सामयिकीः

मुद्दा तेलंगाना का
                                                                                                    - विनोद साव

आंध्र प्रदेश के क्षेत्र तेलंगाना को एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने रख दिया है। आने वाले चार महीनों के भीतर इसे पारित करवाने का समय दिया गया है। वर्तमान आंध्र प्रदेश देश के राज्यों के बीच क्षेत्रफल की दृष्टि से चौथे और जनसंख्या की दृष्टि से पांचवें स्थान पर है। जाहिर है कि यह एक बड़ा राज्य है। इसके पहले वर्ष 2000 में तीन बड़े राज्यों से निकालकर छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का गठन किया गया है। उल्लेखनीय कि इन नये राज्यों के गठन के समय कोई विशेष विरोध नहीं हुआ है। इनमें भी छत्तीसगढ़ ने तो बिना एक भी गोली खाये नये राज्य का दर्जा पा लिया था। अब आंध्र प्रदेश में नये राज्य के गठन की बारी है लेकिन आंध्र में तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के विरोध में कई प्रदर्शन हो रहे हैं, गोलियां चल रही हैं और सांसदों नेताओं के इस्तीफे दिये जाने का क्रम जारी है। आंध्र जहॉ कांग्रेस की सरकार है वहां केन्द्र की कांग्रेस सरकार की इस नीति का तीव्र विरोध हो रहा है। यानी कांग्रेस का विरोध कांग्रेस कर रही है।

अभी देश में आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र दो बड़े राज्य हैं। आंध्र के बाद महाराष्ट्र में भी विदर्भ को अलग किये जाने की पुरानी मांग है और देर सबेरे पूरा होकर रहेगी। इनके अतिरिक्त देश में और भी कई पृथकतावादी मांगें हैं पर उन राज्यों का आकार बहुत बड़ा नहीं है और न ही उन मांगों का कोई बहुत औचित्य है। इसलिए शेष मांगों को लटका दिये जाने की संभावना बनी रहेगी।

बहरहाल तेलंगाना क्षेत्र को जो अलग किया जा रहा है वह वर्ष 2000 में अलग किए गए तीनों राज्यों से कई मामलों में बड़ा है, चाहे आबादी और क्षेत्रफल की दृष्टि से हो या फिर लोकसभा विधानसभा क्षेत्र की सीटों की संख्या की दृष्टि से हो। इनके अतिरिक्त देश के पृथकतावादी मांगों में तेलंगाना की मांग सबसे पुरानी मांग है। बल्कि कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र ने देश में पृथकतावादी मांगों की शुरुवात की थी। यह साठ बरस पुरानी मांग है। इस आंदोलन में समय समय पर काफी मारकाट मची है, हिंसक और विस्फोटक प्रदर्शन हुए हैं। इसके लिए अलगाववादी जुनून भरे गीत लिखे और गाये गये हैं। तेलंगाना आर्थिक राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ा रहा लेकिन कला साहित्य में आगे रहा है। कला वहीं परवान चढ़ती है जहॉ गरीबी और अराजकता होती है पर समाज को आगे बढ़ाने के लिए सबसे बडी़ निर्णायक शक्ति उसकी आर्थिक योजनाएं होती है, अपनी स्वयं की स्वायत्तता और सत्ता होती है। तेलंगाना ने इसे बहुत पहले जान तो लिया था पर इस सत्ता और शक्ति को अब तक हासिल नहीं कर सका था। इस बार कांग्रेस ने उनकी दशकों पुरानी लम्बित मांग पर अपनी मुहर लगाकर उसके विकास के द्वार खोल दिए हैं।

आंध्र प्रदेश में इसका विरोध तो दिख रहा है पर यह विरोध क्या सचमुच आंध्र के जनमानस का विरोध है यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जो स्पष्ट हो पा रहा है वह बड़े उद्योगपतियों का विरोध-सा लग रहा है। हैदराबाद के तेलंगाना में चले जाने से जिन बड़े उद्योगपतियों का करोड़ों अरबों का निवेश यानी इनवेस्टमेंट है उसके प्रति उद्योग घरानों में असुरक्षा की भावना है कि कहीं तेलंगाना में उनका यह निवेश डूब न जाय।

दूसरी बात हैदराबाद शहर की अपनी विशेषताएं हैं। यह देश के चार मेट्रो टाउन के बाद आने वाला पॉचवां शहर तो बहुत पहले से था ही, साथ ही चंद्रबाबू नायडू के मुख्य मंत्रित्व काल में यह देश का सबसे बड़ा साइबर सीटी बन गया था। इसकी महा नगर पालिका को देश की सर्वश्रेष्ठ नगर पालिका हो जाने का श्रेय मिल गया था। रामोजी राव फिल्म-सीटी के खुल जाने के बाद यह दक्षिण भारत का सबसे बड़ा फिल्म सीटी भी हो चुका है। यह ऐतिहासिक महत्व का एक खूबसूरत नगर है। आंघ्र इस पर जितना गौरव करता था उससे ज्यादा यह उस राज्य को रोजगार देने वाला शहर हो गया था। उल्लेखनीय है कि यह शहर दक्षिण में होते हुए भी उत्तर के समान प्रभाव छोड़ता है और मुख्य धारा में शामिल होता हुआ भारत के उत्तर दक्षिण के बीच सेतु का काम करने वाला महानगर है। आंध्र वासियों को इस महानगर के अपने हाथ से निकल जाने का मलाल हो सकता है।

केंद्र सरकार ने यद्यपि यह व्यवस्था दी है कि हैदराबाद आंध्र और तेलंगाना दोनों के लिए दस वर्षों तक संयुक्त राजधानी रहेगी। तेलंगाना के नेताओं ने भी इस निर्णय का उतना विरोध नहीं किया है और राजधानी के मामले में आंध्र के साथ चलने की बात की है।

तेलंगाना वासी अपनी साठ बरस पुरानी लम्बित मांग को पूरा न होते देखकर दुख और अवसाद से भर गए थे और उनकी रचनात्मकता दिषाहीन हो चली थी जो नासूर बनकर उभरी तो नक्सलवाद के रुप में उभर का सामने आयी। पिछले तीन दशकों से आंध्र-तेलंगाना का यह नक्सलवादी रुप एक देश व्यापी समस्या के रुप में भयानक और विस्फोटक हो चुका है। जिसका घनघोर बुरा प्रभाव उनके पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ, महाराष्ट्र और उड़ीसा में पडा है, बल्कि कहा जा सकता है इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव को सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ को भुगतना पड़ा है जहॉ नक्सल हिंसा का तांडव जब कभी भी देखा जा सकता है। अगर तेलंगाना पहले ही राज्य बन गया होता तो छत्तीसगढ़ और अन्य राज्य नक्सलवादी हिंसा से होने वाली विकराल दुर्दशा भी बच गए होते। केंद्र सरकार ने भले ही आने वाले चुनावों के हिसाब से अपने हानि लाभ का गणित बिठाया है पर हम उम्मीद करें कि तेलंगाना के स्वतंत्र राज्य का दर्जा पा लेने के बाद वह विकास और समृद्धि की ओर वैसे ही बढेगा जैसे उसका पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ बढ़ रहा है। तुलनात्मक रुप से छोटे हो रहे आंध्र प्रदेश में रायल सीमा और सीमान्त आंध्रा को मिलाकर तब एक नई राजधानी का और निर्माण कर अपने विकास का रास्ता खोल सकेंगे। आखिरकार राज्यों को छोटा वहॉं प्रशासनिक पहुंच को आसान बनाकर उनके सुगठित विकास के लिए ही तो किया जाता है।

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20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे पवन दीवान की वह कविता याद आ रही है - " अब छत्तीसगढ बन जाएगा तैलंगाना ।" मामाला अटक गया है ।

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  2. विभाजन के पहले सबकी सहमति देख ली होती।

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