विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
खबर है कि छत्तीसगढ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र के दुर्गूकोंदल इलाके के गांव कोडेकुर्से में एक किसान लक्ष्मण चुरेन्द्र ने अपने खेतों के फसलों को बेंचकर बैंक में पैसा जमा करवाया था । अपनी पत्नी के इलाज के लिये उसने विगत दिनों बैंक से बीस हजार रूपया निकाला और गांव जाकर अपनी पत्नी को दे दिया । उसकी पत्नी उसी समय घर के बैल को बांधने लग गई पैसे को उसने अपने आंचल में बांध लिया, बैल, रूपये उसकी आंचल से मुह मार कर खाने लगा, बैल के मुंह से बडी मुस्किल से लक्ष्मण की बीबी पांच हजार छीन पाई बाकी के पंद्रह हजार बैल हजम कर गया । बस्तर में राजकीय अनुदान व सहायता के संबंध में पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी जी का आंकलन था कि दिल्ली से सहायता के रूप में चला सौ रूपया, बस्तर के आदिवासियों के हाथों तक पहुंचते पहुंचते अट्ठारह रूपये रह जाता है । यानी बाकी के 82 रूपये आदिवासियों के हित के लिए स्वांग रचने वाले नेता, अफसर व एनजीओ खा जाते हैं, । अब इस बैल को कौन समझाये कि जो नोट इसने खाये वो सरकारी सहायता के नहीं थे आदिवासी के मेहनत से कमाये नोट थे । पुछल्ला - पिछले दिनों पूर्व गृह राज्य मंत्