दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति द्वारा हिंदी कहानियो की विकास यात्रा पर रविवार संध्या एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम मेँ वरिष्ठ कथाकार गुलबीर सिंह भाटिया ने अपनी कहानी "खचरि मुस्कान" का पाठ किया एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ परदेशी राम वर्मा ने अपनी कहानी "थप्पड़" का पाठ किया। इन कहानियों पर आलोचनात्मक टिप्पणी देते हुए चर्चित कथाकार लोक बाबू ने कहा कि, गुलबीर सिंह की कहानी अपनी बुनावट मेँ सशक्त है जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मेँ सक्षम है। कथा के नायक विनोद के माध्यम से कथाकार ने अपनी संदेशात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। सामयिक परिवेश मेँ बुनी गई कहानी मेँ सरस्वती के बेटे का दाखिला कथा के चरम को व्यक्त करती है। उन्होंने परदेशीराम वर्मा की कहानी "थप्पड़" पर कहा कि परदेसी राम छत्तीसगढ़ के परिवेश की कथाएँ लिखते हैं। उनका केंद्रीय परिवेश किसी भी कहानी मेँ बदलता नहीँ है। वे छत्तीसगढी की लोकप्रिय देशज शब्दोँ का प्रयोग करते हैं। इस कहानी मेँ लोककला की दुर्दशा का जीवंत चित्रण है। कहानी के नायक देवदास के हम चश्मदीद हैं जो थप्पड़ के रुप मेँ सामने आया है।
इन दोनो कहानियो के संबंध मेँ चर्चा करते हुए वरिष्ठ व्यंग्यकार रवि श्रीवास्तव ने कहा कि, गुलबीर सिंह भाटिया की कहानियाँ छोटी होती है लेकिन मर्म को भेदती है। वे सामाजिक यथार्थ को अपनी कहानियोँ मेँ चित्रित करते हैं। इस कहानी मे भी उन्होंने समाजिक यथार्थ को चित्रित किया है। डॉ परदेशीराम वर्मा की कहानी के संबंध मेँ इंहोन्ने कहा कि परदेसी की कहानियाँ और उनके पात्रोँ के वे चश्मदीद हैं। उनकी ठेठ देसज शैली उनकी कहानी को सशक्त बनाती है।
इन दोनो कहानियाँ पर वरिष्ठ कवि शरद कोकास नें कहा कि दोनो कहानियो मेँ पाठक से जुडाव का तत्व मौजूद है। इन कहानियो की शब्दावलियाँ दृश्य और पात्र सब अपने से लग रहे हैं। किसी भी श्रेष्ठ कहानी की यही अहम बात होती है। शरद कोकास नें आज के बदलते परिवेश मेँ पाठकोँ को भी नहीँ कहानियो के पठन के लिए संस्कारित करने पर बल दिया। राजिम से आए साहित्यकार दिनेश चौहान ने भी कार्यक्रम को संबोधित किया। उन्होंने छत्तीसगढी परिवेश की कहानियो मेँ कथनोँ पर कथोपकथन मे छत्तीसगढी भाषा के प्रयोग का अनुरोध किया।
कार्यक्रम में आधार वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ आलोचक प्रो.जयप्रकाश नें कहानी की विकास यात्रा पर सारगर्भित एवं क्रमिक विवरण दिया। उन्होंने कहा कि, कहानी अपने अनुभवो को संजोने की प्रक्रिया है एवं लिखित रुप मे अनुभवो की अभिव्यक्ति है। कहानियों मे अभिव्यक्त यही अनुभव पाठकोँ के मर्म को जगाता है। कथा के विकास क्रम के सम्बन्ध मेँ बताते हुए उन्होंने कहा कि आज साहित्य के सरोकार बदल गए है। बहुततेरे कथाकार संघर्ष की अभिव्यक्ति के संग तादात्म्य ठीक से बैठा नहीँ पा रहे हैं। उन्होंनें कहानियो मेँ काल्पनिक कथा लेखन के बजाय अनुभवजन्य यथार्थ के चित्रण पर बल दिया। कथा के दसकीय विकास क्रम में कहानियों एवं कथाकारों पर विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंनें राजेश जोशी एवं उदयप्रकाश जेसे कथाकारों का उल्लेख किया जिन्होंनें कहानी के टैक्स्ट को बदल कर कहानियों मे प्रयोग किये। वर्तमान के नव उदारीकरण, ग्लोबल गांव एवं आभासी सामाजिक परिवेश पर चर्चा करते हुए कहा कि, बहु राष्ट्रीय पूँजी के लिए उठते प्रतिरोध के समय में कहानी के स्वरुप मे बदलाव की आवश्यकता है। जटिल बात कहने के लिए जटिल शिल्प अपनाने के बजाय सहज शिल्प मे जटिलता को प्रस्तुत करने वाले 90 के दशक के कथाकार सृंजय का उल्लेख करते हुए, सहजता से जटिल बातोँ को कहानियों में अभिव्यक्त करने का सुझाव दिया।
कार्यक्रम मे स्वागत भाषण समिति के अध्यक्ष डा. संजय दानी नें दिया एवं सभा का संचालन सचिव संजीव तिवारी ने किया। कार्यक्रम मेँ दुर्ग भिलाई के साहित्यकार रघुबीर अग्रवाल पथिक, महेंद्र कुमार दिल्लीवार, नवीन कुमार तिवारी अमर्यादित, नरेश कुमार विश्वकर्मा विश्व, रतनलाल सिन्हा, आदित्य पांडे, अशोक कुमार समद्दर, अरुण कसार, डा.निर्माण तिवारी, लल्लाजी साहू, कैलाश बनवासी, शरद कोकास, रामकृष्ण कुलकर्णी, तुंगभद्रा सिंह राठोर, केशी चंद्रशेखरन पिल्लई, भूषण लाल परगनिया, रामाधीन श्रमिक, डा.सुरर्शन राय, रवि श्रीवास्तव, लोक बाबू, यूसुफ मछली, नारायण चंद्राकर, मुकुंद कौशल, अशोक सिंघई, संतोष झांझी, रामाकांत बराडिया, नीता काम्बोज आदि उपस्थित थे।
संजीव तिवारी
साहित्य बन्धक है जब वह "बहु राष्ट्रीय पूँजी के लिए उठते प्रतिरोध" जैसे पुरनिया जुमलों के पार नहीं उतर पाता। और ये साहित्यकार कूप मण्डूक से लगते हैं।
जवाब देंहटाएंबरलिन की दीवार जाने कब की गिर गयी!