिकारी क्रियाकलाप ऐसे कि मस्तिष्क की शिराआें को झनझना देते हैं । अप्रतिम शक्ति, साहस और शौर्य के बगैर ऐसा संगठन, संघर्ष और फिर शहादत संभव नहीं जो गेंद सिंह ने अपने जीवन में कर दिखाया । संभवत: ऐसे ही लोगों के लिये दुश्यंत की कलम से निकली होगी । .......... सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए मेरे सिने में नहीं तो हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए ।
‘विदेशी सत्ता के विरुद्ध गेंद सिंह के नेतृत्व में वनवासियों का सुनियोजित स्वाधीनता संग्राम एक वर्ष तक चला, अंग्रेजों के छक्के छूट गये । आदिवासियों के छापामार युद्ध से परेशान और हैरान अंग्रेज एगन्यू ने चौदह से बड़ी सेना बुलाई । १० जनवरी १८२५ को परल कोट को चारों ओर से अंग्रेजी सेना ने घेर लिया फिर गेंद सिंह गिरफ्तार कर लिये गये । .......... सन् १८२५ की निर्मम तिथि २० जनवरी । परल कोट महल के सामने ही देशभक्त वीर गेंद सिंह को फांसी दे दी गई । ............... १८५७ के बहुत पहले अंग्रेजी शासन के विरुद्ध, छत्तीसगढ क ी पावन भूमि पर मुक्ति संग्राम का यह पहला बलिदान था । ............. वीर राजा गेंद सिंह बलिदान तुम्हारा भले रहे अनाम केवल आंसु है हमारे पास उन आंसुआें से करते हैं तुम्हें सलाम बारंबार । ........ आज भी अबूझमाड़ की धरती से रात सन्नाटे की परतों को चिरती एक खामोश आवाज गुंजती है मेरे आदिवासी साथियों अन्याय का विरोध और न्याय का समर्थन आदमी की पहचान है । इस पहचान को कभी मत भूलना ।
अपने संपादकीय में रामहृदय तिवारी छत्तीसगढ के अमर शहीदों को याद करते हुए लिखते हैं - ....... सर्जना के इस विशेषांक में सम्मिलित सामग्रियां छत्तीसगढ के क्रांतिवीरों की केवल योगगाथाएँ नहीं है, वरन् मनुष्य के भीतर स्वतंत्रता की नैसर्गिक प्यास और परितृप्ति के लिये किये गये संघर्ष के विरल उदाहरण है । जो हमारी नशों को झनझना देते हैं । ये क्रांतिवीर थे तो छत्तीसगढ की माटी के सपूत, पर उनके संघर्ष का प्रभाव राष्टव्यापी था ।‘
बहुत ही बढिया कलेवर में प्रकाशित ‘सर्जना’ के प्रकाशक हैं चंद्रशेखर पवार! वे अपने प्रकाशकीय में लिखते हैं - ‘अक्सर देखा गया है कि पत्रिकाएं जोश-खरोश के साथ शुरु होती है, पर कुछ दूर जाने के बाद अधिकांश पत्रिकाएं हाँफते हुए दम तोड़ देती है । इसके पीछे अनेक कारण होते हैं । कारणों को हम जानते हैं । मुमकिन है उनमें से किसी कारण का शिकार, किसी समय हम भी हो जाएं । इसलिए सर्जना के दीर्घ जीवी होने का दावा हम नहीं करते । हमारे साथ में हौसले के साथ केवल कोशिशें है । प्रचलित आम धारणा के विपरीत मुझे यह लगा कि पठनीयता की प्यास लोगों में अभी भी उतनी कम नहीं हुई है जितनी कि साहित्य बिरादरी को आशंका है । बस उन तक अच्छी पत्रिकाएं पहुंचनी चाहिए ।‘
हमारी शुभकामनायें चंद्रशेखर पवार व रामहृदय तिवारी जी की यह पत्रिका दीर्घजीवी हो एवं छत्तीसगढी समाज, संस्कृति व कला के संबंध में हमारी जीजीविषा को शांत करती रहे ।
(इनवाईटेड कामा व नीले रंग में लिखे गये अंश पत्रिका ‘सर्जना’ से लिए गये हैं, शेष विचार मेरे स्वयं के हैं । प्रकाशक एवं लेखक को आभार सहित)
संजीव तिवारी
sarjana achchhi lagi, posting ke liye dhanyawad. kripiya ek prati bhijwaye. prof. ashwini kesharwani
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआभार इस जानकारी का. बहुत साधुवादी कार्य है.
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ के संबंध में इतनी अच्छी पत्रिका के संबंध में यहां पर जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कृपया संभव हो तो इन क्रांतिकारियों के संबंध में संपूर्ण जानकारी नेट पर उपलब्ध कराने की कृपा करें ताकि छत्तीसगढ के शहीदों की जानकारी विश्व के हिन्दी पाठकों तक सुलभ हो सके ।
जवाब देंहटाएंआभार इसे यहां देने के लिए ।
बहुत सुंदर!!
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय!!
भूमकाल के क्रांतिवीर लाल कालेंद्र सिंह के बारे मे आमतौर पर कम ही जानकारी प्रकाशित होती रही है, सर्जना में यह सब जानकारी उपलब्ध करवाना निश्चित ही तारीफ़ की बात है!!
संपादक महोदय मे संपादकीय में वाकई एक सही बात कही हैं दूसरी ओर प्रकाशक महोदय का जमीनी हकीकत से वाकिफ़ रहना पसंद आया लेकिन उनके हौसले को साधुवाद!!
सर्जना निकालने के लिए सर्जना परिवार को बधाई!!
संजीव तिवारी जी के माध्यम से वार्षिक सदस्यता लेना चाहूंगा!!
"आरंभ" का आभार इस सूचना को यहां उपलब्ध करवाने के लिए!