छत्तीसगढ़ के लोकजीवन को करीब से देखें तो हम यह पाते हैं कि छत्तीसगढ़ की लोककला और लोक संस्कृति ने वैश्विक प्रसिद्धि पाई है। चाहे वह पंडवानी हो या भरथरी, पंथी हो या नाचा। छत्तीसगढ़ी लोककलाओं के रूप विविध हैं और रंग भी अनेक। लोक का आचार-विचार, सभ्यता-संस्कार, कार्य और व्यवहार लोक कलाओं में प्रतिबिंबित होता है। जीवन का हास-परिहास, पतझर-मधुमास, आश और विश्वास सब लोक संस्कृति में ही मुखरित होते हैं। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन का जो सर्वाधिक लोकप्रिय कलारूप है, वह है लोक नाट्य 'नाचा`।
लोक नाट्य नाचा का जब जिक्र आता है तब शिष्ट लोग भले ही इसे हेय दृष्टि से देखें, लेकिन नाचा तो लोक की निधि है। इसी निधि से अंश लेकर ही शिष्ट अपनी शिष्ट ता का दम्भ भरता है। पता नहीं किसी लोकनाट्य के लोक कलाकारों ने भरत मुनि का नाट्य शास्त्र पढ़ा हो या नहीं, पर यह तो सुनिश्चित है कि नाट्य शास्त्र की रचना के पूर्व भरत मुनि ने लोकनाट्य अवश्य देखा होगा? उससे ही उन्हें प्रेरणा मिली होगी। यह इसलिए कि लोक पहले है और वेद बाद में। शास्त्रीय या अभिजात्य संस्कृति लोक से ही जीवन रस प्राप्त करती है। आज कला में रूचि रखने वाले विद्वान नाचा में शस्त्रीय तत्व की खोज करते हैं, यदि उन्हें नाचा में शास्त्रीय तत्व दिखायी पड़ता है तो वहां नाट्य शास्त्र का प्रभाव बिल्कुल नहीं है। बल्कि वह उसकी नीतजा है। उस अंचल की विशेषता है।
नाचा रात्रि नौ-दस बजे से शुरु होकर सुबह तक चलता है। चार बांसों से बना साधारण मंच, न कोई तामझाम न कोई सजावट बिना परदे का। सब कुछ सहज और सरल ठीक यहां के लोगों के जीवन की तरह। न दम्भ, न दिखावा न कोई प्रपंच न छलावा। जैसा बाहर वैसा ही भीतर यही तो है विशेषता यहां के भोले-भाले लोगों की और नाचा की। अब तो यहां उक्ति ही चल पड़ी है। 'सबले बढ़िया, छत्तीसगढ़िया`।
नाचा के अनेक पक्ष है। अनेक रंग है। नाचा के पूर्व रंग के अंतर्गत साखी परंपरा की चर्चा इस लेख का विषय है। नाचा में स्त्री पक्ष की भूमिका पुरुष द्वारा ही अदा की जाती है। नाचा के पूर्व रंगमंच में नचकारिन (परी) के गीत नृत्य के बाद जोक्कड़ों (गम्मतिहा) का प्रवेश होता है। जोक्कड़ नाचा गम्मत के मेरूदंड हैं। ये जितने कला प्रवीण और दक्ष होंगे वह नाचा मंडली उतनी ही प्रसिद्ध होगी। जोक्कड़ प्रारंभ में नचौडी नृत्य कर साखी व पहेली के माध्याम से नाचा में गम्मत का माहौल तैयार करते हैं। नृत्य गीत में मग्न दर्शक को यह आभास हो जाता है कि अब गम्मत की प्रस्तुति होगी। साखी की परंपरा नाचा में खड़े साज से प्रारंभ होकर आज भी बैठक साज में विद्यमान है। ऐसा भी नहीं है कि साखी की यह परंपरा नाचा में ही है।
छत्तींसगढ़ी गीत गायन में साखी (दोहा) परंपरा हमें फाग गीतों में भी मिलती है। ये साखियां कबीर, तुलसी की साखियों, दोहों से भिन्न नहीं है। कबीर ने मानव मूल्यों की रक्षा के लिए जिन साखियों को रचा। आत्मा परमात्मा के एकाकार के लिए जिन साखियों को गढ़ा। जीवन के आडम्बरों और पाखंडों पर प्रहार के लिए जिन साखियों को अस्त्र के रूप में प्रयुक्त किया। ये सब वही साखियां हैं, वही दोहे। फागगीतों में साखी की एक बानगी-
सराररा सुनले मोर कबीर ...........................
बनबन बाजे बांसुरी, के बनबन नाचे मोर।
बनबन ढूंढे राधिका, कोई देखे नंदकिशेर।।
इस तरह छत्तीसगढ़ी फाग गीतों का गायन साखी के बाद ही प्रारंभ होता है। जहां तक पहेलियों की बात है, वह तो लोकजीवन में मनोरंजन और ज्ञानरंजन का पर्याय है। पहेली को छत्तीसगढ़ी में 'जनौला` कहा जाता है। यही साखियां, यही पहेलियां नाचा में मनोरंजन का द्वार खोलती है और दर्शकों को ज्ञान- विज्ञान और हास परिहास में गोते लगवाती है। नाचा के पूर्व रंग का रंग ही अनोखा और चोखा है। यही है नाचा का वह अछूता पक्ष है जिसकी चर्चा नहीं हो पाती। नाचा के जोक्कड़ गीत-गायन, नृत्यक और संवाद अदायगी में बड़े कुशल होते हैं। वे बात से बात पैदा करने में माहिर होते हैं। कहा भी जाता है-
जईसे केरा के पात पात में पात। तईसे जोक्कड़ के बात बात में बात।।
अर्थात जिस प्रकार केले के पौधे में पत्ते ही पत्ते होते हैं, उसी प्रकार जोक्कड़ की बातों से बातें ही पैदा होती है। चश्मा लगाया हुआ जोक्कड़ कहता है- हां...हां...हां...हां...हां...हां...हां... चार आंखी दू बांहा जी। कैसी अनोखी बात है? आंखे चार है और भुजायें दो। सुनने वाले तो आवाक् और हतप्रभ रह जाते हैं। तब दूसरे ही क्षण वह जोक्कड़ अपना चश्मा निकालकर फिर कहता है- 'चार आंखी दू बांहा जी`। तब दर्शक कठल जाते हैं। जोक्कड़ के वाक् चातुर्य की दाद देते हैं और हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते हैं। देखिये एक जोक्कड़ बात में किस तरह से बात पैदा करता है। वह अपनी व्युत्पन्न मति से बड़े-बड़े विद्वनों की बातों को भी झूठा साबित कर देता है। एक लोकोक्ति है या कहें किसी विद्वान का कथन है कि- 'पानी पियो छान के, गुरु बनाओ जान के।` अर्थात पानी को छानकर पीना चाहिए और गुरु को जान समझकर बनाना चाहिए। सीधी सी बात है लेकिन नाचा का कलाकार दूसरा जोक्कड़ तर्क प्रस्तुत करता है और कहता है- नहीं 'पानी पियो जान के, गुरु बनाओ छान के।` यदि कोई तुम्हारे सामने डबरे का पानी छानकर दे, तो क्या तुम उसे पी लोगे? नहीं। इसलिए पानी को जानकर पियो और गुरु को छानकर अर्थात चुनकर जांच परख कर बनाओ।
नाचा में रात भर में तीन चार गम्मत प्रस्तुत किये जाते हैं। प्रत्येक गम्मत के पूर्व में इस तरह की साखियां और पहेलियां प्रस्तुत करने की परंपरा है। जीवन व जगत से जु़डी हुई ये साखियां और पहेलियां जहां लोगों का मनोरंजन करती है, वहीं उनके ज्ञानार्जन में सहायक सिद्ध होती है। लोक के इस प्रयोजन में लोक की अनुभूति ही अभिव्यक्त होती है। नाचा में प्रयुक्त होने वाली साखियों और पहेलियों को अग्रलिखित रूप में विभाजित किया जा सकता है-. 1. देवी-देवता संबंधी साखियां, 2. नीति संबंधी साखियां, 3. मानवीय, संबंध-संबंधी साखियां, 4. कृषि संस्कृति संबंधी साखियां, 5. पशु-पक्षी, प्रकृति संबंधी साखियां, 6. द्विअर्थी या यौन प्रतीक संबंधी साखियां, 7. अन्य साखियां
क्रमश: ....
डॉ. पीसीलाल यादव
संपर्क: 'साहित्य कुटीर`
गंडई पंडरिया जिला- राजनांदगांव (छ.ग.)
अगले पोस्ट में वर्गीकृत मूल साखियों व भावार्थों के साथ विस्तृत वर्णण
हमर साखी अउ नाचा के आम जन के मनोरजन एव नवा सामाजिक जागरन मा परमुख स्थान हवे। बड़ सुग्घर जनकारी हे- बधई
जवाब देंहटाएंलोक नाट्य और लोक गीतों में भारत की आत्मा बसी है ........ सुन्दर जानकारी है आपके ब्लॉग पर .....
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