परशुराम जयंती के बहाने : हाय ब्राह्मण, हलो ब्राह्मण ......

भारत में ब्राह्मणों पर बढती राजनीति उत्‍तर प्रदेश के बाद अब छत्‍तीसगढ में भी पांव पसारती दिख रही है । अभी विगत दिनों परसुराम जयंती के अवसर पर छत्‍तीसगढ के बेमेतरा नगर में प्रदेश स्‍तरीय सर्व ब्राह्मण सम्‍मेलन का आयोजन किया गया था जो पूर्ण रूप से राजनैतिक था यद्यपि यह कहा गया कि यह गैर राजनैतिक आयोजन है । इस आयोजन के बडे बडे विज्ञापन समाचार पत्रों में छपवाये गये, परसुराम के सामने नतमस्‍तक मंत्रियों के विशाल होर्डिंग राजधानी के चौंक चौराहों में लगवाये गये । ब्राह्मणों का एक वर्ग इसे बहुत उत्‍साह के साथ कार्यक्रम के पहले एवं बाद में बयानों के माध्‍यम से प्रस्‍तुत करते रहे । इस कार्यक्रम में भाजपा के केन्‍द्रीय नेता, मुख्‍य मंत्री सहित प्रदेश के अनेक मंत्रियों की ‘गरिमामय’ उपस्थिति थी । सभी नें समवेत स्‍वर में ब्राह्मणों के कार्यों एवं ब्राह्मणत्‍व पर बडे बडे दर्शन प्रस्‍तुत किये एवं ब्राह्मणों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रस्‍तुत करते हुए मंच में बिछ बिछ गए

यह देख सुन कर ब्राह्मणों का खोया हुआ स्‍वाभिमान कितना जागा यह तो मैं नहीं कह सकता किन्‍तु यदि छत्‍तीसगढ के ब्राह्मण इसे महज चुनाव पूर्व राजनैतिक स्‍टंट समझ कर ध्‍यान न दें तो ज्‍यादा अच्‍छा । नहीं तो इस खुशफहमी को दर्प में तब्‍दील होने में समय नहीं लगेगा । चंद ब्राह्मणों के इसी दर्प एवं दमन के इतिहास नें उन्‍हें कहीं का ना छोडा है, आचार खंडित हुए हैं और विचार पददलित हो गए है जिसके कारण समूचा ब्राह्मण समाज इसका खामियाजा भुगत रहा हैं । पिछले कई वर्षों से छत्‍तीसगढ में ब्राह्मणों के प्रति लोगों के मन में स्‍वाभाविक आदर की भावना के विरूद्ध चारो ओर विरोध के स्‍वर फूट रहे हैं । शासन के द्वारा जब राम के ही अस्तित्‍व को नकारा जा रहा है तब परसुराम के अस्तित्‍व का मान कौन रखेगा ? ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञों के द्वारा, ब्राह्मणों का गुणगान करने के पीछे क्‍या मंशा है यह समझ से परे है ।


छत्‍तीसगढ में उपलब्‍ध शिलालेखों के आधार पर ब्राह्मणों के इतिहास के संबंध में यह स्‍पष्‍ट कहा जा सकता है कि वे सातवीं शताब्दि से सत्रहवीं शताब्दि तक राजाओं के राजसभा में राजपुरोहित एवं सभासद के रूप में अपनी सेवायें देते रहे एवं अपने ज्ञान एवं क्षमता के फलस्‍वरूप गांवों को दान में प्राप्‍त करते रहे हैं । लगभग एक हजार वर्षों से पीढी दर पीढी यहां निवास करते हुए ब्राह्मणों नें छत्‍तीसगढ में भरपूर सम्‍मान के साथ ही यहां की संस्‍कृति को आत्‍मसाध किया है । किन्‍तु कुछ वर्षों से ब्राह्मणों का, यहां के मूल निवासियों एवं अन्‍य भूभागों से पांच सात सौ साल पहले आये अन्‍य जातियों द्वारा विरोध किया जा रहा है, ब्राह्मणों के घर में जन्‍म को अपराध बना दिया गया है । इस विरोध के नेपथ्‍य में क्‍या क्‍या कारण रहे है ? इस संबंध में विमर्श करना किसी नें भी आवश्‍यक नहीं समझा है । केवल जय परशुराम, जय ब्राह्मण देवता कहने, लछ्छेदार भाषण करने मात्र से ब्राह्मणों की अस्मिता वापस नहीं लौट सकती ।


संजीव तिवारी


7 टिप्‍पणियां:

  1. Boss the heading of your post apears in blogvani as saale bamhana. Mind your language. you may be a brahmin who want to be abused but don't abuse others. Shame on people like you who thinks that they are the thekedar of brahmins and they can utter any nonesense.

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  2. तिवारी, नमस्कार। बिलकुल सामयिक और यथार्थ लेख। पर सामाजिक या राजनीतिक रूप से अन्य जातियों के नाम पर भी ऐसे संमेलन हो रहे हैं । इसमें ब्राह्मणों का नहीं कथित समाज सेवकों का निजी स्वार्थ तो होता है। पर अगर सचमुच ब्राह्मण एक मंच पर आ जाएँ तो इससे समाज, देश का भला ही होगा। और ऐसे सम्मेलन होने भी चाहिए क्योंकि हम क्या हैं ,हम अपनी गलतियों को कैसे सुधारे, ऐसी चर्चाएँ होना गलत नहीं है।
    फिर आपके विचार देश हित में है।

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  3. उपाध्याय जी मैंनें अपनी गलती सुधार ली है, मेरे ब्लागर स्क्रिप्ट में समस्या के कारण हेडिंग में अन्यथा शव्द भी आ गये थे एक पेज फंस जाने के कारण माउस कर्सर क्लिक कमांड बिना सुधरे ही पब्लिश पर अपीयर हो गया था । मुझे इसे सुधारने में चार पांच मिनट लग गये और ब्लागवाणी नें इसका फीड तत्काल ले लिया ।

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  4. अरे किस मुद्दे पे माथा खपा रहे हो भैय्या!!

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  5. सोचने वाली बात ये है कि छ्त्तीसगढ अब केवल जाति के आधार पर बट रहा है हर जगह साहु ,यादव ब्रह्मण समाज के सम्मेलन हो रहे है चुनाव नज्दीक है इसिलिये ! जबकी सोचा जाना चाहिये अपनी दुर्बलता दुर करने के लिये ! आज भी ब्राह्मण समाज दहेज,दंभ और ना जाने कितने रोगो से पिडित है इन विषय पर मंथन आवश्यक है

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  6. आपके विचारों से शत प्रतिशत सहमत हूँ बेबाक पोस्ट के लिए आभार

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  7. दरअसल इस तरह के आयोजन केवल ब्रह्मणओ की आतंरिक बचैनी को ही प्रदर्शित करते है इससे ज्यादा इनका कोई और गहरा असर छत्तीसगढ़ के आने वाले चुनावो में नहीं दिखने वाला है. हा इतना ज़रुर है की मायावती के उत्टर प्रदेश प्रयोग के बाद पूरे देश के ब्राम्हण समाज में भी उत्तर प्रदेश की तरह सत्ता में फिर से निर्णायक होने की चाहत जाग गयी है पर छत्तीसगढ़ में समाज के हाथो से निर्णायक चाबी बहुत पहले ही छूट गयी है. और नेता व्यापारी तो उस जगह पर बिछते ही है जहाँ भीड़ और तमाशा होता है. बेमेतरा का आयोजन इसका अपवाद नहीं है.

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