पिछले दिनों से छत्तीसगढ में नक्सलवाद बनाम सलवा जुडूम या मानवाधिकर का हो हल्ला अंतरजाल संसार में छाया हुआ है । लगातार किसी न किसी ब्लाग में सनसनीखेज आलेख प्रकाशित हो रहे हैं । इस कलम घिसाई में पत्रकारों, ब्लागरों, समाज सेवकों, चिंतकों के साथ ही हमारे पुलिस प्रमुख भी पहले से ही रंग चुके कैनवास में अपनी कलम की स्याही उडेल रहे हैं । पहले दैनिक छत्तीसगढ में फिर हरिभूमि में और अब ब्लाग पर । लेखन चालू आहे । पर परिणाम सिफर है, मानवाधिकारवादी, गांधीवादी, छत्तीसगढ के तथाकथित हितचिंतक सभी कलम घिस रहे हैं इसलिये कि, छत्तीसगढ में लेखन के द्वारा जनजागरण होगा और नक्सली अपना हथियार नमक के दरोगा के पास डालकर आत्मसर्मपण करेंगें और पुलिस मानवाधिकार की रक्षा में प्रतिबद्ध होकर अपराधियों के चूमा चांटी लेगी । ‘लिखते रहो, लिखते रहो’ कई ब्लागर्स मित्र ब्लाग में बडी मेहनत से तैयार की गई व पब्लिश की गई पोस्टों पर ऐसी ही टिप्पणी देते हैं ।
पिछले दिनों दिल्ली के एक पत्रकार नें तो गजब ढा दिया वो इसलिये क्योंकि छत्तीसगढ के लोग कहते हैं कि अन्य प्रान्त से छत्तीसगढ की दशा देखने व लिखने की मंशा लेकर जब कोई यहां आता है तो उसे हवाई अड्डे या रेलवे स्टेशन में या बाहर में ही एक चश्मा पहना दिया जाता है जिसमें सिर्फ मानवाधिकार हनन की तस्वीरें ही दिखती हैं ऐसे में बेचारा लेखक सिर्फ एक पहलू को ही लिख पाता है दूसरी पहलू को चूंकि वह देख नहीं पाता इस कारण लिख भी नहीं पाता । कमोबेश सभी शांति के चिंतक का तो यही मानना है । तो दिल्ली से आये उस पत्रकार नें वह चश्मा अपने जेब में ही रखा उसे पहना नहीं और चल पडे बस्तर की ओर, लिखा और कर दिया विष्फोट । यही तो गजब था बहुत दिनों बाद कुछ अटपटा सा लिखा गया । इस लेख में बडे बडे चिंतकों नें टिप्पणियां ठेली । मानवाधिकार विचारधारा के संवाहकों पर प्रश्नचिन्ह लगाये गये और विचारधारा के वाहकों को माल वाहक कह कर फुलझडी भी दागी गई ।
इतने बडे संवेदनशील मसले को आप इतने हल्के फुल्के ढंग से ले रहे हैं यह ठीक नहीं है । अंधेरे कोने में धडकता हुआ मेरा दिल कहता है पर दिमाग प्रश्न करता है कि लेखनजगत व ब्लागजगत में हो रहे इस हो-हल्ले से क्या छत्तीसगढ में कुछ चमत्कार होने वाला है ? मानवाधिकारवादी रिहा होने वाले हैं, सलवा जुडूम बंद होने वाला है या नक्सलवाद पर नकेल कसा जाने वाला है ? यह सब अभी तो सिर्फ दिवा स्पप्न है, नक्सलवाद पर नकेल ना तो कसी जायेगी ना ही राजनैतिक ताकतें इसे कसने देंगी । इस समस्या का मूल आरंभ में शोषण के खिलाफ यद्धपि रहा है किन्तु अब यह सत्ता और वर्चस्व की लडाई है । इसमें सबसे ज्यादा पिस रही है पुलिस और आम जनता । जिन्हें इसके लिये चिंतित होना चाहिए वे इन दिनों चुनावी तैयारियों एवं राजनैतिक समीकरण बैठाने में मशगूल हैं । बयानबाजी और लेखों के द्वारा जिन्हें जनता से रूबरू होना चाहिये वे तो एसी चलाकर कंबल ओढे सो रहे हैं ।
अपने दायित्व को समझते हुए वैचारिक क्रांति एवं विमर्श का सूत्र लिए हमारे पुलिस प्रमुख इस प्रमेय का हल ढूढ रहे हैं जो स्वयं भारत के गुप्तचर विभाग के उप प्रमुख रहे हैं । जिन्हें भारत के उग्रवादी आंदोलनों का सब गुणा भाग ज्ञात है फिर भी सत्य के वैचारिक सूत्र का प्रयोग कर रहे हैं । हम बरसों से देख रहे हैं सुरक्षा बलों के भूतपूर्व कर्णधारों की आत्मकथाओं में हम पढते ही रहे हैं कि सुरक्षा बलों के इन दमदार व जांबाज कर्णणारों का सार्मथ्य, छिनाल राजनीति सुन्दरी के कारण ही पस्त हो जाते हैं । यदि सत्ताधीशों में संकल्पशक्ति का अभाव हो तो यह दुर्दशा तो होना ही है क्योंकि आंतरिक अशांति पर नियंत्रण के सभी प्रयास थोथे और दिखावटी हैं । एक से एक नजर आ रहे रहत्योद्घाटन व बिगडती स्थितियां कहती है कि छत्तीसगढ अभी प्रसव पीडा में है जो बरसों तक खिचने वाली है । पर राजनीति किसी दाई या डाक्टर का सलाह नहीं लेगी ।
बस्तर मे सामानांतर सरकार चलाने वाले नक्सली अब छ्त्तीसगढ के लिये एक विकराल समस्या बन कर सामने आये है और इस अग्नी मे आदिवासी और पुलीस के जवान आहुती बनते जा रहे है ॥ अब यदि इस समस्या को सुलझा लिया गया तो यह एक बडी सफ़लता होगी परंतु हर सफ़लता बलिदान मांगती है बडी सफ़लता बडा बलिदान मांगती है इसिलिये इस आजादी के लिये भारत स्वतंत्रता संग्राम ही की तरह फ़िर भोले आदिवासीयो को और छ्त्तीसगढ की जनता को अपना रक्त देना ही पडेगा !! बुलेट चलाने वाले नक्सली शायद कभी बैलेट की ताकत पर भरोसा कर मुख्यधारा मे लौट आयेंगे यह मुझे संभव नही दिखता ॥
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