सुरता चंदैनी गोंदा - 1 सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सुरता चंदैनी गोंदा - 1

दाऊ रामचंद्र देशमुख के चंदैनी-गोंदा की कथावस्तु

उद्घोषक -  मूल कार्यक्रम प्रारंभ करने के पहले हम यह बतला देना आवश्यक समझते हैं कि चंदैनी गोंदा कोई नाटक गम्मत या तमाशा नहीं है। चंदैनी गोंदा एक दर्शन है, एक विचार है जो कि एक औसत भारतीय किसान के इर्द-गिर्द घूमता है। यह हमारी मान्यता है कि छत्तीसगढ़ का कोई भी औसत किसान अपने सारे परिवेश में भारत के किसी भी शोषित, पीड़ित और उपेक्षित क्षेत्र का किसान हो सकता है। इस दृष्टिकोण से चंदैनी गोंदा प्रतीकात्मक ढंग से एक भारतीय किसान के जीवन के चित्रण का प्रयास है।

कृषक जीवन को चंदैनी गोंदा में प्रस्तुत करने के लिए हमने प्रधानतः छत्तीसगढ़ी लोक गीतों और कवियों की रचनाओं का आश्रय लिया है जो धरती और धरतीपुत्र से संबंधित हैं। इन गीतों को किसी कथानक के सूत्र में न गूँथते हुए हमने इसे ऐसी क्रमबद्धता प्रदान कर दी है कि यही क्रमबद्धता आपको कथानक का आनंद देने लगती है। साथ ही छत्तीसगढ़ की अंतर-वेदना को भी साकार करती है और अंत में एक व्यथा, कथा का रूप ले लेती है । गीतों को प्रतिभाशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए हमने दृश्यों, प्रतीकों, संवादों आदि का आश्रय अवश्य लिया है किंतु हमारा पुनः अनुरोध है कि इसके कारण आप चंदैनी गोंदा को नाटक की दृष्टि से न देखें। हम अभिनय की उच्चता का कोई दावा नहीं करते। नाटकीयता से दूर रहने के कारण हम रूप-सज्जा, वस्त्र परिवर्तन, मंच व्यवस्था पर भी विशेष ध्यान नहीं देते। इसका कारण है कि हमें स्वाभाविक और प्रतीकात्मक रूप से एक औसत किसान को चंदैनी गोंदा में प्रस्तुत करना है।

आपके मन में सहज ही एक जिज्ञासा उठती होगी कि इस कार्यक्रम का नाम चंदैनी गोंदा क्यों रखा गया है? दरअसल गेंदे दो प्रकार के होते हैं। पहला प्रकार बड़े गेंदे का होता है जो प्रधानतः श्रृंगार के काम आता है। गेंदे का दूसरा प्रकार छत्तीसगढ़ में चंदैनी गोंदा कहा जाता है जो आकार में छोटा होने के कारण ग्रामीण युवतियों के जुड़े की शोभा तो नहीं बन सकता किंतु देवी देवताओं के चरणों में चढ़ने का श्रेय उसे अवश्य प्राप्त है।

छत्तीसगढ़ में ऐसे अनेक अज्ञात कलाकार भी पड़े हैं जो चंदैनी गोंदा की तरह आकार में छोटे तो अवश्य हैं किंतु उनमें प्रतिभा है, लगन है, कला की ऊंचाई है। इनकी कला से वास्तव में सरस्वती की पूजा की जानी चाहिए किंतु ऐसा हो नहीं पाता। हमने भागीरथ प्रयास करके छत्तीसगढ़ की माटी से कुछ कलाकार रूपी चंदैनी गोंदा चुनकर एक सूत्र में पिरोया है। इस सूत्रबद्ध पुष्पमाला को हम चंदैनी गोंदा के नाम से संबोधित करते हैं और यही कारण है कि परिवार द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम को "चंदैनी गोंदा" की संज्ञा दी है। इस तरह चंदैनी गोंदा, गीतों की माला है और छोटे-छोटे कलाकारों की माल्य है।

 लोग रत्नों की खोज में छत्तीसगढ़ आते हैं और प्राप्त कर लेने पर भोपाल, दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, आगरा के बाजारों में भुना लेते हैं। श्री रामचंद्र देशमुख ने कुछ रत्न पाए हैं। परखने के लिए आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं।

 फूल खिलते हैं, मुरझाते हैं और धूल में मिल जाते हैं किंतु 7 नवंबर 1971 को जिस चंदैनी गोंदा के पौधे को दुर्ग के निकटस्थ ग्राम बघेरा में रोपा गया है उसे न मुरझाने देने का संकल्प छत्तीसगढ़ की जनता ने कर लिया है। इस लंबी भूमिका के बाद अपने परिवार की इष्ट देवी सरस्वती की वंदना, भारत माता को समर्पण और दर्शकों के अभिनंदन के साथ अपना कार्यक्रम प्रारंभ करते हैं
सुमन का प्रवेश:
 कमेंट्री:  मन की बात जानने वाला केवल मन है
           सबसे अच्छा फूल की जिसका नाम सुमन है
दुखित का प्रवेश:
 कमेंट्री:  हँसमुख प्रसून सिखलाते पल भर जो हँस पाओ
          अपने उर के सौरभ से जग का आंगन भर जाओ
गीत:  देखव फूलगे -
        चंदैनी गोंदा फूलगे
कमेंट्री:  गांव में फूल घलो गोठियाथे, जब सब किसान सो जाथे। आज भारत-वासियों की आत्मा स्वतंत्रता के पवित्र पर्व में प्रकाशित है परंतु 15 अगस्त 1947 से पहले भारत में दिन में भी अंधियारी रात थी। 1857 में स्वतंत्रता आंदोलन की जो ज्योति हमारे पूर्वजों ने प्रज्वलित की वह 1942 में विकराल रूप धारण कर ब्रिटिश शासन को जलाने पर तुल गई थी। भारत का आकाश करो या मरो, अंग्रेजों भारत छोड़ो, इंकलाब जिंदाबाद, महात्मा गांधी की जय, तिरंगे झंडे की जय से गूंज उठा था। वंदे मातरम की एक आवाज पर गोलियों की बौछारों को रोकने के लिए हजारों सीने अड़ जाते थे।
गीत: वंदे मातरम
कमेंट्री:  फिर आया 15 अगस्त 1947, अंधियारा छटा। स्वतंत्रता का सूरज उदित हुआ। पूर्वजों का बलिदान सार्थक हुआ। तिरंगा भारत के स्वतंत्र आकाश में लहराने लगा। झूम गया सारा भारत, झूम गया सारा गाँव।
गीत: आगे सुराज के दिन रे संगी
कमेंट्री:  नवजात स्वतंत्रता के साथ जिन बच्चों ने जन्म लिया था वह एक अर्थ में बहुत भाग्यशाली थे। उनके माथे पर गुलामी का कलंक नहीं था। इन्हीं के हाथों में आगे चलकर भारत की बागडोर सौंपी जानी थी इसलिए माताओं ने उनके उज्जवल भविष्य की कामना की।

गीत : सोहर गीत
         देवार गीत
कमेंट्री: नवजात शिशु की उम्र थोड़ी बढ़ी, साथ ही नई पीढ़ी की उम्र भी। उसी समय दंगों की आग से भारत माता का आँचल जल रहा था। रो पड़ी आजादी, रो पड़ा नई पीढ़ी का बचपन,  उसकी आँच सहन न कर सकने के कारण। माताओं को उनका रोना सहन नहीं हुआ। लोरियां फूट पड़ी कंठ से।
गीत:  लागे झन काकरो नजर
कमेंट्री: आजाद भारत में जन्मी नई पीढ़ी ने अभी होश भी नहीं संभाला था। उसके दूध के दाँत टूटे भी नहीं थे कि आई 30 जनवरी 1948 की काली संध्या। कहीं से तीन गोलियां आई और धँस गई बापू के कलेजे में। मानवता कराह उठी। भारत मां की आंखों से बहुत गंगा जमुना की धाराएं।
गीत:  ओ पापी ओ बइरी
कमेंट्री:  गांधी जी की मौत के साथ गांधी के सपनों के भारत की भी हत्या हो गई। दिन पर दिन बीते गए। आजाद पूरी जवान हो चली उसकी जवानी गांव में बसने वाले भारत की ओर नहीं, शहर में बसने वाले भारत की ओर आकर्षित हो गई। काश कि तुलसी के अनगढ़ बिरवे उसे गांव की ओर आकर्षित कर पाते। काश, बहन की राखी उसे गांव में रोक पाती ।
गीत: चल शहर जातेन
कमेंट्री: आजादी के बाद योजना, परियोजना बनती गई मगर गांधी के सपनों का रामराज्य नहीं आया। गाँवों में जाने वाला भारत, अन्न के लिए दूसरे के सामने झोली फैलाता रहा क्योंकि औसत भारतीय किसान दुखित रहा।
दुखित का प्रवेश -
कमेंट्री: लोग यह क्यों नहीं सोचते कि भारत हमारी माता है, यदि भारत का कोई भी भाग शोषण से कमजोर होता है तो भारत माँ का ही कोई अंग तो कमजोर होता है।
 हाँ, यही तो है हमारा छत्तीसगढ़, भारत माँ के पेट के पास। इसका शोषण भारत माँ के उदर का शोषण है।
हर आँख यूं तो बहुत रोती है
हर बूँद मगर अश्क नहीं होती है
पर देखकर जो रो दे जमाने का गम
उस आँख से आँसू जो गिरे मोती है।
दुखित इन मोती के दानों को यूं ना बह जाने दो, सहेजो इन्हें,  निराश होकर बैठो मत। उठो अपनी शक्ति को पहचानो। यदि तुम्हारे भोलेपन के बदले तुम्हें तिरस्कार पूर्ण संबोधन मिलता है तो तुम भयानक विषधर भी बन सकते हो मगर शायद तुम विषधर बनना पसंद नहीं करोगे
गीत:  मैं छत्तीसगढ़िया अँव
        मोर संग चलो रे
कमेंट्री: भारत भर में आपको छत्तीसगढ़ के इस दुखित की तरह अनेक दुखित मिलेंगे जिन्हें किसी भी प्रकार का शोषण उत्पीड़न और तिरस्कार कर्तव्य पथ से डिगा नहीं सकता। माटी के प्रति उसके आकर्षण को कम नहीं कर सकता। जेठ की दुपहरी में जब गाँव में मरघट जैसा सन्नाटा छाया रहता है, तब भी किसान की कर्तव्य पथ की यात्रा निर्बाध गति से चलती रहती है।
गीत:  रेंगव रेंगव रे रेंगइया
कमेंट्री:  जेठ के बाद आषाढ़ में जैसे ही काले काले मेघा मंडराते हैं, किसान का मन मयूर नाच उठता है। वर्षा की बूँदों से जब धरती गूंजती है तो किसान का तन मन धन सब खुशी से भींज उठता है। धरती से उठती माटी की सोंधी गंध उसे खेतों की ओर आकर्षित करती है।  होठों पर गीत थिरक उठते हैं और किसान कंधे पर हर रखे चल पड़ता है खेतों की ओर, जो उसका कर्म क्षेत्र है

गीत:  चल चल गा किसान बोए चली धान
कमेंट्री: किसी समर्थ पुरुष ने यह तो माना कि धान के क्षेत्र में हरित क्रांति आना बाकी है। तो वह कौन सी फाइल में दबी पड़ी है ? लो वह स्वयं आ रही है अपनी व्यथा कहते -
हरित क्रांति बाई का एक-पात्रीय अभिनय:
कमेंट्री: प्यासी धरती जब सावन में पूरी तरह तृप्त हो जाती है तब हरे भरे खेत किसान के कठोर श्रम की मांग करते हैं। किसान की जिंदगी एक अंतहीन श्रम की कथा है। श्रम की कठोरता में घिरा हुआ किसान का मन उल्लास और नवीन स्फूर्ति पाने के लिए लोकगीतों के लालित्य की ओर मुड़ पड़ता है। श्रम की घुमड़ती हुई घटनाओं के बीच जब ददरिया की तान छिड़ती है तब चारों ओर संगीत झरने लगता है और किसान का थका मन श्रृंगार-पूरित हो उठता है।
गीत: मोर खेती खार रुमझुम
कमेंट्री: सावन के बाद आता है भादो। भादो का महीना छत्तीसगढ़ में औरतों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। तीज त्यौहार के कारण किसान की पत्नियों के मन में मायके जाने की ललक, पति से नई साड़ी लाने का अनुरोध और पति पत्नी की नोक झोंक से सिक्त भादो।
गीत:  मोला मइके देखे के साध, धनी मोर बर लुगरा ले दे
कमेंट्री: कभी-कभी ऐसा होता है कि तीज में मायके जाने की किसानिन की साध मन में ही रह जाती है। उसे कोई लिवाने नहीं आता। मायके से केवल साड़ी भेज दी जाती है। वह साड़ी उसके अतीत के पृष्ठों को एक-एक करके सामने रखने लगती है।
गीत: दाई के दया दादा के मया
कमेंट्री: भादो में ही आता है गणेश पक्ष। गांव में गणेश की प्रतिमा जहां स्थापित हो जाती है वहां सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ जाती है इसी बाढ़ में प्रायः चंदैनी नाच भी देखने को मिलता है। सतनामियों के नाचने की अपनी विशिष्ट शैली, अमर्यादित मस्ती और अक्खड़पन इसकी विशेषता होती है।

चंदैनी नाच:
कमेंट्री: तीज त्यौहार के बीच भादो बीतने लगता है किंतु कृषक समुदाय अपने कर्तव्य को भूलता नहीं है। निंदाई का दूसरा दौर भादो में चलता है। खड़े हो जाइए आप खेतों की मेड़ पर ददरिया की तान आपके मन को आल्हादित कर देगी।
 गीत: झन आंजबे टूरी आँखी म काजर
कमेंट्री: कुंवार निंदाई के तीसरे दौर का महीना।  जुआर फूलने लगता है। ह्रदय के भाव गीत बनकर बिजली की तरह कौंध जाते हैं ।
गीत:  चिरई चले आबे
कमेंट्री:  दीपावली अपनी समस्त प्रभाव के साथ कार्तिक में आती है।बच्चों बूढ़ों सब में एक अपूर्व उल्लास भर जाता है। लक्ष्मी पूजा की रात छत्तीसगढ़ के गांव में शिव के रूप में गौरा की पूजा होती है। घर घर से कलश एकत्रित कर गांव में किसी सार्वजनिक स्थान पर रखे जाते हैं, फिर गौरा की सेवा की जाती है। गौरा गीत से वातावरण मुखरित हो जाता है।
गीत: जोहर जोहर मोर
कमेंट्री: दिन बीतते जाते हैं, बीतते जाते हैं। अगहन आता है किसान के श्रम की पूजा स्वीकार होती है। महीनों के कठिन परिश्रम की कमाई खेतों में धान के रूप में खड़ी है। पीले पीले धान के खेत जब हवा में लहराते हैं तब किसान को ऐसा लगता है कि मानो उसे शीघ्र आने का इशारा कर रहे हैं। वह आतुर हो उठता है, उसे खलिहान में लाने के लिए
गीत: भैया का किसान हो जा तैयार
       छन्नर छन्नर पैरी बाजय
कमेंट्री: जब भी मौका मिलता है गांव की अल्हड़ किशोर बालाएं बड़े बूढ़ों से मजाक और छेड़खानी करने से नहीं चूकती।
गीत: हर चांदी हर चांदी
कमेंट्री: फसल कट चुकी है। दुखित और मरही भारा लिए खेतों की ओर से आ रहे हैं। दुखित जलोदर का मरीज है और मरही दमा की मरीज है किंतु भरपूर फसल को देखकर दोनों अपनी पीड़ा भूल चुके हैं।
गीत:  तोला देखे रहेंव गा
कमेंट्री: दुखित की फसल खलिहान में पहुंच चुकी है।धान की मिंजाई होने वाली है। दुखित अपनी संतान-हीनता के दुख को गांव के बच्चों को देखकर भूल जाता है। गांव के बच्चे भी छुट्टी का घंटा बजते ही उसके खलिहान की ओर दौड़ पड़ते हैं।
गीत: चंदा बनके जीबो हम
कमेंट्री: यह कैसा अनर्थ है, किसने इन मासूम बच्चों के मन में सांप्रदायिक घृणा का विष बो दिया है। इस भावना को लेकर यदि बच्चे जवान होंगे तो देश का भविष्य क्या होगा?
गीत: धरती के अंगना मा
कमेंट्री: दौरी में जुते सात लड़के सात दिनों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो दुखित के जीवन के यथार्थ से संबंधित है। सात लड़कियां इंद्रधनुष के सात रंगों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं जो मरही के जीवन का स्वप्न है। मेड़वार कानून और गर्दन में फंसी रस्सी नियति का प्रतीक है। किसान का यथार्थ और किसानिन का स्वप्न वर्ष भर इस कानून के डंडे के चारों ओर घूमता रहता है।
गीत: आज दौरी  मा बइला मन घूमत हें
       जुच्छ गरजे मां बने नहीं
कमेंट्री: छत्तीसगढ़ में यह मान्यता है कि जब तक औरत के शरीर में गोदने का निशान नहीं होता तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती। भागवती एक संतान-हीन विधवा औरत है, जिसे दुखित ने चाँद-बी को सौंप दिया है। वह चाँद-बी को गोदना गुदवाना चाहती है।
गीत:  तोला का गोदना ला गोदँव
कमेंट्री: इधर शिव की पत्नी विरह वेदना से पीड़ित है कर्तव्य बोध तो उसे है किंतु पति से दूर रहने का दुख भी तो उसे है। बगैर शिव के उसे गांव, घर, खलिहान सब सूने लगते हैं।
गीत:  मोर कोरिया सुन्ना रे
कमेंट्री: उधर शिव मोर्चे पर घायल हो जाने के कारण शिविर में भेज दिया जाता है।वहां उसे पत्नी का पत्र प्राप्त होता है और अक्षर, पत्नी की छवि में परिणित होते जाते हैं।
गीत: वा रे मोर पड़की मैना
कमेंट्री:  फागुन का महीना, नगाड़े की आवाज और उल्लास का महीना। खरीफ की फसल तो मिली पर रबी की नहीं मिल पाई
।गांव के अधिकांश लोग रोजी रोटी की चिंता से, दूर चले गए मगर दुखित ने गांव नहीं छोड़ने का निश्चय किया।
गीत:  नरवा के तीर मोर गांव
कमेंट्री:  दूसरे साल और भी भयानक अकाल पड़ गया। धरती की छाती फट गई।  प्यासी धरती की पीड़ा उसके हृदय की पीड़ा बन गई। आज पौष-पूर्णिमा है। दान दक्षिणा का पुण्य-पर्व।

गीत:
कमेंट्री: दुखित की बची शक्ति नष्ट हो जाती है। दुखित जेब से डिब्बा निकालता है। मिट्टी खाता है।  मिट्टी का चंदन लगाता है। ईमान की तिजोरी भर चुकी थी। काँटों से डिब्बा भर चुका था। अब कोई जगह शेष नहीं थी। काँटों से मुक्ति का अवसर था। उसने मिट्टी का महाप्रसाद खाया। आँसुओं का गंगाजल पिया। मस्तक पर मिट्टी का चंदन खुद अपने हाथों लगा लिया। सन्यास की अवस्था में उसे बच्चे रूपी चंदैनी गोंदा दिखाई देते हैं। वर्षा का आह्वान करते हुए।
गीत:  घानी मुनी घोर दे
कमेंट्री:; बटोरन लाल की बद्दुआ सच हो रही है। अंतिम समय, दुखित के पास ना मरही है , न शिव,  न गंगा, न भागवती और न चांद-बी। केवल उसका मन उस पर न्योछावर है। सुमन, सुंदर मन।
कमेंट्री: अरे ! यह कौन आ रहा है दुखित की लाश के पास ? गिद्ध की नाईं बटोरन लाल।  बटोरन लाल ! अकाल की काली छाया ने तुम्हें भी नहीं बख्शा? अब क्या लेने आए हो यहां? सब कुछ खत्म हो गया। दुखित के तन को बटोरन लाल ने अपने सीने से लगा लिया।  काश!  बटोरन लाल का यह भाव सर्वव्यापक हो पाता। वह गिद्ध की नाईं आया और राजहंस की भांति जा रहा है। दुखित की पीड़ा व्यर्थ नहीं गई। उसने बटोरन लाल का हृदय परिवर्तन कर दिया। अब बटोरन लाल को दूसरा नाम देना होगा। कौन कहता है कि दुखित मर गया है?  मरता वह है जो जिंदगी के टूटे,  थके हारे या जो पराए दर्द के काँटे न बुहारे । दुखित मानवता है । प्रदीप्त है।  अटूट है। अतीत है। बेशक तुमने देखा है उसको, उसकी जिंदगी को हिम्मत और मस्ती को, तुम अवाक रह गए हो कि वह असाधारण रूप से साधारण है। एक औसत भारतीय किसान का उदाहरण है। आओ तुम्हें आमंत्रित करता हूँ, दुखित जैसा बनो, कुछ माटी में सनो,  फिर चाहो तो कह देना कि दुखित मर गया। किंतु मुझे अमरत्व पर विश्वास है क्योंकि उसका अहिंसक बलिदान बटोरन लाल को अपना सुमन सौंपने का संदेश देकर गया है। कौन कहता है दुखित मर गया ? मानवता की मिसाल लिए माटी का बेटा सदा के लिए सो चुका है। उसकी चिता की अग्नि मशाल बन गई ऐसा लगता है।
छत्तीसगढ़ महतारी इस वियोग की बेला में फफक-फफक कर रो पड़ी है। अपनी निराशा बेबसी और एकाकीपन के बीच वह अपने सोए हुए बेटों की ओर ताकते हुए इधर ही आ रही है। उनकी तंद्रा भंग करने।

जीवन की लहर-लहर से हँस खेल खेल रे नाविक
जीवन के अंतस्थल में नित बूड़-बूड़ रे नाविक
हँसमुख प्रसून इकलौते, पल भर है जो हाथ पाओ
अपने डर के सौरभ से जग का आंगन भर जाओ।
उपर्युक्त संपूर्ण कथानक के साथ लोक धुनों में आबद्ध छत्तीसगढ़ी के अनेक गीतों छत्तीसगढ़ के नयनाभिराम दृश्यों और ग्रामीणों तथा नागर संस्कृति के लोक-नाट्यों के मिश्रित स्वरूप में प्रस्तुत चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति ने छत्तीसगढ़ में एक वैचारिक क्रांति उत्पन्न की। दाऊ रामचंद्र जी देशमुख अपने श्रम को सार्थक स्वरूप प्रदान कर पाने में पूरी तरह सफल रहे।
(डॉक्टर सन्तराम देशमुख "विमल" की किताब "छत्तीसगढ़ी लोक नाटक के विकास में दाऊ रामचंद्र देशमुख का योगदान",  से साभार)
प्रस्तुतकर्ता - अरुण कुमार निगम

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