मछली का मायका : मन और देह की संवेदनाओं का संग्रह सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मछली का मायका : मन और देह की संवेदनाओं का संग्रह

‘इन कथाओं के देर से प्रकाशित होने का एक बडा कारण इनमें ‘देह’ की उपस्थिति भी है । बीसवीं सदी के पांचवें दशक तक हिन्दी कहानी में दैहिक संवेदनाओं से परहेज ही किया जबकि उस समय भी उर्दू कथा नें देह को ‘मन’ की तरह ही तरजीह दी । हिन्‍दी कथा में देह छठवें दशक में प्रवेश पा सकी लेकिन अपने समग्र प्रभाव में वह उर्दू की तरह संवेदनात्मक आज तक नहीं हो सकी । अपने लेखन से मैं संवेदनात्मक धरातल पर मन और देह को अलग नहीं कर पाया । मुझे लगा कि दैहिक समीकरणों से उपजने वाली संवेदनायें किसी भी स्तर पर जीवन की अन्य विडम्बनाओं से उपजने वाली उंवेदनाओं से कम पीडादायक नहीं होती ।‘ यह शव्द हैं पंजाबी एवं हिन्दी के कवि, व्यंगकार व कथाकार गुलबीर सिंह भाटिया के जिन्होंनें अपने सर्वश्रेष्ठ 19 कहानियों का संग्रह ‘मछली का मायका’ विगत दिनों प्रकाशित किया है । मंटो और बलराज मेनरा की कहानियों के नजदीकी का एहसास कराती इन कहानियों में श्री भाटिया जी नें देह और मन के समीकरणों का बेहतर चित्र खींचा है ।
हरसूद के उजडे जीवन का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती कहानी ‘मछली का मायका’ को इस संग्रह का नाम दिया गया है संग्रहित सभी कहानियों में जीवन हरसूद के इंशान और मछलियों की तरह तडफती नजर आती है । इस संग्रह में संग्रहित अधिकांश कहानियां सातवे व आठवें दशक में सारिका, नागमणि, प्रीत लडी, पंजाबी डाईजेस्ट, नंवा साहित्य, कंवल, सरदल आदि हिन्दी एवं पंजाबी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं । श्री भाटिया जी की कहानियों पर पंजाबी एवं हिन्दी साहित्यकार कृष्ण कुमार रत्तू जी नें समीक्षात्मक उद्बोधन देते हुए कहा था ‘श्री भाटिया उन रचनाकारों में से हैं जो अपने पात्रों का केवल चित्रण ही नहीं करते बल्कि उनकी पीडा को जीते भी हैं । उनकी कहानियां दर्द के रिश्तों के ऐसे कोलाज हैं जिन्हें नमन करने को जी चाहता है ।‘
संग्रहित कहानियों में कथाकार संवेदनाओं का ऐसा अजश्र धार बहाता है कि हृदय इसमें बार बार डूबता उतराता है । इन कहानियां में उर्दू, पंजाबी और हिन्दी की मिलीजुली परम्पराओं का दर्शन होता है । इनकी चर्चित कहानियों में 1976 में लिखी गई और अमृता प्रीतम की प्रिय कहानी ‘वह और वह’ एवं नारी संवेदनाओं की मार्मिक कहानी ‘चिथडा’ से कई कई बार हमारा साक्षातकार हुआ है व गुलबीर सिंह भाटिया के नाम के साथ ही साहित्य बिरादरी के लोगों के जुबान पर कई कई बार इन कहानियों का नाम उभरा है ।
इस संग्रह में विविध आयामों में समाज के विभिन्न वर्गों के विद्रूपों पर प्रहार करते हुए गुलबीर सिंह जी नें नारी संवेदनाओं के साथ ही बाल मन का भी हृदयस्पर्शी चित्रण किया है जिनमें 1983 में लिखी गई ‘फूफाजी फिर आये हैं’, 1976 में लिखी गई ‘मोंगरी’ व 2006 में लिखी गई ‘एक काफी एक चाय’ जैसी कालजयी कहानियां हैं । अलग अलग समय पर लिखी इन कहानियों में कथाकार के उम्र का प्रभाव कहीं भी नहीं झलकता चाहे वह युवावस्था 1977 में लिखी गई कहानी ‘आखरी मौसम’ हो या साठवें पडाव 2005 में लिखी गई कहानी ‘मछली का मायका’ हो ।
इन कहानियों में प्रेम के भाव, ढलते उम्र के पात्रों में भी अपने पूर्ण युवा रूप में उपस्थित है वहीं परिपक्वता अपने मूल उम्र के अनुसार ही प्रदर्शित है । यद्यपि गुलबीर सिंह जी ‘एक काफी एक चाय’ में उम्र के अंतिम पडाव में अपनी अपनी गृहस्थी बसा चुके प्रेमी प्रेमिका के काफी हाउस में मिलन पर कहते हैं ‘जब भविष्य के प्रति मोह समाप्त होने लगे तब मनुष्य अतीत की ओर झांकता है ।‘ गुलबीर सिंह जी की ये कहानियां वास्तव में अतीत के दस्तावेज हैं, जिसमें उन्होंनें संपूर्ण मनुष्यता को न केवल झांका है बल्कि दर्द और उत्पीडन को खुले आसमान में सरेआम किया है ।
प्रस्तुति - संजीव तिवारी


कहानी संग्रह – मछली का मायका
कहानीकार – गुलबीर सिंह भाटिया (मो. 094255 55519)
प्रकाशक – श्री प्रकाशन, दुर्ग
वितरक – भाटिया बुक सेंटर, कचहरी रोड, दुर्ग फोन – 0788 232323236
मूल्य - 125 रूपये

टिप्पणियाँ

  1. हम भी पढ कर देखेंगे

    जानकारी के लिये धन्यवाद

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  2. अच्छा है, पुस्तकीय जानकारी ब्लॉग पर आनी ही चाहिये। आपसी मारपीट से तो यह कहीं स्वच्छ लेखन है।
    देखते हैं यह पुस्तक पढ़ पाते हैं, किसी प्रकार।

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  3. बहुत आभार इस जानकारी को देने के लिए. शायद कभी मिली तो जरुर नजर दौड़ाई जायेगी और आपको याद करेंगे.

    जवाब देंहटाएं
  4. शीर्षक ही पढ़ने के लिए उत्सुकता जगा रही है.........कोशिश करुँगी किताब यही मिल जाए.
    संजीव जी यह बहुत अच्छा काम हो रहा है आपके द्वारा.

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