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मार्च, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

बैल ने खाये 15 हजार रूपए

खबर है कि छत्‍तीसगढ के नक्‍सल प्रभावित क्षेत्र के दुर्गूकोंदल इलाके के गांव कोडेकुर्से में एक किसान लक्ष्‍मण चुरेन्‍द्र ने अपने खेतों के फसलों को बेंचकर बैंक में पैसा जमा करवाया था । अपनी पत्‍नी के इलाज के लिये उसने विगत दिनों बैंक से बीस हजार रूपया निकाला और गांव जाकर अपनी पत्‍नी को दे दिया । उसकी पत्‍नी उसी समय घर के बैल को बांधने लग गई पैसे को उसने अपने आंचल में बांध लिया, बैल, रूपये उसकी आंचल से मुह मार कर खाने लगा, बैल के मुंह से बडी मुस्किल से लक्ष्‍मण की बीबी पांच हजार छीन पाई बाकी के पंद्रह हजार बैल हजम कर गया । बस्‍तर में राजकीय अनुदान व सहायता के संबंध में पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी जी का आंकलन था कि दिल्‍ली से सहायता के रूप में चला सौ रूपया, बस्‍तर के आदिवासियों के हाथों तक पहुंचते पहुंचते अट्ठारह रूपये रह जाता है । यानी बाकी के 82 रूपये आदिवासियों के हित के लिए  स्‍वांग रचने वाले नेता, अफसर व एनजीओ खा जाते हैं, । अब इस बैल को कौन समझाये कि जो नोट इसने खाये वो सरकारी सहायता के नहीं थे आदिवासी के मेहनत से कमाये नोट थे । पुछल्‍ला - पिछले दिनों पूर्व गृह राज्‍य मंत्

भारतीय नव वर्ष की शुभकामनांए

नव संवत्‍सर अभिनंदन

मेरे गांव की होली और फाग

छत्‍तीसगढ सहित भारत के सभी गांवों में होली का पहले जैसा माहौल अब नहीं रहा, विकास की बयार गांवों तक पहुच गई है किन्‍तु उसने समाज में स्‍वाभाविक ग्रामीण भाईचारा को भी उडा कर गांवों से दूर फेंक दिया । इसके बावजूद रंगों के इस त्‍यौहार का अपना अलग मजा है और गांव में तो इस पर्व का उल्‍लास देखने लायक रहता है । गांव मेरे रग-रग में बसा हैं इसलिए मेरे 13 वर्षीय पुत्र के ना-नुकुर के बावजूद हम छत्‍तीसगढ के शिवनाथ नदी के तीर बसे अपने छोटे से गांव में चले गये होली मनाने । मुझे अपने बीते दिनों की होली याद आती है जब हम सभी मिलजुल कर गांव के चौपाल में होली के दिन संध्‍या नगाडे व मांदर के थापों के साथ फाग गाते हुए होली मनाते थे । समूचा गांव उडते रंग-अबीर के साथ नाचता था । तब न ही हमारे गांव में बिजली के तारों नें प्रवेश किया था और न ही ध्‍वनिविस्‍तारक यंत्रों का प्रयोग होता था । गांव में प्रधान मंत्री पक्‍की सडक के स्‍थान पर ‘गाडा रावन’ व एकपंइया (पगडंडी) रास्‍ता ही गांव पहुचने का एकमात्र विकल्‍प होता था फिर भी इलाहाबाद, आसाम, जम्‍मू, कानपूर, लखनउ और पता नहीं कहां कहां से कमाने खाने गए गांव के मजदूर

लोक कला के ध्वज वाहक : पद्म श्री गोविन्‍दराम निर्मलकर (Govindram Nirmalkar, Charandas Chor)

देश के अन्‍य प्रदेशों के लोक में प्रचलित लोकनाट्यों की परम्‍परा में छत्‍तीसगढी लोक नाट्य नाचा का विशिष्‍ठ स्‍थान है । नाचा में स्‍वाभाविक मनोरंजन तो होता ही है साथ ही इसमें लोक शिक्षण का मूल भाव समाहित रहता है जिसके कारण यह जन में रच बस जाता है । वाचिक परम्‍परा में पीढी दर पीढी सफर तय करते हुए इस छत्‍तीसगढी लोकनाट्य नाचा में हास्‍य और व्‍यंग के साथ ही संगीत की मधुर लहरियां गूंजती रही है और इस पर नित नये प्रयोग भी जुडते गये हैं । इसका आयोजन मुख्‍यत: रात में होता है, जनता ‘बियारी’ करके इसके रस में जो डूबती है तो संपूर्ण रात के बाद सुबह सूरज उगते तक अनवरत एक के बाद एक गम्‍मत की कडी में मनोरंजन का सागर हिलोरें लेते रहता है । गांव व आस-पास के लोग अपार भीड व तन्‍मयता से इसका आनंद लेते हैं और इसके पात्रों के मोहक संवादों में खो जाते हैं । नाचा की इसी लोकप्रियता एवं पात्रों में अपनी अभिनय क्षमता व जीवंतता सिद्ध करते हुए कई नाचा कलाकार यहां के निवासियों के दिलों में अमिट छाप बना गए है । मडई मेला में आवश्‍यक रूप से होने वाले नाचा को इन्‍हीं जनप्रिय कलाकरों नें गांव के गुडी से महानगर व विश्‍व के