स्वर्गीय लोहिया साहब - रामधारी सिंह 'दिनकर’

डॉक्टर राममनोहर लोहिया से मेरी पहली मुलाकात सन् 1934 या 35 में पटना के सुप्रसिद्घ समाजवादी नेता स्वर्गीय फूलन प्रसाद जी वर्मा के घर पर हुई थी और हम लोगों का परिचय मित्रवर श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने करवाया था। उस समय लोहिया साहब मुझे उद्वेगहीन, सीधे सादे नौजवान के समान लगे थे, क्योकि जितनी देर हम साथ रहे, उहोंने बातें कम और काफी विनम्रता से की थीं। उन दिनों पहली पंक्ति के नेता गांधी जी और जवाहरलाल, राजेन्द्र बाबू और सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस और राजा जी तथा मौलाना आजाद और डॉक्टर अंसारी थे, मगर दूसरी पंक्ति के नेताओं का भी देश में बड़ा नाम था। आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश जी, यूसुफ मेहर अली और अच्युत पटवर्धन, डॉक्टर लोहिया और पं. रामनंदन मिश्र तथा श्री गंगाशरण सिंह और श्री अशोक मेहता, इनमें से प्रत्येक की महिमा तेजस्वी और मेधावी देशसेवक की महिमा थी। आचार्य जी तो उम्र के लिहाज से दोनों पीढिय़ों के बीच की कड़ी के समान थे, मगर नवयुवकों के विचारदाता वे ही थे और हर समय साथ वे नवयुवक समाजवादियों का ही देते थे। लगभग यही भूमिका डॉक्टर सम्पूर्णानंद जी की भी थी। वे भारतीय संस्कृति के पूर्णता होने पर भी समर्थन समाजवाद का करते थे, इससे समाजवादी विचारधारा को बड़ा बल मिलता था। उन दिनों हम लोग विश्वासपूर्वक यह मानते थे कि नेतृत्व का जो बोझ जवाहरलाल जी की पीढ़ी के कंधों से उतरेगा, वह इसी समाजवादी दल के कंधों पर आयेगा। मगर विधि का विधान कुछ और था। यूसुफ मेहर अली तो असमय ही स्वर्गीय हो गये। बाकी जो लोग कायम रहे, उनके भीतर व्यक्तिवाद बहुत अधिक बढ़ गया और वे किसी एक दल के जुए के नीचे अपनी गर्दनें नहीं लगा सके। श्री रामनन्दन मिश्र और श्री अच्युत पटवर्धन को तो आश्रम ने खींच लिया, जयप्रकाश जी सर्वोदय की ओर चले गये और नरेन्द्र देव जी मुख्यत: शिक्षाशास्त्री बन गये। नवयुवकों के इस दल का कोई एक सदस्य अगर आजीवन विस्फोटक बना रहा, तो वे डॉक्टर राममनोहर लोहिया थे।

जिस लोहिया से मेरी मुलाकात सन् 1934 ई. में पटना में हुई थी और जो लोहिया संसद में आये, उन दोनों के बीच भेद था। सन् चौंतीस वाला लोहिया युवक होता हुआ भी विनयी और सुशील था, किन्तु संसद में आने वाले प्रौढ़ लोहिया के भीतर मुझे क्रांन्ति के स्फुलिंग दिखाई देते थे। राजनैतिक जीवन के अनुभवों ने उन्हे कठोर बना दिया था और बुढ़ापे के समीप पहुँचकर वे उग्रवादी बन गये थे। उनका विचार बन गया था कि जवाहरलाल जी से बढ़कर इस देश का अहित और किसी ने नहीं किया है तथा जब तक देश में कांग्रेस का राज है, तब तक देश की हालत बिगड़ती ही जायेगी। अतएव उन्होने अपनी राह बड़ी निर्दयता से तैयार कर ली थी और वह सीधी राह यह थी कि जवाहरलाल जी का जितना ही विरोध किया जाय, वह कम है और कांग्रेस को उखाड़ने के लिए जो भी रास्ते दिखाई पड़ें, उन्हे जरूर आजमाना चाहिए।

स्वराज्य होने पर भी लोहिया जी को कई बार जेल जाना पड़ा। एक बार वे उस जेल में कैद किये गये थे, जिसमें कभी जवाहरलाल जी को काफी दिनों तक कैद रहना पड़ा था। उस जेल में, स्वराज्य के बाद, जवाहरलाल जी की एक मूर्ति स्थापित की गयी थी। जेल से छूटने पर लोहिया जी के मित्रो ने उनसे पूछा, ''कहिए, इस बार का कारावास कैसा रहा?” लोहिया जी ने कहा, ''कुछ मत पूछो! मैं जिस कोठरी में कैद था, उसी के सामने जवाहरलाल जी की मूर्ति खड़ी थी और हर वक्त मेरी नजर उसी मूर्ति पर पड़ जाती थी। जल्दी रिहाई हो गयी, नहीं तो उस मूर्ति को देखते देखते मैं पागल हो जाता।“

वाणी, व्यवहार और कार्यक्रमों में इतनी कठोरता बरतने के बावजूद लोहिया साहब मानते थे कि वे गांधी जी की ही राह पर चल रहे हैं; बल्कि वे मानते थे कि वे गांधी जी के सबसे बड़े अनुयायी हैं। राजनीति की अन्य बातों में उनका यह विश्वास कहाँ तक सही माना जा सकता था, यह विषय चिंत्य है, मगर यह ठीक है कि देश में छाई हुई गरीबी को देखकर उनके हृदय में क्रोध भभकता रहता था और अंग्रेजी को वे एक क्षण भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। जब से लोहिया साहब संसद के सदस्य हुए, संसद में हिन्दी के सबसे बड़े प्रवक्ता भी वे ही हो गये थे। उन्होने संसद में अपने सारे भाषण हिन्दी में दिये और राजनीति की पेचीदा से पेचीदा बातों का उल्लेख उन्होने हिन्दी में ही किया। उनकी विशेषता यह थी कि भारी से भारी विषयों पर भी वे बहुत सरल हिन्दी में बोलते थे। जहाँ तक मुझे याद है, वे सेना और फौज के बदले पलटन कहना ज्यादा पसन्द करते थे। दिल्ली में हिन्दी के विरोधी तरह-तरह के लोग हैं, मगर लोहिया साहब के भाषणो से उन सभी विरोधियों का यह भ्रम दूर हो गया था कि हिन्दी केवल कठिन ही हो सकती है और अंग्रेजी का सहारा लिये बिना हिन्दी में पेचीदा बातों का बखान नहीं किया जा सकता। मेरा ख्याल है, हम सभी हिन्दी प्रेमियों ने संसद में हिन्दी की जितनी सेवा बारह वर्षों में की थी, उतनी सेवा लोहिया साहब ने अपनी सदस्यता के कुछ ही वर्षों में कर दी। टंडन जी के बाद संसद में वे हिन्दी के सबसे बड़े योद्घा थे।

संसद में आते ही विरोधी नेता के रूप में लोहिया साहब ने जो अप्रतिम निर्भीकता दिखायी थी, उसकी बड़ाई खानगी तौर पर कांग्रेसी सदस्य भी करते थे और उस निर्भीकता के कारण लोहिया साहब पर मेरी भी बड़ी गहरी भक्ति थी। सन् 1962 ई. के अक्तूबर में, चीनी आक्रमण से पूर्व, मैंने 'एनार्की’ नामक जो व्यंग्य काव्य लिखा था, उसमें ये पंक्तियाँ आती हैं- 'तब कहो लोहिया महान है, एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है।‘ ये दो पंक्तियाँ लोहिया साहब को बहुत पसन्द थीं, गरचे कभी कभी वे पूछते थे कि ये पंक्तियाँ कहीं तुमने व्यंग्य में तो नहीं लिखी हैं। मैं कहता, ''वैसे तो पूरी कविता ही व्यंग्य की कविता है, मगर व्यंग्य होने पर भी आपके 'सीना तानने’ की तो बड़ाई ही होती है।“ एक दिन मजाक मजाक में उन्होने यह भी कहा था कि ''महाकवि, ये छिटपुट पंक्तियाँ काफी नहीं हैं। तुम्हें मुझ पर कोई वैसी कविता लिखनी चाहिए, जैसी तुमने मेरे दोस्त (जयप्रकाश जी) पर लिखी थी।“ मैंने भी हँसी हँसी में ही जवाब दिया था, ''जिस दिन आप मुझे उस तरह प्रेरित कर देंगे जिस तरह मैं जयप्रकाश जी से प्रेरित हुआ था, उस दिन कविता आपसे आप निकल पड़ेगी।“

लोहिया साहब जितने अच्छे वक्ता थे, उससे अधिक बड़े चिंतक थे, मगर उनकी चिंतन पद्घति का साथ देना अक्सर कठिन होता था, क्योकि उनके तर्क निर्मोही और कराल होते थे। कभी कभी ऐसा भी लगता था कि जिस शत्रु पर वे बाण चला रहे हैं, वह वास्तविक कम, काल्पनिक अधिक है। लोहिया साहब जब आखिरी बार अमरीका गये थे, उन्हे लेखकों ने कुछ किताबें भेंट की थीं। जब वे देश लौटे और मैं उनसे मिलने गया, उन्होने उनमें से दो किताबें मुझे उपहार के तौर पर दीं। उनमें से एक किताब कविता की है और उसकी कवयित्री हैं रूथ स्टीफेन। रूथ स्टीफेन ने यह पुस्तक लोहिया साहब को इस अभिलेख के साथ भेंट की थी-'फॉर राम, हूं रिप्स शेडोज इनटु रैंग्स’। अनुमान होता है कि कवयित्री के साथ लोहिया साहब की जो बातें हुईं, उनसे कवयित्री पर यह प्रभाव पड़ा कि यह आदमी बाल की खाल उधेड़ता है और काल्पनिक छायाओं के चिथड़े उड़ा देता है। अमरीका में लोहिया साहब ने एक ऐसा भी बयान दिया था, जिसका मकसद अमरीकी सभ्यता के खोखलेपन पर प्रहार था।

जब से नवीन जी गुजर गये, संसद का केन्द्रीय हाल मेरे लिए सूना हो गया। मगर जब डॉक्टर राममनोहर लोहिया सदस्य बन संसद में आये, मैं सेन्ट्रल हाल की ओर फिर से जाने लगा, क्योकि लोहिया साहब के साथ बातें करने में मुझे ताजगी महसूस होती थी और मजा आता था। वे अक्सर मुझसे पूछते थे, ''यह कैसी बात है कि कविता में तो तुम क्रांतिकारी हो, मगर संसद में कांग्रेस सदस्य?” इसका जो जवाब मैं दिया करता था उसका निचोड़ मेरी 'दिनचर्या’ नामक कविता में दर्ज है-

तब भी मां की कृपा, मित्र अब भी अनेक छाये हैं, 
बड़ी बात तो यह कि 'लोहिया’ संसद में आये हैं। 
मुझे पूछते हैं, ''दिनकर! कविता में जो लिखते हो, 
वह है सत्य या कि वह जो तुम संसद में दिखते हो?” 
मैं कहता हूँ, ''मित्र, सत्य का मैं भी अन्वेषी हूँ, 
सोशलिस्ट ही हूँ, लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हूँ। 
बिल्कुल गलत कम्यून, सही स्वाधीन व्यक्ति का घर है, 
उपयोगी विज्ञान, मगर मालिक सब का ईश्वर है।“ 

इस कविता में एक जगह गरीबी की थोड़ी प्रशंसा सी है-

बेलगाम यदि रहा भोग, निश्चय संहार मचेगा, 
मात्र गरीबी छाप सभ्यता से संसार बचेगा। 

यह बात लोहिया जी को बिल्कुल पसन्द नहीं थी। वे निश्छल आदर्शवादी थे और गरीबी के साथ किसी भी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं थे। ईश्वर का खंडन तो उन्होने मेरे समक्ष कभी नहीं किया, मगर भाग्यवाद या नियतिवाद के वे प्रबल विरोधी थे। बातचीत के प्रसंग में एक दिन मैंने उनसे कहा था कि ''काम और युवा की जिस समस्या से नयी सभ्यता उलझ रही है, उसका ज्ञान प्राचीनों को भी था। जिस मनुष्य के अस्तित्व से समाज का गौरव बढ़ता है, लोगों को ऊँचा उठने की प्रेरणा मिलती है, उसके साधनों के प्रति प्राचीन सभ्यता भी उदार थी। और नहीं तो पंच कन्याएँ पूजनीया कैसे मान ली गयीं?" और अगर क्षुधा की बात लीजिए तो गांधारी ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा था- वासुदेव, जरा कष्टं, कष्टं निर्धन जीवनम् पुत्रशोकं महाकष्टं कष्टातिकष्टं क्षुधा

लोहिया साहब ने उसी समय इस श्लोक को कंठस्थ कर लिया और कई दिन बाद भेंट होने पर उन्होने यह श्लोक मुझे सुनाया, शायद यह बताने को कि श्लोक उन्हे भली भाँति याद है। उनके स्वर्ग गमन से कोई एक मास पूर्व मैंने एक दिन उनसे निवेदन किया था-''आप क्रोध को कम कीजिए, वही अच्छा है। देश आपसे बहुत प्रसन्न है। अब आपको छोटी छोटी बातों को लेकर कटुता नहीं पैदा करनी चाहिए। यह देश बड़ा ही कठिन देश है। कहीं ऐसा न हो कि भार जब आपके कन्धो पर आये, तब आपका अतीत आपकी राह का काँटा बन जाय।" उन्होने उदासी में भर कर कहा, ''तुम क्या समझते हो, उतने दिनों तक मैं जीने वाला हूँ? मेरी आयु बहुत कम है, इसलिए जो बोलता हूँ, उसे बोल लेने दो।" कितने आश्चर्य की बात है कि वे अपने अंत को समीप देख रहे थे।

(रामधारी सिंह 'दिनकर’ जी का यह आलेख श्री कनक तिवारी जी ने इतवारी अखबार के लिये उपलब्ध कराई थी जिसे हमने आपके लिये प्रस्तुत किया इतवारी अखबार से साभार)

8 टिप्‍पणियां:

  1. lohiya ji ki jan shataabdee par tumane lohiya ki saamagree parhane ke liye dee, yah dekh kar achchha laga.isee tarah ki vaicharik saamagree dete rahana. blog ki duniya me gambheerata bhi zaroori hai, varanaa yahaa masakharee vale hi barhate jaa rahe hai.

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  2. इस शानदार पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद....

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  3. आलेख का शीर्षक पढ़कर चिंतित हुआ की संजीव भाई को क्या सूझी जो दिनकर जी पर दांव लगा डाला , अभी कुछ ही दिन पहले ब्लागर्स दिनकर पर बवाल मचाये हुए थे शायद इसीलिये!बाद में तसल्ली हुई की चलो इसे बरास्ता कनक तिवारी जी लाया गया है! बाकी सच ये है की उनपर नुक्ताचीनी की अपनी औकात कहां है :)

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  4. कुछ लोग युगपुरुष होते हैं. दोनों ही थे.बढिया आलेख से रूबरू कराने के लिये धन्यवाद.

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  5. लोहिया जी जैसे महान व्यक्ति पर दिनकर जी की स्पष्ट और निर्भीक टिप्पणी पढ़कर बहुत कुछ नया पता चला। दुर्लभ लेख उपलब्ध कराने के के लिये साधुवाद।

    इस लेख की कड़ी, हिन्दी विकि के 'राममनोहर लोहिया' वाले लेख पर दे रहा हूँ।

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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