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जुलाई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

अन्तरिक्ष में मानव के पचास साल

विक्रम साराभाई, चित्र गूगल खोज से  बचपन में आकाश के तारे शायद सभी को बेहद रहस्यमय और आकर्षक लगते हैं तारों का शायद यही आकर्षण और रहस्य मानव को अन्तरिक्ष के रोमांचक सफर के लिए प्रेरित किया होगा।  अन्तरिक्ष की ओर मानव के बढ़ने का पहला ऐतिहासिक विवरण चीन से प्राप्त होता है जहां सेना के काम आने वाले रॉकेटों को एक कुर्सी पर बांधकर एक व्यक्ति उड़ा पर वापस नहीं आया। यह घटना मिंग वंश के काल की है। यह घटना मजाक, जैसी लगती है पर वर्तमान अन्तरिक्ष अभियानों से इसकी बड़ी समानता यह है कि वर्तमान में भी उन्हीं रॉकेटों बुस्टरों का उपयोग किया जाता है। जिनका विकास मूलतः सेना की मिसाइलों के लिए किया गया है। हम भारतीय भी मिसाइलों का उपयोग टीपू सुल्तान के समय से कर रहे हैं पर वर्तमान में अन्तरिक्षयानों में जिन रॉकेटों बुस्टरों का उपयोग किया जा रहा है उनका मूल डिजाईन जर्मन वैज्ञानिक गेलार्ड के वी.टू. मिसाईल से लिया गया है। जिससे द्वितीय विश्वयुद्ध में बिना इंग्लिश चैनल को पार किये जर्मनों ने लंदन को मटियामेट कर दिया था। हिटलर की पराजय के पश्चात् उच्च स्तर के अधिकांश जर्मन वैज्ञानिक अमेरिका के हाथ लगे

छ: दिन और एक सीएमएस वेब साईट

विगत दिनों ब्‍लॉगर के द्वारा कुछ सुविधाओं को बंद करने एवं फीड संबंधी समस्‍याओं को देखते हुए, हमने ब्‍लॉगर में होस्‍ट निजी डोमेन की छत्‍तीसगढ़ी भाषा की पत्रिका गुरतुर गोठ को निजी होस्टिंग में ले जाने का फैसला लिया। सीएमएस आधारित अनेकों पोर्टलों को देखते और वेब/पोर्टल होस्टिंग दरों की तुलना करने के बाद हमनें फैसला किया कि ज्ञान दर्पण वाले रतन सिंह शेखावत जी द्वारा उपलब्‍ध वेब होस्टिंग सेवाओं का लाभ लिया जाए। वे4होस्‍ट की होस्टिंग सुपविधा के चयन के पीछे हमारा मुख्‍य उद्देश्‍य यह था कि रतन सिंह जी से मोबाईल और मेल से सतत संपर्क हो सकेगा।  ललित शर्मा जी से भी उनके वेब साईटों के संबंध में चर्चा हुई तो पता चला कि रतन सिंह जी की सुविधायें वे भी ले रहे हैं। वे अपने ललित कला एवं न्‍यूज पोर्टल के तकनीक का सारा दायित्‍व रतन सिंह जी को देकर आनंदपूर्वक पोस्‍टों व टिप्‍पणियों में व्‍यस्‍त हैं। हम भी वे4होस्‍ट के एक्‍सरसाईज में जुट गए। शुरूवाती दौर में डोमेन फारवर्डिंग, एलियाज व सीनेम आदि के लिए रतनसिंह जी से सहायता लेना पड़ा क्‍योंकि हमारा डोमेन रेडिफ से पंजीकृत था और फारवर्डिंग के लि

विश्‍व रंजन ... विश्‍वरंजन

(चित्र रविवार डाट काम से साभार) कल मेल से  प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के एक आयोजन की जानकारी, प्रेस  विज्ञप्ति के माध्‍यम से प्राप्‍त हुई। इस पर कुछ विचार आ ही रहे थे कि मित्रों से पता चला कि प्रदेश कांग्रेस के अध्‍यक्ष के काफिले पर नक्‍सल हमला हुआ है और एक गाड़ी विष्‍फोट से उड़ा दी गई है। दो तीन फोन खटखटाए, कांग्रेस से जुड़े मित्र और रिश्‍तेदारों को सही सलामत पाकर पुन: काम में लग गए। किन्‍तु  विचार और कार्य  के साथ तालमेल नहीं बैठ रहा था, .... अपने रिश्‍तेदार या मित्र तो नहीं मरे यही सोंचकर हम प्रदेश की इस बड़ी समस्‍या से सदैव मुह मोड़ लेते हैं। हमारे या आपके मुह मोड़ने या गाल बजाने से यह समस्‍या हल नहीं हो सकती। बारूद से दहलते बस्‍तर से ही एक तरफ समाचार आते हैं कि फलां अधिकारी के यहां एन्‍टीकरप्‍शन ब्‍यूरो का छापा पड़ा - अकूत सम्‍पत्ति बरामद। तो दूसरी तरफ समाचार आते हैं कि आदिवासी अपनी लंगोट के लिए भी तरस रहे हैं। यह आर्थिक असमानता सिद्ध करती है कि आदिवासियों के हक के पैसे साहबों के घर में जमा हो रहे हैं और आदिवासी छीने जा चुके लंगोट के कारण अपना गुप्‍तांग हाथों में छुपाकर

गुरतुर गोठ डाट काम में छत्‍तीसगढ़ी गज़लों की श्रृंखला

कविता, कहानी, लघुकथा फिर व्‍यंग्‍य को एक स्‍वतंत्र विधा के रूप में स्‍थापित करते लोक भाषा छत्‍तीसगढ़ी के कलमकार अब गज़ल को भी एक स्‍वतंत्र विधा के रूप में विकसित कर चुके हैं. छत्‍तीसगढ़ी गज़ल को विश्‍वविद्यालय के हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा चुका है। दो तीन संग्रहों के प्रकाशन के बावजूद अभी यह शैशव काल में ही है, छत्‍तीसगढ़ी भाषा के प्रेमी छत्‍तीसगढ़ी गजलों को अवश्‍य पढ़े और इसके विकास के साक्षी बनें .  पिछले वर्षों में लोक भाषा भोजपुरी के गज़कार मनोज 'भावुक' के गज़ल संग्रह 'तस्‍वीर जिन्‍दगी' को "भारतीय भाषा परिषद सम्‍मान" दिया जाना इस बात को सिद्ध करता है कि लोक भाषाओं में भी बेहतर गज़ल लिखे जा रहे हैं। जरूरत है लोक भाषाओं के साहित्‍य को हिन्‍दी जगत के सामने लाने की। अमरेन्‍द्र भाई अवधी भाषा के गज़लों को अपने पोर्टल अवधी कै अरघान में प्रस्‍तुत करते रहे हैं। हम गुरतुर गोठ डाट काम में नेट दस्‍तावेजीकरण एवं भविष्‍य की उपयोगिता को देखते हुए छत्‍तीसगढ़ी गज़लों की एक श्रृंखला क्रमश: प्रकाशित कर रहे हैं, अवसर मिलेगा तो विजिट करिएगा.

संग न होई दुई काज भुवालू, हसब ठठाव फुलावहूं गालू : एक निवेदन

गुरतुर गोठ छत्‍तीसगढ़ी में हमनें जून प्रथम सप्‍ताह में छत्‍तीसगढ़ी गज़लों पर केन्द्रित विशेषांक प्रस्‍तुत करने की घोषणा लगाई थी। और उसी दिन से लगातार छत्‍तीसगढ़ के समाचार-पत्रों के छत्‍तीसगढ़ी परिशिष्‍ठों व पत्रिकाओं को खोज-खोज कर हम छत्‍तीसगढ़ी गज़ल एकत्रित कर रहे थे। हमारा प्रयास था कि छत्‍तीसगढ़ी गज़ल लिखने वाले सभी मनीषियों के कम से कम एक गज़ल इसमें संग्रहित किया जाए। दुर्ग के दोनों सरकारी पुस्‍तकालयों व उपलब्‍ध साधनों (पत्र-पत्रिकाओं) से प्रमुख साहित्‍यकारों के गज़ल प्राप्‍त हो गए हैं किन्‍तु हम चाहते थे कि गुरतुर गोठ में सामाग्री प्रकाशन के पूर्व कवि मुकुन्‍द कौशल और रामेश्‍वर वैष्‍णव जी के प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह का अध्‍ययन अवश्‍य किया जाए और उनमें से आवश्‍यक जानकारी को गुरतुर गोठ में समाहित किया जाए।  कवि मुकुन्‍द कौशल जी दुर्ग में ही रहते हैं इस कारण विश्‍वास था कि दो-चार दिनों में उनसे मुलाकात हो जावेगी और हम गुरतुर गोठ के इस अंक की तैयारी कर लेंगें। किन्‍तु जब मुकुन्‍द कौशल जी के पास समय था तो मैं कार्य में व्‍यस्‍त था और जब मेरे पास समय था तो मुकुन्‍द जी कार्य

सघन हूँ मैं : गॉंव से कस्‍बे का सफर

बहुत कठिन है अपने संबंध में कुछ लिखना। बहुत बार डायरी लिखने की सोंचता रहा किन्‍तु नहीं लिख पाया। अपने संबंध में कुछ लिखना हिम्‍मत का काम है, क्‍योंकि जब हम अपने संबंध में लिख रहे होते हैं तो सुविधा का संतुलन हमारे अच्‍छे व्‍यक्तित्‍व को उभारने की ओर ही होता है।  मैं-मैं की आवृत्ति में  हम अपने उजले पक्षों को सामने रखते हुए अंधेरे पक्षों पर परदा डालते चलते हैं। कथा-कहानियों व आत्‍मकथाओं की आलोचनात्‍मक व्‍याख्‍या करने वाले स्‍वयं कहते हैं कि जब कथाकार कहानी लिख रहा होता है तो वह अपनी आत्‍मकथा लिख रहा होता है और जब आत्‍मकथा लिख रहा होता है तो कहानी लिखता है। तो यूं समझें कि कहानी और आत्‍मकथा के बीच से तीन-चार मनकें तिथियों के अंतराल में इस ब्‍लॉग में आपके सामने रखने का प्रयास करूंगा। मेरा जन्‍म सन् 1968 के जनवरी माह में एक गांव में हुआ। मॉं व पिताजी शिक्षित थे और रांका राज के कुलीन जमीदार (राजस्‍व अभिलेख 'वाजिबुल अर्ज 1930' में मालगुजारी-जमीदारी के स्‍थान पर 'लम्‍बरदार' का उल्‍लेख है) परिवार के बड़े बेटे-बहू थे। मै अपने भाई बहनों में सबसे छोटा और चौंथे नम्‍बर का था। मुझसे

हा-हा, ही-ही से परे ब्‍लॉग जगत में छत्‍तीसगढ़ का नवा बिहान : जिम्‍मेदार ब्‍लॉ-ब्‍लॉं

कल  जीचाट ठेले में चेटियाते हुए एक अग्रज नें चिट्ठाचर्चा का लिंक दिया ' यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ ' । चिट्ठाचर्चा में लगे लिंक के सहारे रचना जी के पोस्‍टों पर नजर पड़ी जिसमें उनके नारी ब्‍लाग को बंद करने का फैसला और बिना लाग लपेट में मठाधीशों की सूची और रचना जी के पसंद के चिट्ठों की सूची देखने को मिली, दुख हुआ कि इतना समय-श्रम, तेल-मालिस-पैसा लुटाने के बावजूद हमारा नाम मठाधीश के रूप में नहीं है । खैर ... फुरसतिया अनूप जी नें बहुत दिनों बाद चिट्ठा चर्चा लिखा और उसमें जो लिंक मिले उससे ब्‍लॉग जगत की ताजा हलचलों की जानकारी हमें मिली। अनूप जी नें वहां लिखा कि ' हमारे मौज-मजे वाले अंदाज की रचना जी अक्सर खिंचाईं करती रहीं। उनका कहना है कि ब्लागजगत के शुरुआती गैरजिम्मेदाराना रुख के लिये बहुत कुछ जिम्मेदारी हमारी है। अगर हम हा-हा, ही-ही नहीं करते रहते तो हिन्दी ब्लागिंग की शुरआत कुछ बेहतर होती।'   इसे पढ़ते हुए मुस्‍कान लबो पर छा गई, सचमुच में मौजों की दास्‍तान है  यह,  फुरसतिया के मौज की लहर में बड़े-बड़े की हर-हर गंगे हो गई है। हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में मौज लेने वाले प