स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी लक्ष्मण प्रसाद दुबे

शिक्षकीय कर्तव्य को अपनी साधना मानने वाले लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी का संपूर्ण जीवन एक शिक्षक के रूप में बीता, जिसके कारण उन्हें गुरूजी के रूप में जाना जाता रहा है। इन्होंनें अपने जीवन में कईयों को पढा कर उनके मन में देशभक्ति का जजबा को जागृत किया वहीं कई लोगों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित भी किया। नारी स्वतंत्रता एवं नारी शिक्षा के पक्षधर इस कर्मयोगी का जन्म छत्‍तीसगढ़ स्थित दुर्ग जिले के दाढी गांव में 9 जून 1909 को हुआ। वे गांव में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बेमेतरा से उच्‍चतर माध्यमिक व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षकीय कार्य में जुट गये । इनकी पहली नियमित पदस्थापना सन् 1929 में भिलाई के माध्यमिक स्कूल में हुई उस समय दुर्ग में स्वतंत्रता आंदोलन का ओज फैला हुआ था।
भिलाई में शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए इनका संपर्क जिले के वरिष्ठ सत्याग्रही नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी से हुआ। उस समय किशोर व युवजन के अग्रवाल जी आदर्श थे। उनके मार्गदर्शन व आदेश से लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी भिलाई में अपने साथियों एवं छात्रों के साथ मिलकर मद्य निषेध आंदोलन व विदेशी वस्त्र आंदोलन को हवा देने लगे। उसी समय उन्होंनें भिलाई में विदेशी वस्तुओं के साथ जार्ज पंचम का चित्र भी जलाया। बढते आंदोलन की भनक से अक्टूबर 1929 में भिलाई का मिडिल स्कूल बंद कर दिया गया और इनका स्थानांतरण बालोद मिडिल स्कूंल में कर दिया गया । इन्हें अपने नेता के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हो गया क्‍योंकि अग्रवाल जी बालोद के मूल निवासी थे। बालोद के ग्राम पोडी में हुए जंगल सत्यांग्रह की पूरी रूपरेखा एवं दस्तावेजी कार्य नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी नें इन्हें सौंप दिया था। इन दस्ता‍वेजों को दुर्ग पुलिस एवं गुप्तचरों से बचाते हुए जंगल सत्याग्रही व अन्य क्रियाकलापों का विवरण वे एक रजिस्टर में दर्ज करते रहे। अग्रवाल जी के जेल जाने के बाद भी इनके द्वारा जंगल सत्याग्रह को नेतृत्व प्रदान करते हुए कायम रखा गया, वे बतलाते थे कि उस समय सत्याग्रह रैली व सभाओं में 8-10 महिलायें भी आती थी जो चरखा लेकर आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती थीं।
उन्हीं दिनों सन् 1930 में बालोद के सर्किल आफीसर नायडू से से इनकी बहस हो गई तब अग्रवाल परिवार की मध्यंस्थता से इनका स्थानांतरण धमधा कर दिया गया। अब इनकी दौड बालोद-दुर्ग, धमधा दाढी तक होती रही। वे विश्व्नाथ तामस्कर, रघुनंदन प्रसाद सिंगरौल, लक्ष्मण प्रसाद बैद के साथ सत्याग्रह आंदोलन के क्रियाकलापों से जुडे रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल के इस क्षेत्र में दौरे का प्रभार लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास ही होता था। सन् 1932 में अग्रवाल जी के दाढी के दौरे में वे रास्ते भर सक्रिय रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल युवा सत्याग्रहियों को हमेशा समझाया करते थे कि जोश के साथ होश मत खोना। क्योंकि जोश के कारण सभी बडे नेता सरकार के हिट लिस्ट में आ गये थे जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी होती रहती थी। स्वतंत्रता आंदोलन को जीवंत रखने के लिए द्वितीय पंक्ति के सत्याग्रहियों को अपना दायित्व निभाना था अत: वे अपने गांधीवादी नरम रवैये से शिक्षकीय कार्य करते रहे ।
सन् 1942 में इनका स्थानांतरण डौंडी लोहारा कर दिया गया। जंगल सत्याग्रह की रणनीति में माहिर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के लिए यह स्थान बालोद जैसा ही रहा क्योंकि यह स्थान जंगलों के बीच है अत: वे वहां अपने मूल कार्य के साथ पैदल गांव-गांव का दौरा कर सत्याग्रह का पाठ पढाते रहे। इस बीच उनको मार्गदर्शन नरसिंह प्रसाद अग्रवाल से मिलता रहा। 1942 में ही जमुना प्रसाद अग्रवाल अपने बडे भाई नरसिंह प्रसाद का संदेश लेकर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास आये और उन्हें सचेत किया कि आपकी भी गिरफ्तारी हो सकती है। यहां से वापस लौटते ही जमुना प्रसाद अग्रवाल को बालोद में गिरफ्तार कर लिया गया और उसी रात लक्ष्मण प्रसाद दुबे को भी गिरफ्तार करने का आदेश डौंडी में जारी कर दिया गया जिसे लाल खान सिपाही नें तामील करने के पहले ही लीक कर दिया और लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी स्कूल का त्यागपत्र मित्रों के हांथ सौंपकर फरार हो गये एवं बालोद आ गये जहां से वे भूमिगत हो गए। रायपुर के प्रमुख सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व.श्री मोतीलाल जी त्रिपाठी से पारिवारिक संबंधों का लाभ इन्हें मिलता रहा और लक्ष्मंण प्रसाद दुबे जी घुर जंगल क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन की लौ जलाते रहे।
1942 से 1947 तक ये खानाबदोश जीवन व्यतीत करते रहे। दुर्ग जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल घूम घूम कर सत्या‍ग्रह-शिक्षा का अलख जगाने के कारण ये गिरफ्तारी से बचे रहे। ज्योतिष के विद्वान लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी नें यूनानी चिकित्सा व वैद विशारद की परिक्षा भी पास की एवं शिक्षा के साथ चिकित्सा कार्य भी किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे जनपद पंचायत स्कूल में प्रधान पाठक रहे। अवकाश प्राप्त के बाद सक्रिय राजनीति में जनपद पंचायत बेमेतरा के सदस्य भी रहे। इन्होंने दुर्ग जिला कांग्रेस की सदस्यता 1930 में ग्रहण की थी, 1942 से 1947 तक जिला कांग्रेस के कार्यकारिणी सदस्य के रूप में इन्होंनें कार्य किया अपने मृत्यु 23 जुलाई 1993 तक ये जिला कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे ।
संजीव तिवारी 

 साथियों मेरा सौभाग्‍य है कि  स्व.श्री लक्ष्‍मण प्रसाद दुबे जी मेरे श्‍वसुर हैं ! 

7 टिप्‍पणियां:

  1. अनुज वधु से कहियेगा कि स्वसुर के प्रति अगाध श्रद्धा के विलंबित प्रदर्शन में आपका कोई दोष नहीं है विभूतियों के प्रति विद्युत विभाग का बैरभाव जग ज़ाहिर है !

    ज़रा चौथे पैरा की आखिरी लाइनों पर कृपा करें आपके स्वसुर साहब स्वतंत्रता आंदोलनों की 'लौ' जलाते रहे हैं 'लव' जलवाईयेगा तो मुश्किल होगी !

    अनुज वधु के देश आजाद करवैय्या पिता को हमारा कोटि कोटि नमन ! पुण्य स्मरण !

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  2. लक्ष्मण बबा, हाँ हम उन्हें यही कहकर पुकारते थे, का स्नेह मुझे हासिल हुआ है, मुझे याद है जब मैं ८ वी में पढता था और ग्राम दाढ़ी प्रवास पर था, तब मेरे बड़े भाई डॉ अखिलेश त्रिपाठी वहा पोस्टेड थे.

    नमन उन्हें

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  3. टिप्‍पणी के लिए धन्‍यवाद अली भईया :)

    'लव' को सुधार दिया हूं.

    संजीत भाई, मेरे श्‍वसुर जी के केन्‍द्रीय सरकार द्वारा प्रदान किये जाने वाले स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन आरंभ करवाने में आपके पिता स्‍व.श्री मोतीलाल त्रिपाठी का अहम सहयोग रहा।

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  4. बड़ा ही अच्छा लगा पढ़कर दुबे जी के बारे में।

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  5. सर्वप्रथम उन्हे हमारी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि। भाई संजीव अतेक महत्वपूर्ण व्यक्ति के चर्चा तंय कभू नई करे रेहे। धन्य हे महराजिन घलो। अइसन बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी इहां जनम पाइस। केहेंव न तोर ये काम हा अतेक पसंद आये हे के कांही किताब उताब खरीदे के जरूरत नई ये।……………आभारी हन तोर……

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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