सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्में - विनोद साव

इन दिनों छत्तीसगढ़ी फिल्मों में प्रेम (मया) की बहार है। ये वही बहार है जो हिन्दी फिल्मों में बीते दिनों की बात हो गई है। सुबुक सुबुक वाली बहार। ग्लीसरीनी ऑंसू से भरे नायक नायिकाओं की ऑंखों का सुबुक सुबुक मया। जिसमें कोई कृष्ण कन्हैया जैसा नायक होता था, जो नालायक आवारा किसम का प्रेमी होता था और मैं हूँ गँवार मुझे सबसे है प्यारजैसा गीत गाते हुए खेत खलिहानों में घूमा करता था किसी शहरी छम्मक छल्लो के इन्तजार में। बाद में विरह के गीत गाकर और फिर खलनायक के साथ पहलवानी दिखाकर मामला सलटा देता था। आजकल छत्तीसगढ़ी फिल्मों में इस तरह का मया पलपला रहा है। अगर 1962 के बाद बनी एक दो छत्तीसगढ़ी फिल्मों को छोड़ दें तो सही मायने में छत्तीसगढ़ी भाषा में फिल्में नये राज्य के गठन के बाद बनकर आयी हैं - बॉक्स आफिस हिट मसालों से भरी हुई रंगीन और झकाझक फिल्में। इस तरह की शुरुवात करने का श्रेय सतीश जैन ले गए हैं जो कभी बॉलीवुड में अपनी किस्मत अजमा चुके है और वहॉं से ढेर सारा अनुभव बटोर कर अब छॉलीवुड में फिल्में बनाने में पिल पड़े हैं। सतीश जैन का यही अनुभव उन्हें छत्तीसगढ़ी फिल्मों के दूसरे निर्माता-निर्देशकों से अलग करता है और उनकी बनाई सभी फिल्मों को धॉंसू हिट करता हैं।
छत्तीसगढ़ी की ज्यादतर फिल्मों में प्यार-मोहब्बत और ढिशूंग ढिशूंग के वही पुराने नुसखे हैं जो बम्बई और मद्रास की फिल्मों में दशकों पहले थोक भाव में दिखा करते थे। दरअसल छत्तीसगढ़ी फिल्में इतनी देर से बननी शुरु हुई हैं कि उन लटकों झटकों को फिल्माने का मौका इनके निर्देशकों को अब मिल रहा है जो उनके मानस पटल में लम्बित पडे़ हुए थे। पुरानी हिन्दी  फिल्मों के देशी लटके झटकों को छत्तीसगढ़ी फिल्मों में कई कई बार फिल्माकर जब वे संतृप्त हो जाएंगे तब वे दोहराव के इस दमघोंटू पन से बाहर निकल पावेंगे। फिलहाल सफल फिल्में देने वालों में जो नाम उभर कर आए हैं उनमें सतीश जैन और प्रेम चन्द्राकर जैसे लोग हैं। इन दोनों की कुछ दिनों पहले दो फिल्में - ‘टूरा रिक्शा वालाऔर मया दे मयारुकी धूम थी।
सतीश जैन अपने समकालीन निर्देशकों से भिन्न प्रभाव छोड़ते हैं। चूंकि वे भी छत्तीसगढ़ के हैं इसलिए छत्तीसगढ़ के देश, काल और परिस्थिति का ज्ञान तो उन्हें है ही पर वे मुम्बई से विशेषज्ञता हासिल कर आने वाले फिलहाल अकेले निर्देशक लग़ते हैं। यह विशेषज्ञता 1962 में मनु नायक ने भी हासिल की थी पर वे पहली फिल्म कहि देबे सन्देशबनाने के बाद छत्तीसगढ़ लौटकर लगातार फिल्में बनाने का जोखिम नहीं उठा सके हैं।
सतीश जैन के पास कैमरे से बखूबी काम ले लेने और स्पेशल इफेक्ट्स दे पाने के सारे गुर हैं। उनका संगीत संयोजन भी आधुनिक किसम का है यह अपनी पहली फिल्‍म छइया भूइयां’’ में वे साबित कर चुके हैं जिसमें टूरा आइसक्रीम खाके फरार होगे रेऔर बम्बई के टूरी रेजैसे गाने थे जिसका आर्केंस्ट्रा सुनकर लोग मचल उठते थे। आंचलिक बोली के गीतों के लिए यह एक नया प्रयोग था। आइसक्रीम वाले गाने और नृत्य को उन्होंने सिविक सेन्टर भिलाई के मशहूर आइसक्रीम पार्लर के सामने फिल्माया था। वे अपनी फिल्मों के फिल्मांकन में लोकेशन के प्रति बड़े सतर्क दिखते हैं। वे गांवों के साथ शहरों का पिक्चराइजेशन खूब करते हैं जिनमें ज्यादातर लोकेशन वे रायपुर और भिलाई के लेते हैं। इन शहरों के भव्य कालोनियों, होटलों और चौराहों को वे बखूबी फिल्मा लेते हैं। सड़कों चौराहों की भीड़ और उनके व्यस्ततम क्षेत्र में भी शूटिंग कर दिखाने की हिम्मत वे कर लेते हैं। निर्देशक में छत्तीसगढ़ के आधुनिक विकास को दिखाने की छटपटाहट दिखाई देती है। अपनी नयी फिल्म टूरा रिक्शा वालेकी अधिकांश शूटिंग उन्होंने धमतरी में की है पर रायपुर के आलीशान इलाकों को इस तरह से फिल्माया है कि वे मुम्बई के लोकेशन से जान पड़ते हैं।
उनकी निर्देंशन की प्रतिभा उनकी पिछली फिल्म मयामें खूब दिखाई दी थी जिसमें हर दृश्य (शॉट) का फिल्मांकन उन्होंने लम्बा किया है चाहे वे प्रेम के दृश्य हों या दुखान्त दृश्य हों या कॉमेडी। लगभग हर शॉट को उन्होंने लम्बा निर्देंशित कर कलाकारों से अच्छा अभिनय करवाने का भरसक काम किया है और इसका प्रभाव भी दर्शकों पर अच्छा पड़ा है।  संभवतः यह पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म है जिसके दुख भरे दृश्यों ने दर्शकों को रुलाया है और इसकी कमेडी ने पेट भरकर हॅसाया है। इस तरह के प्रभाव वाले दृश्य हमें जेमिनी और ए.व्ही.एम.प्रोडक्शन की मद्रासी फार्मूला फिल्मों में कभी दिखलाई देते थे। 
भरपूर मसाला फिल्में होने के बाद भी सतीश जैन की निर्देंशकीय दृष्टि साफ उभर कर आती है। उनकी कहानियों में सन्देश स्पष्ट होते हैं जैसे झन भूलो मॉं बाप ला’, उनकी फिल्मों में पुलिस अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट नजर आती है और ईमानदार पुलिस अधिकारी अपनी छाप छोड़ते हैं। यह टूरा रिक्शा वाले मेंदिखाई देता है। प्रेम चन्द्राकर की मया दे दे मयारु मेंभी पुलिस की ऐसी ही ईमानदार छवि उभर कर सामने आती है। संभव है इस तरह के प्रयासों से अपना घर बार छोड़कर दिन रात मरने खपने वाले पुलिस के सिपाहियों को मनोबल बढ़े।
कहा जा सकता है कि सतीश जैन फिल्मी दुनियॉं में हो रहे नये पन के करीब हैं और भविष्य में वे उसी तरह की कोशिशें कर सकते हैं जो आज आमिर खान अपनी फिल्मों को प्रमोट करने के लिए कर रहे हैं यह किसी भी फिल्म को हिट बनाने के लिए एक स्वाभाविक मांग होती है।
विनोद साव
संपर्क: 9407984014

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में सहायक प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं।

ऐंटरटेन रिव्यू : माटी की सौंधी महक मितान-420

त्तीसगढ़ी फिल्मों में परंपरा और संस्कृति को लेकर बुद्धिजीवी हमेशा सवाल उठाते रहे हैं। खासकर पत्रकार तो हर कांफ्रेंस में संस्कृति-परंपरावाला एक प्रश्न दागकर डायरेक्टर का कान ऐंठ ही देते हैं। डायरेक्टर भी कहां कम हैं। ऐसे आलोचनात्मक सवालों से बचने के लिए वे फुगड़ी, गिल्ली-डंडा दिखा देते हैं, करमा नाच दिखा देते हैं, इससे ज्यादा हुआ तो एकाध जसगीत भी डाल देते हैं। इस प्रयोग के पीछे डायरेक्टर की पहली मंशा सिर्फ इतनी होती है कि संस्कृति-परंपरावाले सवालों का जवाब दिया जा सके, और दूसरी मंशा ऐसे चीजों को पसंद करने वाले थोड़े-बहुत लोग उनकी फिल्म को देखने आएं। समझने की बात यह है कि फिल्मों में परंपरा और संस्कृतिका सवाल इसलिए नहीं है कि आप उसे फिल्म में दिखाकर समाज पर अहसान कर रहे हैं। सवाल इसलिए है कि आप कोई ऐसा चीज तो नहीं दिखाने जा रहे हैं, जो हमारी इस शालीन और सभ्य परंपरा के विपरीत हो।
दरअसल, अब तक छत्तीसगढ़ी के ज्यादातर डायरेक्टर यही करते आए हैं कि संस्कृति-परंपराचिल्लाने वाले लोग जो कहते हैं, वो फिल्म में रंच भर डाल दें, उसके आगे अपनी मनमाफिक चीजें दिखा दें। कई फिल्में हाल ही में आर्इं, जिनमें करमा, ददरिया, सुवा और जसगीत शामिल किए गए और इन्हीं फिल्मों ने अपने मनमाफिक गीत भी सुनाए। मसलन, खटिया मं आना, कर ले मया खचाखच, आज कुरिया मं दुनो झन, खटिया मं रच-रच, कइसे गड़ियाबे मया के डंडा..वगैरह..। डायरेक्टरों की एक सोच है कि युवा वर्ग को रोमांचित करना है, फिल्मों की ओर खिंचना है, तो उनके लिए ऐसे ही भड़कीले आयटम जरूरी हैं। इसीलिए वे उनका इस्तेमाल करते हैं। न केवल गानों में बल्कि स्टोरी में भी ऐसा ट्विस्ट देने की कोशिश की जा रही है।
याद होगा, ‘ये मुझे क्या हुआ, जो तुने छु लिया..और दईया रे दईया रे डस गयो पापी बिछुवा..ये कुछ पुराने जमाने के गाने हैं। नायक-नायिका के प्रेम-क्रिया का चित्रण उन गानों में भी है, लेकिन शब्दों में शालीनता और संगीत में मधुरता की ऐसी मिलावट है कि सुनने में अश्लील नहीं लगते। वक्त के साथ प्रेम-प्रसंग को व्यक्त करने वाले गानों का स्टाईल भी बदल गया। चोली के पीछे क्या है.., बीड़ी जलइले.., खल्लास, चलती क्या खंडाला..भीगे होंठ तेरे..शीला की जवानी..तेरी जवानी बड़ी मस्त..जैसी गीतों ने उनकी जगह ले ली। बदले जमाने में मधुरता की जगह उत्तेजना ने ले ली। शालीनता की जगह अश्लीलता ने ले ली। सेंसर बोर्ड के लिए अश्लीलता की परिभाषा कुछ भी हो, लेकिन एक लाइन की नैतिक परिभाषा यही है कि जिस चीज को अपनी मां-बहन के साथ देखने-सुनने अथवा शेयर करने में हमें हिचक होती है, वह अश्लील है। सेंसर बोर्ड के मापदंडों पर ज्यादा बहस की गुंजाइश इसलिए भी नहीं है, कि वह इस देश के दर्शकों के लिए लव, सेक्स और धोख, मर्डर, रेस, एक छोटी सी लव स्टोरी जैसी सैकड़ों फिल्मों पर अपनी मंजूरी की मुहर लगा सकती है, लेकिन हम जिस छत्तीसगढ़ के निवासी हैं, उसके संस्कृति और परंपरा की रक्षा सेंसर बोर्ड से दीगर यहां के डायरेक्टरों की भी जिम्मेदारी है। एक फिल्मी समारोह में हरिभूमिके प्रबंध संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने कहा था कि छत्तीसगढ़ को छत्तीसगढ़ बनाने में छत्तीसगढ़ी फिल्मों की भी अहम भूमिका है। छत्तीसगढ़ फिल्मों के कर्ता-धर्ताओं को इस बात का खयाल रखना है कि छत्तीसगढ़ के दर्शक वही देखेंगे, जो वे दिखाएंगे। हाल ही में रिलीज मितान-420’ ने इस मायने में अच्छी पहल की है। साल की शुरुआती माह में आई इस फिल्म ने जहां कहानी में छत्तीसगढ़ की ठेठ संस्कृति को दिखाया है, वहीं गीतों में कमाल कर दिया है। बिना किसी अश्लील भाषा प्रयोग किए, रोचक शब्द और सुमधुर संगीत का उपयोग है। निर्देशक उत्तम तिवारी की यह पहल संस्कृति और परंपरा के मायने में सचमुच अनुकरणीय है, जिसने स्टोरी और संगीत दोनों के लिहाज से माटी की सौंधी महक दर्शकों को परोसा है।
विनोद डोंगरे

भाई विनोद डोंगरे छत्‍तीसगढ़ी कला-संस्‍कृति समीक्षा के उभरते हुए हस्‍ताक्षर हैं. वर्तमान में वे दैनिक हरिभूमि रायपुर में कार्यरत हैं, उनका ब्‍लॉग है : छत्‍तीसगढ़ पोस्‍ट

राजधानी में पारम्‍परिक नाचा के दीवाने

पिछले दिनों रायपुर के एक प्रेस से पत्रकार मित्र का फोन आया कि संस्‍कृति विभाग द्वारा राजधानी में पहले व तीसरे रविवार को मुख्‍यमंत्री निवास के बाजू में नाचा - गम्‍मत का एक घंटे का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है इस पर आपकी राय क्‍या है तो मैंने छूटते ही कहा था कि छत्‍तीसगढ़ की पारम्‍परिक विधा नाचा रात से आरंभ होकर सुबह 'पंगपंगात' ले चलने वाला आयोजन है जिसमें एक-एक गम्‍मत एक-दो घंटे का होता है, आगाज व जोक्‍कड़ों का हास्‍य प्रदर्शन, जनउला गीत ही लगभग एक-डेढ़ घंटे का होता है तब कहीं जाकर सिर में लोटा 'बोहे' परी दर्शकों के पीछे से गाना गाते प्रकट होती है 'कोने जंगल कोने झाड़ी हो ......' इसके बाद प्रहसन रूप में शिक्षाप्रद कथाओं का गम्‍मतिहा नाट्य मंचन होता है। ऐसे में विभाग के द्वारा इतने सीमित समय में इस आयोजन को समेटने से इसका मूल स्‍वरूप खो सा जायेगा। बात आई-गई हो गई।

ज राजधानी के आनलाईन समाचार पत्रों के पिछले पन्‍ने पलटते हुए इस कार्यक्रम का समाचार नजर आया तो रायपुर में मित्रों को फोन मिलाया और सिंहावलोकन वाले राहुल सिंह जी से इस सफल आयोजन के संबंध में विस्‍तृत जानकारी व फोटो मांग लाया। मित्रों व राहुल सिंह जी से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार रायपुर के नागरी परिवेश में छत्तीसगढ़ की यह संस्कृति जब मंच पर उतरी तो लोग अभिभूत होकर देखते ही रह गए। साज-सज्जा से कोसो दूर होने के बावजूद यह कार्यक्रम जैसे ही शुरू हुआ, लोगों की भीड़ जुटने लगी। इसमें प्रदेश के कलाकारों द्वारा छत्तीसगढ़ की मूल सांस्कृतिक धरोहर नाचा को बेहतरीन तरीके से मंच पर प्रस्तुत किया गया।

शुरुआत लोक गायिका किरण शर्मा द्वारा गणपति वंदना तै मूसुवा में चढ़ के आजा गणपति से हुई। इसके बाद एक से बढ़कर एक लोकगीतों की प्रस्तुतियों ने दर्शकों को बांधे रखा। भरथरी, देवार, नाचा व कर्मा गीतों की प्रस्तुतियों ने लोगों को अपनी माटी की खुशबू को करीब से जानने का मौका दिया। फिर शुरू हुआ हास्य गम्मत प्रहसन का दौर। इसके मुख्य कलाकार रामलाल निर्मलकर की प्रस्तुति को देखने के लिए लोग बेताब नजर आएँ। ये उन चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने हबीब तनवीर के साथ काम किया है। गड़बड़ गपशप शीर्षक पर आधारित इस गम्मत ने जहाँ दर्शकों का मनोरंजन किया, वहीं सशक्त संदेश भी दिया। इसमें पति-पत्नी के बीच किसी तीसरे व्यक्ति की वजह से कलह मच जाती है, पर बाद में सच्चाई पता होने पर उन्हें बहुत पछतावा होता है। इसमें यही संदेश देने की कोशिश की गई, कभी भी दूसरों की बातों में आकर गलतफहमी का शिकार न होवें। इसे कलाकारों ने न केवल अभिनय के जरिए बल्कि नृत्य व संगीत के साथ प्रस्तुत किया।

र्शकों की उपस्थिति और खासकर बच्‍चों की उत्‍साहपूर्वक सहभागिता ने मानों साबित किया कि टीवी पर ढ़र्रे वाले सतही कार्यक्रम और फूहड़ता को देखना लोगों की मजबूरी है अगर उन्‍हें सहज, सुलभ मनोरंजक सांस्‍कृतिक प्रस्‍तुतियां उपलब्‍ध कराई जाय तो इसकी दर्शक संख्‍या अभी भी कम नहीं. रामलाल, अछोटा, धमतरी पार्टी के साथ, मंदराजी सम्‍मान प्राप्‍त कलाकार मानदास टंडन का गायन व चिकारा वादन, सुश्री किरण शर्मा का लोकगीत गायन व नृत्‍य, लच्‍छी-दुर्योधन की जोड़ी की भी प्रस्‍तुतियां थीं. निरंजन महावर जी और आयुक्‍त संस्‍कृति राजीव श्रीवास्‍तव जी विशेष रूप से उपस्थित रहे. निसार अली ने संयोजन में सहयोग दिया.



त्तीसगढ़ी नाचा को मंच देने और लोगों को इससे रूबरू कराने के उद्देश्य से संस्कृति विभाग और नाचा थियेटर द्वारा हर माह के पहले और तीसरे रविवार को यह कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। अगली प्रस्‍तुति में नाचा के साथ छत्‍तीसगढ़ी संस्‍कृति का आनंद लेने के लिये अभी से तैयार रहें ..

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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