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नवंबर, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

राजीव काला जल और शानी

उस दिन दौंडते भागते दुर्ग रेलवे स्टेशन पहुचा । गाडी स्टैंड करते ही रेलगाडी की लम्बी सीटी सुनाई देने लगी थी । तुरत फुरत प्लैटफार्म टिकट लेकर अंदर दाखिल हुआ । छत्तीसगढ एक्सप्रेस मेरे स्टेशन प्रवेश करते ही प्लेटफार्म नं. 1 पर आकर रूकी । चढने उतरने वालों के हूजूम को पार करता हुआ मैं एस 6 के सामने जाकर खडा हो गया । राजीव रंजन जी और अभिषेक सागर जी मेरे सामने खडे थे । साहित्य शिल्पी और छत्तीसगढ के साहित्यकारों पर संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण चर्चा के बीच ही राजीव जी नें सागर जी को सामने की पुस्तक दुकान से शानी का ‘काला जल’ पता करने को कहा, पुस्तक वहां नहीं मिली । तब तक गाडी की सीटी पुन: बज गई और राजीव जी एवं सागर जी से हमने बिदा लिया देर तक हाथ हिलाते हुए बब्बन मिंया स्मृति में आ गए । राजीव जी से क्षणिक मुलाकात उनका व्यक्तित्व‍ मेरे लिए उनके बस्तर प्रेम के कारण बहुत अहमियत रखता है तिस पर शानी की याद । शानी नें तो बस्तर को संपूर्ण हिन्दी जगत में अमर कर दिया है, सच माने तो हमने भी बस्तर को शानी से ही जाना । उनकी कालजयी कृति ‘काला जल’ नें तो अपने परिवेश से प्रेम को और बढा दिया । ‘काला जल’

'पहल' के बंद होने पर महावीर अग्रवाल जी की त्‍वरित टिप्‍पणी

"पहल के प्रवेशांक से लेकर अभी-अभी प्रकाशित 90 अंक तक का एक-एक शव्‍द मैंने पढा है । पहल मेरे लिए एक आदर्श पत्रिका प्रारंभ से लेकर आज तक रही है । पहल के संपादक ज्ञानरंजन से प्रेरणा लेकर ही मैंने 'सापेक्ष' पत्रिका प्रारंभ की थी जिसके अभी तक 50 अंक छप चुके हैं ।  पहल का बंद होना मेरे लिए सिर्फ एक दुखद घटना नहीं है वरण मैं यह मानता हूं कि पहल के बंद होने से सुधी पाठकों की दुनियां में एक शून्‍यता और निराशा आयेगी । मेरी ज्ञानरंजन जी से दूरभाष पर चर्चा हुई उन्‍होंनें कहा - अब लिखेंगें पढेंगें और मित्रों से भेंट मुलाकात करेंगें । मुझे लगता है नई पीढी में कोई न कोई आयेगा और ''पहल'' के काम को आगे जरूर बढायेगा । " डॉ. महावीर अग्रवाल  संपादक - सापेक्ष सापेक्ष 47 - हबीब तनवीर का रंग संसार, सापेक्ष 48 - उत्‍तर आधुनिकता और द्वंदवाद, सापेक्ष 49 विज्ञान का दर्शन (फ्रेडरिक एंगेल्‍स का योगदान), सापेक्ष 50 - हिन्‍दी आलोचना पर इस ब्‍लाग पर कल पढें - 'राजीव रंजन, शानी और काला जल'     

सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ आदि काल से अपनी परम्परा, समर्पण की भावना, सरलता और उत्सवप्रियता के कारण पूरे देश में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन और प्रकृति का निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय उत्सव जैसा महौल बनाये रखते हैं। किसी प्रकार का दुख इनके उत्सवप्रियता में कमी नहीं लाता। झूलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मूसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। ''धान का कटोरा'' कहे जाने वाले इस अंचल के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होते हैं। ''श्याम कार्तिक महोत्सव ' उनमें से एक है जो छत्‍तीसगढ में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है। नवगठित जांजगीर-चांपा जिले का एक छोटा सा गांव सरखों में मुझे यह अनूठा आयोजन देखने को मिला। जांजगीर जिला मुख्यालय के नैला रेल्वे स्टेशन से मात्र ३-४ कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गांव सरखों स्थित है। पक्की सड़क और निजी बस इस गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है। सड़क के दो

नया मेहमान

कल रात  को घर आकर फ्रेश होकर बैठा तो मेरा बालक नारियल हाथ में लेकर खडा हो गया ।  अगरबत्‍ती लगाकर इसे तोडे, हमने बिना त्‍यौहार कारण पूछा तो उसनें बतलाया । हमारे कालोनी के मकानों में गार्डनिग के लिए भरपूर जगह दिये गये हैं जिसमें कईयों नें बागवानी के अपने शौक को पूरा किया है जिसमें से किसी के गार्डन में एक बिल्‍ली नें चार बच्‍चे दिये थे और बच्‍चों के आंख खुलने के बाद से वह पूरे कालोनी में कभी यहां तो कभी वहां अपने बच्‍चों को छोड कर घूमती रही है । अब खबर यह थी कि बिल्‍ली अपने एक एक बच्‍चों को अलग अलग घरों के गार्डन में छोड आयी है और बच्‍चे दिन भर अपनी मॉं से मिलने की आश में चिल्‍ला रहे हैं ऐसा ही एक बच्‍चा पिछले दो दिन से हमारे घर के बाउंड्री में रखे कबाडों के पीछे छुपा चिल्‍ला रहा था, मेरा बालक इससे अतिआकर्षित व उत्‍साहित हो रहा था वहीं मेरी श्रीमतीजी को इस आवाज से काफी गुस्‍सा आ रहा था पर उसे बंद कराने का जरिया मात्र उसे उसकी मॉं से मिलाना था जो संभव नहीं दिख रहा था, अब उसके क्रोध नें भक्ति का सहारा लिया जो स्‍वाभाविक तौर पर महिलाओं में देखी जाती है, उसके मॉं से उसे मिलाने की मन्‍नत स्

लोक गाथा : दशमत कैना

भोज राज्य का राजा भोज एक दिन अपनी सात सुन्दर राजकन्याओं को राजसभा में बुलाकर प्रश्न करता है कि तुम सभी बहने किसके भाग्य का खाती हो । छ: बहने कहती हैं कि वे सब अपने पिता अर्थात राजा भोज के भाग्य का खाती हैं और सब पाती हैं । जब सबसे छोटी बेटी से राजा यही प्रश्न दुहराता है तब, अपनी सभी बहनों से अतिसुन्दरी दशमत कहती है कि, वह अपने कर्म का खाती है, अपने भाग्य का पाती है । इस उत्तर से राजा का स्वाभिमान ठोकर खाता है और स्वाभाविक राजसी दंभ उभर आता है । राजा अपने मंत्री से उस छोटी कन्या के लिए ऐसे वर की तलाश करने को कहता है जो एकदम गरीब हो, यदि वह दिन में श्रम करे तभी उसे रोटी मिले, यदि काम न करे तो भूखा रहना पडे । राजा की आज्ञा के अनुरूप भुजंग रूप रंग हीन उडिया मजदूर बिहइया को खोजा गया । वह अपने भाई के साथ जंगल में पत्थर तोडकर ‘पथरा पिला-जुगनू’ निकालते थे जिसे उनकी मॉं, साहूकार को बेंचती थी जिससे उन्हें पेट भरने लायक अनाज मिल पाता था । बिहइया से दसमत कैना का विवाह कर दिया गया । दशमत अपने पति के साथ पत्थर तोडने का कार्य करने लगी जिसे उन्होंने अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया । पत्थर से निकलने

रचनाओं की महक

प्रिय एबीसी, काफी लम्‍बे अरसे के बाद आज तुम्‍हें फिर पत्र लिख रहा हूं, पिछले तीन माह से तुम्‍हें पत्र लिखना चाह रहा था किन्‍तु लिख नहीं पा रहा था । हंस में 'विदर्भ' कहानी पढने के बाद से ही, पर ...... तुम्‍हारा पता वहां नहीं था । सिर्फ ई मेल एड्रेस था वो भी याहू का जो हिन्‍दी मंगल फोंट को सहजता से स्‍वीकार नहीं करता इस कारण की बोर्ड पर खेलते मेरे हाथ रूक गये थे । उस कहानी एवं वहां दिये तुम्‍हारे परिचय से मुझे तुम्‍हारे संबंध में कुछ और जानकारी मिली और मुझे खुशी हुई कि तुम अब कम्‍प्‍यूटर से घोर नफरत करने वाली अपनी प्रवृत्ति बदल चुकी हो इसी लिए तो अपना स्‍थाई पता ई मेल का दिया है । चलो वक्‍त नें सहीं तुम्‍हें बदला तो ...., नहीं तो बदलना तो तुम्‍हारी तासीर में नहीं था । तुममें क्‍या क्‍या बदलाव आया है यह मैं जानना चाहता हूं, पर मैं यह भी जानता हूं कि इसके लिये मुझे तुमसे मिलना पडेगा, तुम यूं ही अपने राज खोलती भी तो नहीं हो । मैं तुम्‍हें तुम्‍हारी कहानियों से ही जान पाता हूं या फिर जब तुम मुझसे, आमने सामने बैठकर बातें करती हो ।  इन दिनों किस नगर में बसेरा है तुम्‍‍हारा, परिवार