विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
फणिश्वर नाथ रेणु द्वारा 1954 में लिखे गए उपन्यास 'मैला आँचल' को आंचलिक उपन्यास माना गया है। अन्य आंचलिक उपन्यासों में नागार्जुन रचित मिथिला अंचल पर 'रतिनाथ की चाची', बरगद के पेड़ पर 'बाबा बटेश्वर नाथ', मछुवारो के कस्बे पर 'वरुण के बेटे' और तमका कोइली गाँव पर आधारित 'दुखमोचन' को माना जाता हैं।
रेणु के अन्य आंचलिक उपन्यासों में 'परती परिकथा' संयुक्त परिवार की कहानी, 'जुलुस' विभाजन के शरणार्थी लोगों की कथा और 'कितने चौराहे' अन्धविश्वास और नारी की स्थिति पर आधारित उपन्यास हैं। अन्य रचनाकारों में रांगेय राघव का 'काका' मथुरा के पुजारियों के सम्बन्ध में, उदय शंकर भट्ट द्वारा लिखित मुंबई महानगर के कस्बे वरसोवा का चित्रण करता उपन्यास 'सागर लहरें और मनुष्य' आदि हैं।
आंचलिक उपन्यास इन्हें क्यों कहा गया और आंचलिक उपन्यास की कसौटी क्या है यह जानने के लिए खुदाई शुरू करने पर पता चलाता है कि, रेणु ने स्वयं 'मैला आँचल' की भूमिका में लिखा “यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथांचल है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला। ... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गांव को पिछ्ड़े गांवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कथाक्षेत्र बनाया है।” ऐसा भूमिका में लिख कर रेणु ने किसी उपन्यास के आंचलिक होने के लिए आवश्यक सूत्र गढ़ दिये और विवादों को विराम तक पंहुचा दिया था।
साहित्य में विवाद का विराम लगना संभव न था न ही लगना चाहिए क्योंकि यहाँ विवाद को विमर्श की तस्तरी में पेश किया जाता है, जिसमें से श्रेष्ठ पकवान आलोचना को माना जाता है। बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवी सदी के शुरुवात के लगभग आधे से भी अधिक सदी तक आलोचना के पर्याय के रूप में डॉ.नामवर सिंह स्थापित हैं अतः हम सहूलियत की दृष्टी से आलोचकों को नामवर कहते हैं।
बाद में इन्हीं नामवरों में से कुछ नें आंचलिक उपन्यासों के मानदंड रचे जिसके अनुसार किसी उपेक्षित अंचल विशेष का समग्र रूप प्रस्तुत करने वाले उपन्यास को आंचलिक माना। कुछ नें कहा कि आंचलिक उपन्यास का कथानक स्वरुप न तो पूरा गाँव होता और न पूरा शहर होता बल्कि वो क़स्बा जैसा कुछ होता है। (जो रवीस कुमार के कस्बे से जाहिर तौर पर अलग होता है) कुछ कहते हैं कि अंचल का सजीव चित्रण होना चाहिय यार, बस।
तो बिहार के पूर्णिया जिले के मेरीगंज गाँव को पिछड़े गाँव का प्रतीक मान कर रेणु ने 'मैला आँचल' लिखा जिसमें कोई सजीव नायक नहीं है। अन्य उपन्यासों में एक नायक अनिवार्य रूप से होता है जिसके इर्द गिर्द कथानक घूमता है। किन्तु आंचलिक उपन्यासों में चरित्र भले होते हैं पर वे नायक नहीं होते। ऐसे उपन्यास के नायक वह अंचल ही होता है, मने मेरीगंज गाँव ही नायक है। एक और बात जे कि, इसमें कथानक का विस्तार होता है पर इसकी कथा एक गाँव को छोड़कर बाहर नहीं जाती। अंचल को जिसने भी जिया है वो जानता है कि अंचल का विस्तार मने जीवन का समग्र मूल्यांकन, आंतरिक और बाह्य। वा भई, गजब!
हम सोंचते थे कि, आंचलिक का मतलब जानने की हमें का जरुरत है, हमें तो सब पता हइये है। ठीक वैसेइ जैसे हमने अपने एक वयोवृद्ध चचा जो साहित्यिक उपन्यासों के संग्रह और अध्ययन के शौक़ीन हैं उनसे जब पूछा कि 'चचा डॉ.नामवर सिंह को जानते हो?' तो उन्होंने असहमति जताई और जब हमने कहा कि डॉ.काशी नाथ सिंह के भाई हैं तो चचा ने बेफिक्री से कहा अरे हाँ वो! .. वो तो कवितायेँ लिखता था।'
© तमंचा रायपुरी
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जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर !
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