लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

 विजय वर्तमान

चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है......

Ramchandra Deshmukh Chaindaini Gonda

07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है।

कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों ने हिन्दी की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं जैसे ' धर्मयुग ' आदि में विस्तारपूर्वक लिख कर सम्पूर्ण भारत को चंदैनी-गोंदा की क्रांतिकारी चेतना से अवगत कराया। शिव यादव भैया ने अंग्रेज़ी अखबारों में लिखकर आत्ममुग्ध अंग्रेजीदाँ तबके को अपने सुरक्षित खोल से बाहर झाँकने हेतु आवाज़ दी।

कला - ऋषि दाऊ रामचन्द्र देशमुख को याद करते हुए

सभी अलंकरणों से ऊपर विराजमान कला ऋषि दाऊ रामचन्द्र देशमुख का देहावसान 13जनवरी 1998 को रात्रि लगभग 11 बजे हुआ था । उनकी पार्थिव देह का दाह - संस्कार 15 जनवरी ( मकर संक्रांति के दूसरे दिन ) को हुआ था । हमारी परंपरा के अनुसार दाह - संस्कार वाले दिन को ही अवसान - दिवस मानते हैं और उसी दिन से तीज नहान और दशगात्र के दिन की गिनती करते हैं । कुछ लोग दाऊजी की पुण्यतिथि 14 जनवरी को मानते हैं और कुछ लोग 13 जनवरी को । मुझे दोनों ही तिथियाँ स्वीकार हैं । किसी एक पर उज़्र करने का कोई औचित्य मैं नहीं समझता । दाऊजी की पुण्यतिथि पर कुछ स्मृति - पुष्प अर्पित करने के नैतिक दायित्व के तहत मैं इस बार कुछ नितांत निजी प्रसंगों के साथ दाऊजी को याद करने की इजाज़त आप सबसे माँगता हूँ ।


चंदैनी गोंदा में मैंने अपनी एक बात सबसे छिपाकर रखी। अपने मित्रों से भी ज़िक्र कर सकने लायक साहस मैं कभी जुटा नहीं पाया। कारण - मेरा आत्मनाशक संकोच और आत्मघाती विनम्रता। मेरे मित्रगण - प्रमोद, लक्ष्मण, सन्तोष टांक, भैयालाल, केदार आदि किसी को भी भनक तक नहीं लगने दी मैंने। सुरेश भैया से साझा करने की तो सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि मैं उन्हें अग्रज मानता था और आज भी मानता हूँ, हालांकि हमारी उम्र में 3 साल का ही अंतर है। जब इन सबको नहीं बता पाया तो लड़कियों को बताने के लिए सोचता भी कैसे। दरअसल सारी जद्दोजहद बात को दाऊजी से छिपाने की थी और मैं उसमें सफल रहा।

आज रहस्य खोलने का हौसला इसलिए जुटा पा रहा हूँ कि जब मेनका वर्मा ने मेरा इंटरव्यू लेकर मेरे जीवन की बखिया उधेड़ ही दी है, तो अब मैं सोचता हूँ कि जहाँ सत्यानाश हुआ, वहाँ सवा सत्यानाश हो जाने से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ने वाला। मेनका ने मेरा सारा संकोच दूर कर दिया है।

प्रवासी छत्तीसगढ़िया विभाग की स्थापना - एक परिकल्‍पना Establishment of Migrant Chhattisgarhia Department - a vision by Ashok Tiwari

Establishment of Overseas Chhattisgarhia Department

प्रवासी भारतीय दिवस की शुरुआत विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों और अनिवासी भारतीयों के साथ आर्थिक -सांस्कृतिक संबंध की स्थापना एवं संवर्धन के उद्देश्य के लिए किया गया है। इसकी शुरुआत के लिए भारत सरकार ने पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में एक उच्च स्तरीय समूह का गठन किया था जिसके मुखिया पूर्व राजनयिक डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी थे। उनके द्वारा तैयार प्रतिवेदन के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने सन 2002 में इस दिवस को आयोजित किये जाने के बारे में घोषणा की और 2003 से इसे प्रतिवर्ष 9 जनवरी को मनाने की शुरुआत की गई। 9 जनवरी का दिन इसलिए चुना गया क्योंकि इस दिन महात्मा गांधी सन 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटे थे। तब से अर्थात 2003 से प्रतिवर्ष 9 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन देश के किसी न किसी शहर में किया जाता है जिसमें दुनिया भर में रहने वाले भारतीय मूल के लोग अर्थात पी आई ओ (PIO -Person of Indian Origin) और अनिवासी भारतीय अर्थात एन आर आई (NRI-Non Resident Indian) सम्मिलित होते हैं। आयोजन के अंतर्गत चयनित प्रतिभागियों को प्रवासी भारतीय सम्मान भी प्रदान किया जाता है।

भारतीय मूल के लोग मुख्यतः उन्हें कहा जाता है जिनके पूर्वज सैकड़ों वर्ष पहले ब्रिटिश सरकार द्वारा इंडेंचर्ड लेबर के रूप में मजदूरी करने के लिए भारतवर्ष से ले जाए गए थे और वे लोग कालांतर में उन देशों में ही बस गए और क्रमशः उन देशों के मुखिया भी बने, भाग्य निर्माता बने तथा उन देशों के लिए विकास के सोपान रचे। इस श्रेणी में फिजी, ग्रेनाडा, गयाना, जमाईका, मॉरीशस, सेंट लूसिया, सैंट विंसेंट एंड ग्रैनेडाइंस, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम और त्रिनिडाड और टोबेगो में निवास करने वाले भारतवंशी आते हैं। इस श्रेणी में व्यापार या अन्य कारणों से सैकड़ों वर्षों से कई पीढ़ियों से विदेश में बसे लोग भी आते हैं।दूसरी श्रेणी के भारत लोग जिन्हें अनिवासी भारतीय कहा जाता है वे व्यापार और और शिक्षा के आधार पर बेहतर जीवन यापन के लिए दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले लगभग एक शताब्दी से देश से अलग अलग समय में जाने लगे हैं। यह क्रम पिछली तीन चार दशकों में ज्यादा बढ़ा है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में 3.2 करोड़ भारतीय विदेशों में रहते हैं जो दुनिया भर के 210 देशों में निवासरत हैं, काम करने के लिए अस्थायी निवासी के रूप में या स्थायी निवासी/नागरिक के तौर पर जिसमें सबसे अधिक लोग, लगभग 45 लाख तो अमेरिका में ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरेबिया, मलेशिया, म्यानमार, कनाडा, ब्रिटेन, बहरीन, श्रीलंका, जर्मनी, फ्रांस, इटली, सिंगापुर, फिलीपीन, ओमान, नेपाल, आस्ट्रेलिया इत्यादि देशों में अनिवासी भारतीयों की संख्या लाखों में है।

भारत सरकार ने इन अनिवासी भारतीयों और भारतीय मूल के लोगों के लिए प्रवासी भारतीय दिवस मनाए जाने के साथ ही सन 2004 में एक अलग मंत्रालय की स्थापना की थी जिसे प्रवासी भारतीय मंत्रालय कहा जाता था किंतु बाद में सन 2016 में इस मंत्रालय का विदेश मंत्रालय में संविलियन कर दिया गया और अब यह विदेश मंत्रालय के अधीन एक विभाग के रूप में कार्यरत है ।भारत सरकार के प्रवासी भारतीय मंत्रालय की स्थापना या विभाग के गठन के आधार पर देश के अनेक राज्यों में भी उस राज्य की प्रवासी जनसंख्या जो विदेश जाकर बस गयी या वहां कार्यरत हैं उनके लिए पृथक विभाग या मंत्रालयों की स्थापना की गई जो भारतवर्ष के बाहर और देश के विभिन्न राज्यों में निवास करने वाले उस राज्य विशेष के लोगों के साथ आर्थिक सांस्कृतिक संबंध की स्थापना एवं सुदृढ़ीकरण का कार्य करते है किंतु छत्तीसगढ़ में अभी तक ऐसी किसी व्यवस्था का सृजन नही किया गया है।

मानव के शारीरिक उद्विकास और सामाजिक उद्विकास के अध्येता मानते हैं कि मनुष्य का उद्भव अफ्रीका महाद्वीप में हुआ था जहां से वह धीरे धीरे दुनिया के विभिन्न भागों में फैल कर उन् क्षेत्रों के स्थाई निवासी बन गया। यह सिलसिला जब से मनुष्य इस धरती पर उदविकसित हुआ है तब से शुरू हुआ और अब भी जारी है।

छत्तीसगढ़ के लोग भी इसी तरह के प्रवासन की जीवन पद्धति के बहुत पुराने संवाहक हैं ।लिखित इतिहास से ज्ञात होता है की 19वीं शताब्दी के अंत में सन अट्ठारह सौ पचास के आसपास जब असम में अंग्रेजों ने चाय बागान विकसित करने शुरू किए तब उन्हें कर्मठ मजदूरों की आवश्यकता थी। उन लोगों को छत्तीसगढ़ वासियों में मेहनत और कर्मठता नजर आई और तब अंग्रेजों द्वारा छत्तीसगढ़ के लोग समीपवर्ती छोटा नागपुर के आदिवासी लोगों के साथ मजदूर बनाकर चाय बागान में काम करने के लिए असम ले जाये गए ।यह सिलसिला आज़ादी के कुछ साल पहले तक जारी रहा अर्थात लगभग डेढ़ सौ साल पहले संभवतः छत्तीसगढ़ से लोगों का अन्यत्र प्रवासन प्रारंभ हुआ था जो अब भी जारी है। छत्तीसगढ़ के समूचे इलाकों में, चाहे वह सरगुजा हो या मैदानी छत्तीसगढ़ या बस्तर अंचल, इन सभी क्षेत्रों में कमाने खाने के लिए अन्यत्र जाने का सिलसिला सैकड़ों सालों से चल रहा है और अब भी जारी है। असम के बाद जमशेदपुर या टाटानगर एक ऐसा क्षेत्र था जहां पर जमशेदजी टाटा ने पिछली शताब्दी के आरम्भ में जब इस्पात कारखाना शुरू किया तब छत्तीसगढ़ से लोग वहां काम करने के लिए ले जाए गए। यह कहा जाता है कि आज भी टाटानगर का कारखाना छत्तीसगढ़ी श्रम के बलबूते झंडा बरदार बना हुआ है। अपने देश में असम के चाय की बात कहें या टाटानगर के लोहे की बात करें, इन सब के पीछे वे प्रवासी छत्तीसगढ़िया ही मूल कर्णधार हैं जिनके श्रम से ये पैदा होते हैं। इसके अतिरिक्त धीरे धीरे छत्तीसगढ़ के लोगों ने लगभग पूरे भारत में चाहे वह दिल्ली हो, जम्मू कश्मीर और लद्दाख हो, उत्तर प्रदेश हो या दक्षिण के राज्य हो या कहें तो समीपवर्ती महाराष्ट्र, ओडिशा, बंगाल हो, या फिर उत्तर पूर्व के लगभग सभी राज्य हों, इन सभी क्षेत्रों में जाकर तरह-तरह के काम करने शुरू किए, और फिर उन्होंने उन स्थानों को ही अपना या तो स्थाई निवास बना लिया, या सीजनल माइग्रेशन के आधार पर वहां काम करना शुरू कर दिया ।

छत्तीसगढ़ के लोगों का देश से बाहर काम करने के लिए जाने और वही बसने का भी हमें जो सबसे पुराना उदाहरण प्राप्त होता है उसके अनुसार सन उन्नीस सौ में एक जहाज में बैठकर लगभग 1000 छत्तीसगढ़ वासी फिजी द्वीप गए थे, अंग्रेजों के मजदूर अर्थात इंडेंचर्ड लेबर बन कर, और फिर वे वही बस गए, छत्तीसगढ़ वापस नहीं आए। यदि हम उन अन्य देशों की बात करें जहां पर भारत वर्ष से लोगों को इंडेंचर्ड लेबर के रूप में अंग्रेजों द्वारा ले जाया गया था और जहां फिर वे भारतीय मजदूर स्थाई रूप से बस गए। उन देशों के बारे में यह कहा जाता है कि वहां अधिकतर लोग बिहार और उत्तर प्रदेश से प्रवासन कर गए थे किंतु साथ ही इन सभी देशों के संदर्भ में यह भी लिखा गया है कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ ही मध्य भारत से भी कुछ लोग मजदूर के रूप में काम करने के लिए उन देशों में गए थे और फिर वे वहां स्थाई रूप से बस गए।यदि यह मध्यभारत वाली बात प्रमाणित होती है तो सम्भव है वह क्षेत्र छत्तीसगढ़ ही रहा होगा क्योंकि तब मध्यभारत में छत्तीसगढ़ से ही लोग काम के लिए बाहर प्रवासन किया करते थे। इस तरह से हम पाते हैं की सौ डेढ़ सौ साल पहले से ही छत्तीसगढ़ के लोगों ने अंतः प्रवासन अर्थात देश के अंदर अन्य राज्यों में स्थाई रूप से बसना और बाह्य प्रवासन अर्थात देश के बाहर अन्य देशों में जाकर स्थाई रूप से बसना ,ये दोनों ही कार्य किया हुआ है।

दूसरी ओर शिक्षा और तकनीकी प्रचार प्रसार के बाद पिछले 5-6 दशकों से छत्तीसगढ़ के लोगों ने दुनिया के लगभग सभी विकसित देशों में रोजगार के लिए जाना आरंभ किया और वहीं पर अभी भी रह रहे हैं तथा अपना और छत्तीसगढ़ का नाम रोशन कर रहे हैं।मेरी यथेष्ठ जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ से उच्च शिक्षा अर्जित कर विदेश में रोजगार हेतु जाने की शुरुआत पिछली शताब्दी के छठवें-सातवें दशक में हुई थी जब रायपुर के डॉ इंदु भूषण तिवारी, श्री कृष्णकांत दुबे और प्रो खेतराम चंद्राकर तथा बिलासपुर के डॉ श्याम नारायण शुक्ला इंग्लैंड, अमेरिका गए और कालांतर में वहाँ के स्थायी निवासी हो गए। बाद में यह क्रम बहुत घनीभूत हुआ और आज के तकनीकी विशेषज्ञता के युग मे छत्तीसगढ़ के हज़ारों लोग दुनिया के विभिन्न देशों में कार्यरत हैं।

सभी प्रवासी छत्तीसगढ़िया लोगों के संदर्भ में कुछ स्थाई व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा किया जाए इसका आभास मुझे तब हुआ जब मैं असम में निवासरत छत्तीसगढ़ी लोगों के मध्य लगभग पिछले 5 सालों से जुड़ा हुआ हूँ। वहां लगभग डेढ़ सौ साल से निवास कर रहे हमारे छत्तीसगढ़िया समाज के लोगों के बीच जाकर न केवल मुझे लगा वरन उन सभी का यह प्रेम भरा आग्रह और कामना भी सुना और महसूस किया जिसके अंतर्गत वे चाहते हैं उसे यदि उनके शब्दों में कहा जाए तो छत्तीसगढ़ सरकार, क्योंकि अब एक छत्तीसगढ़ी पहचान वाले एक पृथक राज्य की सरकार है, उस राज्य की जिस राज्य से हम अपने पूर्वजों के आगमन को जोड़ते हैं, हमारी अपेक्षा है कि वह सरकार हमारे लिए कुछ ऐसी स्थाई व्यवस्था करें कि हम अपने पूर्वजों की भूमि से सांस्कृतिक संबंधों को फिर से आरंभ कर सकें। हमारा वहां आना जाना हो सके। हम डेढ़ सौ सालों से जिस संस्कृति को अपने बीच बचाए हुए हैं उसको चिरस्थाई बनाने के लिए हमें छत्तीसगढ़ की सरकार कुछ सहयोग करें। इन सब के लिए एक स्थायी व्यवस्था शुरू की जानी चाहिए ।

ज्ञातव्य है कि देश के अधिकतर राज्यों में वहां की शासन व्यवस्था में उन राज्यों के प्रवासी समुदायों के लिए प्रवासी विभाग कार्य करते हैं। इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करने वाले बिहार और गुजरात के प्रवासी विभागों का संदर्भ देना चाहूंगा जिसके अंतर्गत गुजरात शासन ने नान रेसिडेंट गुजराती अर्थात प्रवासी गुजराती लोगों के लिए एक फाउंडेशन की स्थापना की है जो देश में रहने वाले गुजराती लोगों के साथ गुजरात का संबंध स्थापित करने और उनके बीच आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ करने के लिए तरह-तरह के गतिविधियों का संचालन करती है।इस फाउंडेशन के द्वारा हर वर्ष देश के किसी एक राज्य में सदा-काल गुजरात नामक आयोजन किया जाता है जिसमें पारंपरिक गुजराती संस्कृति से संबंधित कार्यक्रम होते हैं। हजारों की तादात में लोग इन कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए आते हैं। लगभग 4 वर्ष पहले रायपुर में भी सदा-काल गुजरात नामक का आयोजन हुआ था जिसमें गुजरात राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री विजय रूपाणी भी सम्मिलित हुए थे। उन्होंने यहां के गुजराती भाइयों से मुखातिब होते हुए यह कहा था कि आप भले ही गुजरात से हजारों किलोमीटर दूर रह रहे हो पर ऐसा नहीं है कि आप गुजरात से दूर हैं। आपको कभी भी गुजरात की याद आए आपको कभी भी किसी तरह से सांस्कृतिक असमिता को लेकर कोई चिंता आये पर तो आप फिक्र ना करें, एनआरजी है। आप संपर्क करें एन आर जी अर्थात नान रेसिडेंट गुजराती विभाग से जिसे आप जैसे देश दुनिया मे फैले गुजराती लोगों की सेवा के लिए स्थापित किया गया है।

इसी तरह से बिहार सरकार ने भी प्रवासी बिहारी फाउंडेशन नामक एक विभाग की स्थापना की है जो विदेश में रहने वाले बिहारियों के अतिरिक्त देश के अलग-अलग स्थानों में रहने वाले बिहार राज्य के प्रवासी लोगों के बीच उनके सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए कार्य करती है। इस फाउंडेशन के द्वारा देश के अनेक अनेक राज्यों में जैसे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बनारस, लखनऊ, अहमदाबाद आदि अनेक स्थानों में बिहार प्रवासी बिहार फाउंडेशन के चैप्टर स्थापित किए हुए हैं जो उस क्षेत्र या उस राज्य में रहने वाले प्रवासी बिहारियों के बीच संपर्क का कार्य करता है। इन संदर्भों को यहां पर उल्लेख करने का मेरा एकमात्र अभिप्राय है कि हमारे राज्य से प्रवासन संभवत देश के सबसे पुराने प्रवासनो में से एक है किन्तु हमने अभी तक अपने इन प्रवासी भाइयों के लिए कोई इस तरह की कार्यवाही नहीं की है।और तो और, पहले छत्तीसगढ़ शासन द्वारा प्रतिवर्ष जो प्रवासी छत्तीसगढ़ी अलंकरण दिया जाता था उसे भी पिछले कुछ सालों से बंद कर दिया है, इसलिए मेरा विचार है कि छत्तीसगढ़ राज्य में भी एक प्रवासी छत्तीसगढ़िया विभाग की स्थापना की जाए जिसके अंतर्गत हम फाउंडेशन का गठन करें या फिर सरकार सीधे सीधे उनके बीच जाकर कार्यवाही करें या जिन स्थानों पर हमारे छत्तीसगढ़िया भाई बंधु रहते हैं वहां स्रोत व्यक्तियों को नामित कर अपने गतिविधियों का संचालन करें। ये तमाम बातें और संचालित की जाने वाली गतिविधियां बाद में निर्धारित की जा सकती हैं। यह भी कोशिश की जा सकती है कि क्या फिजी के साथ ही अन्य देशों में भी इंडेंचर्ड लेबर के रूप में छत्तीसगढ़ के लोग गए थे और यदि गए थे तो किन-किन देशों में गए थे और वहां पर उनकी अभी संख्या क्या है। उन सभी को उनके मूल से जोड़ने के लिए संदर्भ स्रोत के रूप में भी हम मदद कर सकते हैं जिसके माध्यम से भी अपने को पहचान सकते हैं अपने गांव और अपने खानदान को पहचान सकते हैं। ये सब तो वैसे ही कार्यवाही होगी जो अन्य राज्यों के प्रवासी विभाग अपने प्रवासी समुदाय के लिए करती है, खासकर उन लोगों के लिए जो देश के बाहर काम करते हैं।

छत्तीसगढ़ के, अभी हाल के दशकों में अमेरिका में निवासरत प्रवासी छत्तीसगढ़ी लोगों ने उत्तर अमेरिका में नाचा नामक एक संस्था का गठन किया हुआ है जिसके माध्यम से वे छत्तीसगढ़ राज्य के साथ सांस्कृतिक संबंध बनाए हुए हैं और उन्होंने बड़े सम्मान के साथ छत्तीसगढ़ राज्य के पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों को सहेज कर रखा हुआ है और गर्व के साथ उसकी अभिव्यक्ति करते हैं, उसका प्रदर्शन करते हैं। इस तरह की संस्थाएं अभी हाल के दशकों में विदेश गए प्रवासी लोगों के बीच समूची दुनिया के देशों में स्थापित की जा सकती हैं। इसके लिए भी यह प्रस्तावित विभाग ठोस कार्यवाही कर सकता है ।ऐसा डाटा बैंक बना सकता है जिसके माध्यम से हम विदेश में रहने वाले छत्तीसगढ़िया और देश के अलग-अलग राज्यों में रहने वाले छत्तीसगढ़िया लोगों के बारे में आंकड़े एकत्र कर सकते हैं। उनकी पूरी जानकारी का संधारण कर सकते हैं और शायद ऐसा करना इसलिए भी बहुत उपयोगी होगा क्योंकि अभी छत्तीसगढ़ से लाखों की तादात में हर वर्ष लोग बाहर श्रमिक के रूप में काम करने के लिए जाते हैं। उनमे से कुछ वहीं रह जाते हैं और कुछ फिर काम करके अपनी खेती-बाड़ी के काम में हाथ बंटाने छत्तीसगढ़ आते हैं। उनका यह माइग्रेशन, सीजनल होता है।

ऐसे ही लोगों को कोरोनावायरस पर बहुत ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जब वह इस महामारी के दौरान अपने कार्य क्षेत्रों को छोड़कर वापस अपनी मातृभूमि छत्तीसगढ़ लौटे थे। यदि हम प्रवासी छत्तीसगढ़िया विभाग की स्थापना करते हैं, तो यह एक ऐसा विभाग होगा जो देश के सभी राज्यों और विदेश में छत्तीसगढ़िया जहां रहते हैं उन सभी देशों में अपने नेटवर्क स्थापित कर सकता है। उस नेटवर्क में ऐसे काम करने के लिए बाहर जाने वाले स्थाई रूप से रहने वाले लोगों की पूरी जानकारी रहेगी और किसी भी तरह की आपदा की स्थिति में राज्य सरकार उनके सहयोग और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण कदम तत्काल उठा सकेगी। शायद ऐसे विभाग की स्थापना से न हम केवल अन्यत्र रहने वाले छत्तीसगढ़िया भाई बहनों के साथ एक सुदृढ़ और स्थाई सांस्कृतिक सेतु का निर्माण कर सकते हैं बल्कि उन सभी छत्तीसगढ़ीया भाई लोगों के हृदय की उस आस को पूरा कर सकते हैं जो उन्होंने अपने मन में संजोकर रखे हुई है, जिन्हें यह याद है कि उनके पूर्वज छत्तीसगढ़ से थे, और उनकी आकांक्षा है कि उनके अपने पूर्वजों की भूमि छत्तीसगढ़ के साथ एक ऐसे संबंध की स्थापना हो जिस संबंध में मिठास हो ,जिस संबंध में स्थायित्व हो और जो संबंध उन्हें अपने मातृभूमि के साथ आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से जोड़ता है। प्रवासी छत्तीसगढ़िया विभाग का गठन एक ऐतिहासिक निर्णय होगा हो हमारे इंटरनल और एक्सटर्नल डायस्पोरा के अनुमानित 30-40 लाख लोगों के लिए उद्देशयित होगी। अर्थात हमारे राज्य की वर्तमान जनसंख्या के आधार पर औसतन लगभग तीन से चार जिलों की जनसंख्या के बराबर।

-अशोक तिवारी

पंथी का दैदीप्‍यमान सितारा: राधेश्याम बारले Dr R S Barle

विश्व के सबसे तेज नृत्य के रूप में प्रतिष्ठित छत्‍तीसगढ़ के लोक कला पंथी नृत्य के ख्‍यात नर्तक पंथी सम्राट स्व. देवदास बंजारे के साथ डॉ. आर.एस. बारले का नाम देश-विदेश में चर्चित है। सतनामी समाज के धर्म गुरू परम पूज्य गुरु बाबा घासीदास जी ने संपूर्ण मानव समाज को सत्य, अहिंसा, भाईचारा, सद्भावना, प्रेम, दया, करुणा, विश्व बंधुत्व के साथ-साथ 'मनखे-मनखे एक समान' जैसे अद्भुत संदेश दिया है। इन्‍होंनें छुआछुत भेदभाव को मिटाकर संपूर्ण मानव में सत्य का रास्ता दिखाया है। समाज नें बाबा के इन्‍हीं संदेशों को भावभक्ति से पंथीनृत्य के माध्यम से प्रचार प्रसार किया, कालांतर से यह नृत्य प्रदेश के लोकमंच का सिरमौर बना हुआ है। राधेश्याम बारले  लगभग साढ़े चार सौ साल पुरानी विधा, इस पारम्पारिक लोकनृत्य की साधना में विगत 40 वर्षो से साधना रत हैं एवं इसे आगे बढ़ाने हेतु कृतसंकल्पित हैं।
राष्ट्रीय चेतना के विकास मे लोक गीतों उवं नृत्यों की अहम भूमिका रही है। छत्‍तीसगढ़ का पंथी लोक नृत्य गीत लोक जीवन का ऐसा महाकाव्य है जिसमें जीवन धारा के साथ ही अंलकारो की मधुर झंकार भी है। पंथी गीत नृत्य में अतीत के दृश्यपटल में वर्तमान के संघर्षो का रंगबिरंगा चित्र भी है। लोकचेतना के उन्नयन में इसकी उल्लेखनीय भूमिका रही है। छत्तीसगढ़ तथा देश में सांस्कृतिक अस्मिता के संरक्षण और संवर्धन में पंथी नृत्य ने एक विशेष पहचान बनाई है। पंथी आज देश ही नहीं विदेशों में प्रख्यात हो चुका है। डॉ. आर.एस. बारले की कला साधना और उसकी मेहनत से आज छत्तीसगढ़ में इस विधा की लगभग 200 से ज्यादा कला मंडलियों के 65 हजार पंथी नृत्य के कलाकार हैं। पंथी नृत्य भारत की नहीं अपितु विश्व के 70 देशों में अपनी पहचान बना चुकी हैं, इसके नेपथ्‍य में डॉ. आर.एस. बारले के कला गुरू पंथी सम्राट स्व. देवदास बंजारे का अहम योगदान है।
डॉ. आर.एस. बारले नें भी अपने कला गुरू की इस मुहिम को आगे बढ़ाया है एवं अमेरिका एवं मैक्सिकों के पर्यटकों को छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति, लोक नृत्य पंथी का विशेष प्रशिक्षण देकर देश एवं प्रदेश का नाम रोशन किया है। इसके अलावा जाट कालेज, रोहतक (हरियाणा), सिक्किम, नामची, असांगथांग, गुवाहाटी, कालाहांडी, संबलपूर, सिद्धि कॉलेज मध्य प्रदेश, नाट्य कॉलेज सतना मध्य प्रदेश आदि शहरों के स्कूली, कॉलेज के छात्र - छात्राओं को लोक कला पंथी नृत्य का प्रशिक्षण देकर कला के प्रति रूची पैदा कर राष्ट्रीयता एवं आत्मसम्मान तथा देश प्रेम की भावना को जागृत करने का अनुकरणीय पहल किया है। इसके साथ ही छत्‍तीसगढ़, महाराष्‍ट्र, उड़ीसा, झारखण्ड आदि राज्यों के नक्सली क्षेत्रों में भी अपनी या से नक्सलियों को सही दिशा में जोड़ने के लिए हजारों कार्यक्रम प्रस्तुत किये हैं। जिससे प्रेरित कर आदिवासी अपने मूल जीवन में लौटकर खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे है।
9 अक्टूबर 1966 को ग्राम खोला, पोस्ट - धमना, तह. पाटन, जिला - दुर्ग में जन्‍में डॉ. आर.एस. बारले का पूरा नाम डॉ. राधेश्‍याम बारले है। इनके पिता का नाम स्व. समारू राम बारले एवं माता का नाम श्रीमती गैंदी बाई बारले है। इनके परिवार में पत्‍नी श्रीमती महेश्वरी बारले के साथ एक बेटी और दो बेटे हैं। वर्तमान में वे एच.एस.सी.एल. कॉलोनी, मड़ोदा स्टेशन, पो. नेवई, जिला दुर्ग में रहते हैं। इन्‍होंनें एम.बी.बी.एस.(बायो.) के साथ ही इंदिरा कला संगीत विश्‍व विद्यालय से लोक संगीत में डिप्लोमा भी किया है। वे आकाशवाणी रायपुर के बी.हाई ग्रेट एवं दूरदर्शन के नियमित कलाकार हैं। इन्‍होंनें पंथी नृत्य की शुरुआत सितम्बर 1978 से किया था। इन्‍हें राज्य अलंकरण गुरु घासीदास सामाजिक चेतना एवं दलित उत्थान सम्मान, राज्य अलंकरण प्रथम देवदास बंजारे सम्मान, राज्य अलंकरण डॉ. भवर सिंह पोते आदिवासी सेवा सम्मान प्राप्‍त हो चुका है। डॉ. आर.एस. बारले को भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा प्रथम देवदास बंजारे सम्मान, सामाजिक समरसता सम्मान, कलासाधक सम्मान, दाऊ महासिंग चंद्राकर सम्मान, जिला युवा पुरस्कार, सामाजिक कार्य एवं जन चेतना सम्मान, कला श्री सम्मान, पंथी रत्न सम्मान, कला रत्न सम्मान, लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड, सतनाम फेलोशिप आवार्ड, धरती पुत्र सम्मान एवं छत्तीसगढ़ सतनामी रत्न सम्मान आदि सैकड़ों सम्मान प्राप्‍त हो चुके है।
डॉ. आर.एस. बारले नें विभिन्‍न जनकल्याणकारी कार्यकमों की प्रस्तुति पारंपरिक पंथी के माध्‍यम से दिया है जिसमें नशाबंदी, दहेज प्रथा, स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओं-बेटी पढ़ओं, परिवार नियोजन, साक्षरता, कुष्ट उन्मूलन, पर्यावरण, पल्‍स पोलियो, आयोडीन युक्त नमक, राष्ट्रीय सदूभाव, स्तनपान, महिला सशक्तिकरण, आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, इंद्रधनुश अभियान, पंचायती राज, कैंसर एवं एड्स आदि विषयों पर लगभग 200 मंचीय प्रस्तुति के माध्यम से प्रेम, दया, अहिंसा, सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता का संदेश प्रदेश एवं देश के कोने-कोने में पहुँचाने का अनुठा कार्य किया है। इसके अलावा गीत एवं नाटक प्रभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, खेल युवा कल्याण विभाग, नेहरु युवा केन्द्र के माध्यम से सैंकड़ों राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कैंप में सहभागिता के साथ कार्यक्रम प्रस्तुत कर राज्य एवं देश के नाम को गौरवान्वित किया है।
डॉ. आर.एस. बारले पंथी के साथ ही नाट्य विधा के भी सिद्धस्‍थ कलाकार हैं इन्‍होंनें छत्तीसगढ़ के कई रंगमंचों पर स्‍व. प्रेम साइमन एवं पारकर लिखित सैकड़ों नाटकों का निर्देशन एवं उसमें अभिनय भी किया है। जिसमें पानी की जगह खून बहा, शहीद वीर नारायण सिंह, छत्तीसगढ़ समग्र दर्शन, असकट के दवई, बिन आखर पशु समान (साक्षरता पर अधारित), देश में दहेज की हुकुमत, श्रंगी ऋषि का शिहावा (बस्तर दर्शन), भरम के भूत, लेड़गा देवार की दशमत कैना, प्रेम साइमन की आत्म कथा, देवदास बंजारे की आरुग फूल, सत्य ही सत्य, डाकू विक्रम सिंह, नाम के तहसीलदार आदि नाटकों में रंगमंची प्रशिक्षण एवं अभिनय किया है। देश के प्रमुख महोत्सव एवं राज्यों में भी इन्‍होंनें नाटकों का मंचन किया है जिसमें राजिम कुम्भ, शिरपुर महोत्सव, देवबलोदा महोत्सव, नागोद महोत्सव सतना (म.प्र.), बुरला उत्सव उड़ीसा गोदिंया महाराष्ट्र, नांमची सिक्कीम, सोनारी जमशेदपुर, उत्सव पुर्वाचंल गुवाहाटी, युवा उत्सव आदि महोत्सव प्रमुख हैं।

- संजीव तिवारी 

 संतोष झांजी के ७५ वें जन्मदिन पर :

हिरनी के पांव थमते नहीं हैं

विनोद साव

 वे हमेशा तरोताजा और प्रफुल्लित दिखाई देती हैं जैसी बरसों से दिख रही हैं. अकाल वैधव्य के बाद भी चार बेटियों और एक बेटे के साथ अपने मातृत्व-मय कर्तव्य को पूरा करते हुए अपने संघर्षमय जीवन को उन्होंने गाते गुनगुनाते हुए बिता दिया. गीत लेखन और मंचों पर गायन ने उनके व्यक्तिव को गीतमय बना दिया. जीवन रूपी गाडी के पहियों ने उनके सुर में अपना सुर मिलाया और उनके आसपास को गीत माधुर्य से भर दिया. साहित्य की समालोचना ने नहीं पर जीवन के दर्शन ने जीवन को एक कविता कहा है. यह काव्यमय अभिव्यक्ति संतोष झांजी के पोर पोर से फूटती है.. और यही बन जाती है उनकी शक्ति, हर झंझावात से निपट पाने की.

 ऐसे ही हौसलों के साथ अब वे ७५ पार कर रही हैं लेकिन मैं फकत ३० बरस से उन्हें जानता हूं. वह भी उनकी बाहरी सक्रियता से. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि भिलाई के उनके मकानों में मेरी उपस्थिति कभी हुई हो. वे अक्सर हमारे साथ तब होती हैं जब हम किसी साहित्यिक कार्यक्रमों में जा रहे होते हैं - पहले अशोक सिंघई की कार में और बाद में रवि श्रीवास्तव की कार में. वे अपने घर से निकलकर भिलाई के सेंट्रल एवेन्यू में खड़ी मिलती हैं और कार्यक्रम से आने के बाद वहीँ फिर उतर जाती हैं.. फिर किसी ऑटो में बैठकर घर चली जाती हैं. इन साहित्यिक यात्राओं में तब सहयात्रियों के बीच जो अपने पन से भरी बातें होती हैं उसमें हर किसी के जीवन राग सुनाई दे जाते हैं.

तब उम्र के प्रौढ़ काल में इप्टा के नाटकों में उनकी सक्रियता का दौर कम हो रहा था और लिटररी क्लब की कविता गोष्ठियों में भागीदारी का दौर बढ़ रहा था. इस भागीदारी और भागमभाग में उन्हें कहीं कोई अड़चन हो रही हो ऐसा दिखाई नहीं देता सिवा गर्मी सहन न कर पाने के. अक्सर कार में चढ़ते उतरते समय वे इतना ही कह रही होती हैं कि ‘बड़ी गर्मी है.. और असह्य हो जाने पर वे कार रुकवाकर ठण्डे पानी की बोतल खरीद लेती हैं.

पिता का संगीत, पति का रंगमंच, बेटे का अभिनय, बहू का नृत्य और पोते की चित्रकला सबको अपने आसपास आकार लेता हुआ वे देखती रहीं और कला के इन अलग अलग प्रतिरूपों को अपनी प्रस्तुतियों में अजमाती रहीं. पंजाबी की मातृभाषा, बांग्ला की जन्मभूमि, छत्तीसगढ़ की हिन्दी और भिलाई की छत्तीसगढ़ी. इन सबकी खूबियों को अपने गीतों में पिरोती रहीं और उनमें नई आभा व चमक पैदा करती रहीं.

 कार्यक्रमों में संतोष जी की उपस्थिति से रौनक बढ़ जाती है. वे अपने समय में समय से पहले तैयार एक आधुनिक दृष्टि संपन्न सुघड़ महिला रही हैं - जिनके पास लिखने, पढने, बोलने और अपनी बातों को रखने का सलीका रहा है. इस सलीकेपन ने उनकी कविताओं और गीतों को नई पहचान दी है. जिस प्रभाव के साथ वे गोष्ठियों में अपनी कविताओं का पाठ कर लिया करती थीं उनसे कई गुना अधिक संप्रेषणीयता से वे कवि सम्मेलनों में अपने गीतों की बानगी पेश कर छा जाया करती थीं. यह छा जाने वाली कूबत उनके सदाबहार व्यक्तित्व में अब भी दिखाई दे जाती है. उस पर तुर्रा ये कि जब उनके समकालीन कवि गण एक के बाद एक इस जीवन जगत से कूच कर रहे थे या आयोजनों में शिथिल दिखाई दे रहे हैं तब उनके असंख्य भतीजे अपनी झांझी आंटी को उत्साह से लबरेज अपनी सक्रिय भागीदारी में देख पा रहे हैं. यह सब उनकी अनुवर्ती पीढ़ी के लिए एक सीख और सबक होना चाहिए कि साहित्य से रचनाकार को कैसे संबल प्राप्त होता है और उन्हें जीवन के अनेक उहापोहों के बीच किसी भी कलाकर्म की रचनात्मकता टूटने से कैसे बचाती है.

 इस तरह संतोष झांजी की सक्रियता ने भिलाई में महिला रचनाकारों के बीच कला व रचना की ज़मीन पर निरंतर कीर्तिमान गढ़े. वे एक साथ नाटक, फिल्म, कविता, कहानी, उपन्यास लेखन और संगठन कर्म में सक्रिय रही हैं. इन तमाम इलाकों में उनकी चहलकदमी ने उनके व्यापक और विलक्षण व्यक्तित्व का निर्माण किया है. उनके मिज़ाज को अलग अलग भंगिमाएँ दी हैं. उनकी आवाज को कई स्वर दिए हैं. उनके व्यवहार को आस्वाद दिए हैं. वे जब बोलती हैं तब नाटक का कोई चरित्र बोलता है, वे जब गाती हैं तब कविता की कोई ऋचा बोलती है. सामाजिक आचार-व्यवहार में कोई मृदुभाषिणी मुखर हो उठती हैं. परिवार के बीच एक स्वाभाविक पारंपरिक गृह-स्वामिनी की आत्मीय तरलता होती है. परायों के बीच वे अपनेपन से सराबोर हो उठती हैं.

 उनके व्यक्तित्व में कहीं भी अजनबीपन दिखाई नहीं देता. वे अपनेपन की ताजगी से भरी मिलती हैं. प्रतिभा की प्राथमिकी में चलने वाली संभावनाएं उनके महाविद्यालीन ह्रदय में समाहित हो जाती हैं. वे व्यक्तित्व विकास की एक जीती जागती पाठशाला बन जाती हैं. उन्होंने लिखा तो गद्य की दूसरी विधाओं में भी है पर उनके जीवन और व्यक्तिव को तराशा है उनकी कविताओं ने, कविता में उनके गीतों ने. गीत माधुर्य से मन भरा होता है. इसलिए गीतों का यह वसंत उनकी रचनाओं में हर कहीं गूंज रहा होता है – ‘हिरनी, मौसम, इन्द्रधनुष, परछाइयाँ, आई लव यू दादी’ जैसे वासंती शब्द. वे हमेशा और हर पल किसी गीत यामिनी के दीप प्रज्वलन की तरह प्रदीप्त होती हैं..और यह गीतमय व्यक्तित्व उनकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति है. उनका एक कविता संग्रह है ‘हिरनी के पांव थम गए, पर उनकी सक्रियता और भागीदारी को देखकर लगता है कि हिरनी के पांव कभी थमते नहीं हैं.


    

सुरता चंदैनी गोंदा - 3 Surata Chaindaini Gonda

Hanumant Naidu
चंदैनी गोंदा की स्मारिका के मुख-पृष्ठ की हालत जर्जर हो गई है। स्मृतियां भी धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही हैं। ऐसे में नई पीढ़ी तक चंदैनी गोंदा की जानकारी को स्थानांतरित करना आवश्यक हो गया है। आज की श्रृंखला में डॉ हनुमंत नायडू (हिन्दी के प्रोफेसर और प्रथम छत्तीसगढ़ी फ़िल्म "कहि देबे संदेश" के गीतकार) के आलेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं, जिन्हें पढ़कर नई पीढ़ी को कुछ और नई जानकारियां मिलेंगी। श्रृंखला-1 में कुछ पात्रों के नाम का उल्लेख किया गया था। उन पात्रों की भूमिका, इस आलेख को पढ़ने के बाद कुछ और अधिक स्पष्ट होगी। साथ ही यह भी ज्ञात होगा कि चंदैनी गोंदा के पात्र, महज पात्र नहीं बल्कि प्रतीक हैं। तो लीजिए! डॉ. हनुमंत नायडू के आलेख - "छत्तीसगढ़ी लोक मंच-एक नया सांस्कृतिक संदर्भ", "छत्तीसगढ़ी आंसुओं का विद्रोह-चंदैनी गोंदा", इस शीर्षक से स्मारिका में प्रकाशित आलेख के कुछ अंश -

"चंदैनी गोंदा"
चंदैनी गोंदा यथार्थ में एक विशेष प्रकार के नन्हे नन्हे गेंदे के फूलों का नाम है जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत पाए जाते हैं। चंदैनी गोंदा भी धरती की पूजा का फूल है। श्री देशमुख के ही शब्दों में चंदैनी गोंदा पूजा का फूल है। चंदैनी गोंदा छोटे-छोटे कलाकारों का संगम है। चंदैनी गोंदा, लोकगीतों पर एक नया प्रयोग है। दृश्यों, प्रतीकों और संवादों द्वारा गीतों को गद्द देकर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के माध्यम से एक संदेश पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण --- यही चंदैनी गोंदा है। जिन्होंने इसे नाटक, नौटंकी या नाचासमझकर देखा होगा वह अवश्य ही निराश हुए होंगे लेकिन जिन्होंने इसे लोकगीतों पर एक नए प्रयोग के रूप में देखा होगा वह अवश्य ही हर्षित हुए होंगे।

गेहूं के क्षेत्रों में तो हरित क्रांति हो चुकी है परंतु धान के क्षेत्रों में नहीं हो पाई। यही तथ्य चंदैनी गोंदा के प्रस्तुतीकरण की प्रेरणा का प्रमुख स्रोत रहा है। चंदैनी गोंदा का सर्वप्रथम प्रदर्शन बघेरा गांव के एक खलिहान में सन 1971 को हुआ था इसके बाद तो पैरी, भिलाई, राजनाँदगाँव, धमधा, नंदिनी, धमतरी, झोला, टेमरी, जंजगिरी आदि अनेक स्थानों में पचास-पचास हजार दर्शकों के समक्ष यह सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा चुका है। चंदैनी गोंदा में छत्तीसगढ़ी जीवन के जन्म से मरण तक के सभी सांस्कृतिक पक्षों को सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इन सब तथ्यों को गूँथने के लिए कथा का एक झीना-सा तन्तु लिया गया है।

प्रमुख पात्र दुखित और मरही किसान दंपत्ति, भारत के किसानों के प्रतीक हैं। गंगा, गांव की बेटी है जो गांव की पवित्रता को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करती है। शिव, गांव का बेटा है जो गांव की आस्था का प्रतीक है। चांद-बी, शोषित का प्रतीक ही नहीं भावनात्मक एकता की अभिव्यंजना भी है। बटोरन लाल, एक शोषक है जो छत्तीसगढ़ में ही नहीं, देश के किसी भी कोने में पैदा हो सकता है। "किसान ही भारत की आत्मा है" - इस तथ्य की व्यंजना, दुखित के इस संवाद से बड़े ही सशक्त ढंग से होती है - "मैं रोहूं तो मरही रो देही, मरही रो देही तो गांव रो देही गांव रो देही तो भारत रो देही। भारत माता ला मैं रोते नहीं देख सकंव। (मैं रो दूंगा तो मरही (पत्नी) रो देगी। मरही रो देगी तो गांव रो देगा और गांव रो देगा तो भारत रो देगा और भारत-माता को रोते मैं नहीं देख सकता)

शिव, युवक है अतः वह सब पहले भोपाल और दिल्ली में प्रजातांत्रिक ढंग से शोषितों की समस्या को हल करना चाहता है परंतु असफल होने पर तेलंगाना (साम्यवाद का प्रतीक) जाने की धमकी देता है परंतु छत्तीसगढ़ी धरती का प्रेम, त्याग और बलिदान उसके कदम सेना की ओर मोड़ देते हैं। वह देश की रक्षा करते हुए युद्ध में मारा जाता है। दुखित भी इस आघात को सहन नहीं पाता। शिव के रूप में गांव की आस्था मरती नहीं बल्कि देश के लिए बलिदान होकर अमर हो जाती है, परंतु हरित क्रांति और शोषकों पर किए गए तीखे व्यंग हृदय को चीरते चले जाते हैं। चंदैनी गोंदा की एक विशेषता यह है कि इसका प्रारंभ छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों के सम्मान से प्रारंभ होता है। इसके अनेक दृश्यों में "दौरी" ( बैलों से धान के सूखे पौधों को खुंदवा कर धान अलग करना) हरित-क्रांति, गोरा पूजा (पार्वती पूजन) गम्मत तथा फौज आदि प्रमुख हैं। अभिनेताओं में दुखित के रूप में श्री रामचंद्र देशमुख और शिव के रूप में छत्तीसगढ़ी फिल्मों और रंगमंच के कलाकार शिव कुमार एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। शिवकुमार के "हरित क्रांति" लमसेना (घर जवाई) जैसे बहु-प्रशंसित, एक पात्रीय लघु नाटकों को चंदैनी गोंदा में गूँथ दिया गया है। "रविशंकर शुक्ल" तथा "लक्ष्मण मस्तूरिया" आदि के गीत और खुमान साव का संगीत, चंदैनी गोंदा की एक प्रमुख विशेषता है -- उसमें मानो प्राण फूंक देते है।
("छत्तीसगढ़ की एक सांस्कृतिक यात्रा"स्मारिका से साभार)
प्रस्तुतकर्ता - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (9907174334)

सुरता चंदैनी गोंदा - 2 What is Chandaini Gonda

चंदैनी गोंदा क्या है ? इस प्रश्न को अनेक विद्वानों से अनेक आलेखों में उत्तरित किया है। सबके अपने अपने दृष्टिकोण हैं। चंदैनी गोंदा क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं दाऊ जी के शब्दों में पढ़िए। अकाशवाणी द्वारा लिए गए साक्षात्कार को चंदैनी गोंदा स्मारिका में साभार प्रकाशित किया गया था। जिन्होंने यह स्मारिका नहीं पढ़ी है, उनके लिए यह पोस्ट महत्वपूर्ण और उपयोगी हो सकती है -

चंदैनी गोंदा क्या है ? : श्रद्धेय रामचंद्र देशमुख के शब्दों में
प्रश्न 1 - चंदैनी गोंदा क्या है ?
उत्तर : चंदैनी गोंदा पूजा का फूल है।चंदैनी गोंदा छोटे-छोटे कलाकारों का संगम है। चंदैनी गोंदा लोकगीतों पर एक नया प्रयोग है। दृश्य प्रतीकों और संवादों द्वारा गद्दी देकर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के माध्यम से एक संदेश पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण - यही चंदैनी गोंदा है। जिन्होंने इसे नाटक, नौटंकी या नाचा समझकर देखा होगा, वे अवश्य ही निराश हुए होंगे लेकिन जिन्होंने लोकगीतों पर एक नए प्रयोग के रूप में देखा होगा वे अवश्य ही हर्षित हुए होंगे।
प्रश्न 2 - आपको इसके लिए प्रेरणा कहां से मिली?
उत्तर : आपको स्मरण होगा कि भारतीय स्वतंत्रता की 24 वी वर्षगांठ पर 15 अगस्त 1971 को राष्ट्रपति महोदय ने देश के नाम अपने संदेश में कहा था कि गेहूं के इलाके में तो हरित क्रांति हो चुकी लेकिन धान के इलाकों में नहीं हो पाई। यह एक बहुत बड़ा सत्य है और भारत का धान उगाने वाला हर औसत किसान इसकी पुष्टि करेगा। गेहूं और धान के इलाकों के भूगोल पर मैं नहीं जाता, उपलब्ध सुविधाओं पर मुझे कुछ नहीं कहना है लेकिन इतना तो अवश्य है कि स्वतंत्रता के पूर्व और स्वतंत्रता के पश्चात धान के इलाकों का किसान जहां का तहां है। अभी भी उसके शोषण का चक्र जारी है। उसके अनेक अवतार हैं। चंदैनी गोंदा में यदा-कदा प्रसंगवश हरित क्रांति के उद्घोषक के स्वार्थ, कुचक्र और दूरदर्शिता पर व्यंग किया गया है। इसके पीछे एक औसत किसान की व्यथा ही कर्मशील है तो "राष्ट्रपति के भाषण का अंश ही चंदैनी गोंदा की प्रेरणा भूमि है"।
प्रश्न 3 - आपने अपने कलाकार विभिन्न भाषा-भाषी चुने हैं। साथ ही चंदैनी गोंदा प्रारंभ होने पहले आपने विभिन्न प्रांतों के लोकगीत प्रस्तुत किए हैं। ऐसा क्यों ?
उत्तर : भावनात्मक एकता भी हमारे उद्देश्यों में से एक है इसलिए चंदैनी गोंदा विभिन्न भाषा-भाषियों का संगम है। छत्तीसगढ़ी लोक गीतों को हम भारतीय लोक-जीवन के एक खंड विशेष के लोक गीत के रूप में नहीं देखते, हम उसे भारतीय लोकजीवन में व्याप्त लोकगीतों को विशाल शृंखला में एक प्रतिनिधि लोकगीत के रूप में मान्यता देते हैं। लोकगीत भारत के जिस अंचल के हैं, उनमें जो लोक तत्व हैं, उन्हें किसी भी भारतीय लोकगीत में देखा जा सकता है।




प्रश्न 4 - चंदैनी गोंदा का प्रदर्शन आपने गांव में ही करने का निश्चय क्यों किया ?
उत्तर : भारत के किसी भी अंचल का कोई सा भी गांव अपनी पूरी पहचान के साथ भारत का हर गांव हो सकता है। फिर यह एक महत्वपूर्ण बात है कि आधुनिक जीवन-बोध और आमतौर से शहरी जीवन-बोध जब हमें भारतीय गंध नहीं दे पा रहा है, हमें तलाश है एक निजी भारतीय जीवन स्पंदन की जो अपनी शैली एवं संगीत में हमें एक देसी छुअन दे सके। तब हमें ग्राम-धरा की जीवनधारा की ओर लौटना पड़े तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। भारतीय संस्कृति के अजस्र स्रोत ये गांव आज की संभावना है। जरूरत है रचनाशील जीवन दृष्टि की। चंदैनी गोंदा के लोकगीत लोकपाय और लोकजीवन की अभिव्यक्ति इसी के आसपास की चीजें हैं। इस कार्यक्रम को मैंने गांव के खलिहान स्थल पर ही मंचित करने का निर्णय क्यों लिया ? उत्तर स्पष्ट है कि "झील के सौंदर्य को बेलबूटे युक्त किसी तश्तरी के जल में कैसे देखा जा सकता" ?
प्रश्न 5 - आपने लोकगीतों पर ही इतना ज्यादा परिश्रम किस उद्देश्य से किया ?
उत्तर : भारतीय लोकजीवन को लोकगीतों के माध्यम से अधिक सार्थकता के साथ संदेश पहुंचाया जा सकते है। लोक बोलियां लोक भाषा जिन अनुभूतियों एवं संवेदनाओं को जितनी अधिक सटीक व्यंजना दे सकती हैं, संभवतः उतनी कोई अन्य भाषा नहीं।
दूसरी बात यह है कि फिल्मों के माध्यम से आए हुए पश्चिमी-बोध या फिल्मों में ओढ़े गए पूर्वी-बोध की तुलना में चंदैनी गोंदा दर्शक को विशुद्ध ग्राम-बोध प्रदान कराता है। ग्राम-बोध इसलिए भी क्योंकि इसमें आज के एक भारतीय गांव के खेतिहर जीवन की कथा-व्यथा है।
प्रश्न 6 - चंदैनी गोंदा, जबकि लोकगीतों का कार्यक्रम है। संवाद दृश्यों और प्रतीकों को किसलिए स्थान दिया गया है ?
उत्तर : यही तो हमारा नया प्रयोग है। संवाद, दृश्य और प्रतीकों के माध्यम से लोकगीतों को ज्यादा प्रभावकारी बनाया गया है। इसके द्वारा निहितार्थ को भी संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है।
प्रश्न 7 - चंदैनी गोंदा का और कोई उद्देश्य हो तो स्पष्ट करिए।
उत्तर : बहुत से उद्देश्यों में से एक यह भी है कि श्रेष्ठ कवियों की रचनाएं उनकी कॉपियों और कवि सम्मेलन तक सीमित रह जाती हैं, उन्हें सुंदर स्वर देकर आम जनता को सौंपने का प्रयास किया गया है। अकाल का दृश्य और तत्त्संबंधित लोकगीत किसी कारणवश हम प्रस्तुत नहीं कर सके। उनके माध्यम से हमने सिंचाई व्यवस्था को ज्यादा सुदृढ़ और व्यापक बनाने की मांग की है। सब लोगों के स्नेह और आशीर्वाद का संबल लेकर, अनेक विघ्न बाधाओं को पार कर मैं "चंदैनी गोंदा" का विनम्र उपहार माटी को समर्पित करने का साहस जुटा सका हूं और साथ ही मैंने माटी के ऋण से उऋण होने का प्रयास किया है।
(आकाशवाणी से साभार)

प्रस्तुति - अरूण कुमार निगम

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...