विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
केन्द्रीय कानून मंत्री एम.बीरप्पा मोईली की लिखी पुस्तक 'रामायण पेरूथेदलै' का विमोचन करते हुए तमिलनाडु के यशश्वी (?) मुख्यमंत्री एवं पोन्नेर-शंकर के लेखक एम.करूणानिधि नें 'प्राण जाई परू वचनु न जाई' जैसे प्रण लेते हुए कहा कि 'मैं बचपन में ही रामायण का आलोचक था. मैं ऐसा करना जारी रखूंगा.' (I will continue to be critical of Ramayana) उन्हें इस बात का अहसास है कि सत्तारूढ पार्टी उनकी बंदगी 'टेढ जानि सब बंदई काहू' को स्वीकारते हुए करती रहेगी और वे लोगों की भावना रूपी हरे हरे चारे को 'चरई हरित तृन बलि पशु जैसे' चरते हुए राम और रामायण को कोंसते रहेंगें.
तुलसीदास जी नें 'चलई जोंक जल वक्रगति जद्यपि सलिल समान' लिखकर खून चूसने वाले जोंक के लक्षणों को प्रतिपादित कर ही दिया था. आडे तिरछे विचारों से रामायण की आलोचना करने वाले तथाकथित नामवर के बडबोले पन का गोस्वामी जी को आभास था इसीलिये उन्होंनें कहा था 'बातुल भूत विवस मतवारे, ते मोहि बोलहि बचन सम्हारे.' अब तुलसीदास या बाल्मीकि पुन: आकर रामायण में एम. करूणानिधि के कहे अनुसार संशोधन करने से रहे. और करूणानिधि का सोंचना है कि वे केन्द्रीय सरकार के हर दोहा-चौंपाई में अपनी मर्जी से संशोधन करवा सकते हैं तो ये मुआ तुलसीदास या बाल्मीकि कौन खेत की मूली है. सहीं कह रहे हैं करूणानिधि जी आपकी बातें प्रासंगिक है ऐसे समय में जब आपके लोग राम के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते.
बाबा तुलसीदास जी मुझे माफ करें आपने बारंबार कहा है कि 'सठ सन विनय कुटिल सन प्रीति, सहज कृपा सन सुन्दर नीति.' इसके वावजूद भी क्या करूं मन नहीं मान रहा है कलजुगी करूणानिधि से विनयवत व्यवहार कैसे रखूं. (और मैं कांग्रेस भी नहीं हूं) क्योंकि एक जगह आपने ही तो कहा है कि विनय की भाषा जड नहीं जानता 'विनय न मानत जलधि जड, गए तीन दिन बीत'. बहुत ही कन्फूजन है बाबा करूणानिधि की इस बात को शायद 'झूठई लेना, झूठई देना, झूठई भोजन, झूठ चबेना' वालों नें प्रचारित किया है. खैर कुछ भी हो सावन का महीना है और ऐसे समय में रामायण का पाढ व मनन करना चाहिये, इसी बहाने शब्द भंडार बढते हैं जो ब्लागिंग के लिये परम आवश्यक है. इस पर ब्लागरों के विचार और संक्षिप्त टिप्पणियों के लिये यह पोस्ट ठेल कर मैं स्नान करने जा रहा हूं क्योंकि बाबा गोसाई जी नें ही कहा है 'खल परिहरिय स्नान की नाई'.
संजीव तिवारी
कुछ लोग सतत विरोध करने से भी स्वर्ग पायेंगे - रावण पाया था न!
जवाब देंहटाएंसही है!
जवाब देंहटाएंवहाँ इसी से वोट मिलता है।
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