`सापेक्ष' के सपने सच होने लगे हैं (Sapeksh)

संपादक महावीर अग्रवाल से संजीव तिवारी की बातचीत
हिन्दी की साहित्तिक लघु पत्रिकाओं में शीर्षस्थ ‘पहल’ के साथ-साथ साहित्यकारों एवं पाठकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करते हुए ‘सापेक्ष’ नें एक लम्बी‍ यात्रा तय की है, जिसमें अनेक लब्धतप्रतिष्ठित साहित्यकारो पर केन्द्रित अंकों के साथ ही दर्शन, विधा एवं वाद पर केन्द्रित सराहनीय अंक ‘सापेक्ष’ के प्रकाशित हुए हैं । अब तक के प्रकाशित 50 अंकों में से प्रत्ये,क अंक संग्रहणीय हैं । वर्तमान में ‘सापेक्ष’ का पचासवां अंक प्रकाशित हुआ है जो आलोचना एवं आलोचक पर केन्द्रित एतिहासिक व महत्वपूर्ण विशोषांक है, इसमें हिन्दी साहित्य के 50 आलोचकों एवं साहित्यकारों पर सामाग्री संग्रहित है । इसका अवलोकन करने के उपरांत हमने ‘सापेक्ष’ के संपादक श्री महावीर अग्रवाल जी से एक मुलाकात की, मुलाकात के समय हुए संक्षिप्ते चर्चा सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है -

संजीव तिवारी
- किसी भी लघु पत्रिका के 50 अंक छपना एक बड़ी घटना है । सापेक्ष का 50 वां अंक छपकर आया है । आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?
महावीर अग्रवाल - अभी `सापेक्ष' 49 `विज्ञान का दर्शन : फ्रेडरिक एंगेल्स का योगदान` पर राजेश्वर सक्सेना की पुस्तक के रूप में चार माह पहले ही छपकर आया है । हिन्दी में विज्ञान के दर्शन पर इस तरह का यह पहला और अनूठा काम है । सक्सेना जी का कहना है, `विज्ञान का दर्शन एक स्वतंत्र अनुशासन है जो बहुत समृद्ध है । यूरोप और अमेरिका में प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की विरासत को खंगालने का काम रुका नहीं है बल्कि और तेज हुआ है ।' मार्क्सवाद की द्वन्द्ववादी पद्धति पर नाना प्रकार के सवाल उठाए जा रहे हैं । सक्सेना जी ने इन सारी बातों का जवाब पुस्तक में दिया है । यह पुस्तक हमें बताती है कि इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान की नई चुनौतियों को समझने के लिए एंगेल्स के विज्ञान संबंधी विचारों की प्रासंगिकता आज भी कितनी अधिक है ।

संजीव तिवारी - अपनी 25 वर्षों की यात्रा के संबंध में कुछ बताइए ?
महावीर अग्रवाल - लघु पत्रिकाओं की स्थिति और उसके भीतरी बाहरी संघर्ष को पूरा साहित्य समाज जानता है । सापेक्ष का प्रवेशांक 1984 में छपा था । इस तरह 25 वर्षों में यह पचासवाँ अंक छपकर आया है । इसमें हमारे साथी रमाकांत श्रीवास्तव,जीवन यदु, गोरेलाल चंदेल और जमुनाप्रसाद कसार का सहयोग मिलता रहता है । संरक्षक दिनेश जुगरान हमेशा हिम्मत बढ़ाते हैं । साहित्य जगत में हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित इस विशेषांक को व्यापक स्वीकृति मिल रही है । मन में बहुत सुकून है और संतोष का अनुभव कर रहा हूँ । 1987 से 1990 तक सापेक्ष का कोई अंक हम नहीं छाप सके । अवसाद और निराशा के चक्रव्यूह में मैं बार-बार घिरता रहा हूँ । बीच-बीच में भी कई बार दो-दो वर्षों तक पत्रिका छापना संभव नहीं हुआ । घनघोर आर्थिक संकटों से जूझते हुए किसी तरह यह यात्रा जारी रही है । `सापेक्ष' के 50 अंक छप गए, यह बात मुझे पुलक से भर देती है ।

सापेक्ष 50 में संग्रहित आलोचक और आलोचना - 
रामविलास शर्मा, त्रिलोचन, कमलेश्वर रामस्वरुप चतुर्वेदी, विष्णुकांत शास्त्री, बच्चन सिंह, नामवर सिंह, राममूर्ति त्रिपाठी, रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, कुंवर नारायण डा. निर्मला जैन, भवदेव पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय, अशोक बाजपेई परमानंद श्रीवास्तव, धनंजय वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, वीरेन्द्र सिंह, विजेन्द्र नारायण सिंह, नंदकिशोर नवल, राजेश्वर सक्सेना मधुरेश, विजय बहादुर सिंह, प्रभाकर श्रोत्रिय खगेन्द्र ठाकुर, कमला प्रसाद, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमेश दवे, कुंवरपाल सिंह, प्रदीप सक्सेना, शंभुनाथ, विजय कुमार, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल अनामिका, सुधीश पचौरी, अजय तिवारी मदन सोनी, अरविन्द त्रिपाठी, वीरेन्द्र यादव एकांत श्रीवास्तव, कृष्ण मोहन, सियाराम शर्मा प्रणय कृष्ण, सूरज पालीवाल, साधना अग्रवाल देवेन्द्र चौबे, रघुवंश मणी, बजरंग बिहारी तिवारी, बसंत त्रिपाठी, प्रियम अंकित, पंकज पराशर, व्योमेश शुक्ल, महावीर अग्रवाल

संजीव तिवारी - हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित 850 पृष्ठों का यह विशेषांक एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है । इसकी योजना आपने कैसे बनाई ?
महावीर अग्रवाल - दस वर्ष पहले रामविलास शर्मा जी का इन्टरव्यू दिल्ली में उनके घर पर कर रहा था । उन्होंने कहा महावीर जी आप बहुत मेहनत से सापेक्ष निकालते हैं । भविष्य में कभी हिन्दी आलोचना पर भी एक विशेषांक जरूर निकालें । मेरे मन में यह बात पहले ही अंकुरित हो चुकी थी । मुझे उनके कथन से बल मिला और मैं धीरे-धीरे काम करता रहा । विलंब बहुत हुआ, पर अंततोगत्वा आलोचना पर यह अंक छप गया । सुधी आलोचक ऐसा कहते हैं कि `सापेक्ष' अपनी वैचारिक यात्रा में आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है । हिन्दी समाज के नामी गिरामी रचनाकारों के कथन से मुझे बहुत बल मिला है ।

संजीव तिवारी - शमशेर, त्रिलोचन,नागार्जुन के साथ कबीर विशेषांक को आज साहित्य समाज में सदर्भ ग्रंथ की तरह याद किया जात है । और कौन कौन से विशेषांक आपने छापे हैं ?
महावीर अग्रवाल - लोक संस्कृति विशेषांक और व्यंग्य सप्तक : एक और दो को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है । गजल विशेषांक और नाटक विशेषांक के साथ हबीब तनवीर पर केन्द्रित 'सापेक्ष` को भी याद किया जाता है । डा. राजेश्वर सक्सेना की एक 621 पृष्ठों की पुस्तक 'उत्तर आधुनिकता और द्वंद्ववाद` को भी हमने सापेक्ष 48 के रूप में छापा है । सुधी पाठकों ने इस अंक को हाथोंहाथ उठा लिया है ।

संजीव तिवारी - `सापेक्ष' के सामान्य अंक अब नहीं आ रहे हैं । भविष्य में पत्रिका को किस रूप में छापने की योजनाए है ?
महावीर अग्रवाल - कवि, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल पर एक शानदार विशेषांक अपने अंतिम चरण पर है । आगामी विशंषांकों में आलोचक नामवर सिंह और कथाशिल्पी कमलेश्वर के रचना संसार पर छापने की तैयारी में साहित्य समाज का सहयोग निरन्तर मिल रहा है है । विशेषांकों की इस ऋंखला में गीत विशेषांक, पत्र विशेषांक और यात्रा संस्मरण विशेषांक की योजना पर बहुत दूर तक हम काम कर चुके हैं सापंक्ष के बड़े बड़े और महत्वपूर्ण विशेषांक छापने के स्वप्न को साकार करने में लगा हुआ हूँ । धीरे-धीरे ही सही मुझे विश्वास हो चला है कि योजनानुसार आने वाले पांच वर्ष में `सापेक्ष' के सभी प्रस्तावित विशेषांक आपके हाथों में होंगे ।

संजीव तिवारी- कागज के मूल्य लगातार बढ़ रहे हैं । मीडिया के प्रभाव में पाठकों की संख्या में कमी आई है । अपसंस्कृति के इस कठिन दौर में लघु पत्रिकाओं का भविष्य आपको कैसा नजर आता है ?
महावीर अग्रवाल - इक्कीसवीं सदी में लघु पत्रिकाएँ अधिक संख्या में निकल रही हैं । गुणवत्ता और छपाई की दृष्टि  से भी पत्रिकाओं नें बहुत विकास किया है । पिछले 10 वर्षों में कम से कम 20 नई पत्रिकाएँ निकल चुकी हैं । इनमें से चार-पांच लघु पत्रिका ने अपनी महत्ता और उपयोगिता लगातार सिद्ध की है । `सापेक्ष' के 50 अंकों की इस यात्रा ने मेरे विश्वास को सुदृढ किया है । कठिनाई और समस्याएँ तो लघु पत्रिकाओं के सामने पहाड़ जैसी हैं । इनसे लगातार टकराना और जूझना तो हमारी नियति है । मैं पहले भी कहता रहा हूँ , 'यह लड़ाई है दिए और तूफान की '।

सापेक्ष के उपलब्‍ध अंकों के संबंध में जानकारी यहां से प्राप्‍त की जा सकती है - सापेक्ष 
संजीव तिवारी

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगा. पचासवां अंक आना सचमुच प्रशंसनीय है.

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  2. sapeksha laghu patrika ke 50 ve ank ka aana sachmuch hindi sahitya jagat ke liye ek uplabdhi hai. electronik media ke varchawa ke bich bhi apna vajud banaye huwe sahitya ki sewa me 25 warson se rat "sapeksh" ke swarn jayanti ank ke prakashan par shubhkanayen aur itani achchi sakshatkar ke liye sanjeev tiwari ji ko dhanyawad.

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  3. sanjeev bhai, sachmuch mein aapne us mahaveer agrawal ji ko samne le aaye jo kabhi pure chhattisgarh mein rachnakaron ke liye vardan the, unki rachnaon ko prakashit kar pratishthit karte the..ek lambe samay ke bad unse sakshtkar padkar bahut achchha laga, makar sankranti ki ese uplabdhi mana ja sakta hai, aap dhanyawad ke patra hain.
    prof. ashwini kesharwani

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  4. sarvapratham aapko dhanyavaad ki aapne meri kavita par apne ashirwad se mujhe kritarth kiya. aapki kavitayen padhi bahut hi achhi lagi. in shabdo mai kisi bhi galti ke liye mai aapse hath jod kar xma prarthi hoon. raman

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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