विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
छत्तीसगढ इतिहास के आईने में - 1
कोसल नरेश हैहयवंशी प्रजापालक कल्याण साय मुगल सम्राट जहांगीर के सानिध्य में आठ वर्ष तक अपने राजनीतिज्ञान एवं युद्धकला को परिष्कृत करने के बाद सरयू क्षेत्र से ब्राह्मणों की टोली को साथ लेकर अपनी राजधानी रत्नपुर पहुंचे ।
कोसल की प्रजा आठ वर्ष उपरांत अपने राजा के आगमन से हर्षोल्लास में डूब गई । प्रजा राजा के आगमन की सूचना पाकर निजी संसाधनों से एवं पैदल ही रत्नपुर की ओर दौड पडी । सभी 36 गढ के नरेश भी राजा के स्वागत में रत्नपुर पहुच गए । सभी आंनंदातिरेक में झूम रहे थे, पारंपरिक नृत्य और वाद्यों के मधुर स्वर लहरियों के साथ नाचता जन समुह कल्याण साय का जय जयकार कर रहा था ।
महल के द्वार को प्रजा राजा के दर्शन की आश लिये ताकती रही मन में नजराने की आश भी थी । आठ वर्ष तक राजकाज सम्हालने वाली रानी को पति के प्रेम के समक्ष अपनी प्रजा के प्रति दायित्व का ख्याल किंचित देर से आया, रानी फुलकैना दौड पडी प्रजा की ओर और दोनो हांथ से सोने चांदी के सिक्के प्रजा पर लुटाने लगी ।
कोसल की उर्वरा धरती नें प्रत्येक वर्ष की भंति इस वर्ष भी धान की भरपूर पैदावार हई थी प्रजा के धरों के साथ ही राजखजाने छलक रहे थे । प्रजा को धन की लालसा नहीं थी, उनके लिए तो यह आनंदोत्सव था ।
राजा कल्याणसाय ने प्रजा के इस प्रेम को देखकर सभी 36 गढपतियों को परमान जारी किया कि आगामी वर्षों से पौष शुक्लपूर्णिमा के दिन, अपने राजा के घर वापसी को अक्षुण बनाए रखने के लिए संपूर्ण कोशल में त्यौहार के रूप में मनाया जायेगा ।
कालांतर में यही उत्सव छत्तीसगढ में छेरछेरा पुन्नी के रूप में मनाया जाने लगा एवं नजराना लुटाये जाने की परंपरा के प्रतीक स्वरूप घर के द्वार पर आये नाचते गाते समूह को धान का दान स्वेच्छा से दिया जाने लगा । समय के साथ ही इस परम्परा को बडों के बाद छोटे बच्चों नें सम्हाला ।
पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन धान की मिसाई से निवृत छत्तीसगढ के गांवों में बच्चों की टोली घर घर जाती है और -
छेर छेरा ! माई कोठी के धान ला हेर हेरा !
का संयुक्त स्वर में आवाज लगाती है, प्रत्येक घर से धान का दान दिया जाता है जिसे इकत्रित कर ये बच्चे गांव के सार्वजनिक स्थल पर इस धान को कूट-पीस कर छत्तीसगढ का प्रिय व्यंजन दुधफरा व फरा बनाते हैं और मिल जुल कर खाते हैं एवं नाचते गाते हैं –
चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुडी गुडी
धनी मोर पुन्नी म, फरा नाचे डुआ डुआ
तीर तीर मोटियारी, माझा म डुरी डुरी
चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुडी गुडी !
000 000 000
तारा रे तारा लोहार घर तारा …….
लउहा लउहा बिदा करव, जाबो अपन पारा !
छेर छेरा ! छेर छेरा !
माई कोठी के धान ला हेर हेरा !
(कुछ इतिहासकार जहांगीर के स्थान पर अकबर का उल्लेख करते हैं)
संजीव तिवारी
आदरणीय संजीव भैया,
जवाब देंहटाएंतोर रचना ला पढ़के बचपन के याद आया गीस हे. कैसन मजा आवय छेर-छेरा मा.
जम्मो लईका मन मिलके तुकानी मा हमारेच घर मा छेर-छेरा मगन और बूढी दाई मन हासत हासत माया के मरे तुकानी ला भर देय.
इतिहास के जानकारी तो आज मिलिस हे. मोर मानना रहिस हे के अगहन-पुन्नी तक किसान मन धान के कटाई ला ख़तम कर दारे रातें तेकर बाद ये तिहार ला माने के पाछु ये तिहार ला दान-पुन करे के बार सुरु करे रहीन होही.
शत-शत धन्यवाद,
मनीष
आपके चिठ्ठे को अपने मूल रूप मे देखकर विशेषकर इसकी सक्रियता देखकर जितना खुश मै हूँ उतना शायद ही कोई होगा। नये ब्लागरो के लिये आपका यह चिठ्ठा निश्चित की प्रेरणा स्तम्भ बनेगा।
जवाब देंहटाएंयह फरा कैसे बनता है? खीर जैसा? बताना कभी।
जवाब देंहटाएंखैर, वह छत्तीसगढ़ी व्यन्जनों की साइट नहीं खुल रही थी। अब खुल गयी Internet Explorer में। अत: फरा ही नहीं अन्य व्यंजन भी पता चल गये। :-)
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया जानकारी
जवाब देंहटाएंदीपक भारतदीप
बहुत खूब!! इतिहास को आंकड़ो से परे रखकर कथ्य को अच्छा बुना है आपने।
जवाब देंहटाएंमै खुद छेरछेरा पुन्नी की शुरुआत की मूल कहानी जानना चाह रहा था पिछले कई दिनों से, शुक्रिया।
अच्छी जानकारी । अरे हमे तो लगता था कि फरा हम लोगों की तरफ यानी यू.पी.मे ही खाया और बनाया जाता है।
जवाब देंहटाएंफरा तो कई बार खाया है पर उसकी बनाये जाने का मूल पता नहीं था। अवगत कराने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआप की इस पोस्ट के जरिए छ्त्तीसग्ढ़ को कुछ और जानने का मौका मिला। धन्यवाद, लेकिन ये फ़रा कैसा होता है कैसे बनता है कुछ तो बताते , मीठा है या नमकीन
जवाब देंहटाएंछ ग मे फरा दो प्रकार से बनता है एक दुध से मीठा वाला और दूसरा बीना नमक का
हटाएंगेहूं और चावल आटा दोनों से अलग-अलग बनता हैं
और विस्तार से सम्मानित मान्यवर बताते हुए कृतार्थ करें
छेरछेरा तिहार के इतिहास ला बताय सेति गाड़ा गाड़ा धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंVery nice festival in Chhattisgarh I also I also like this festival
जवाब देंहटाएंVery nice festival in Chhattisgarh I also I also like this festival
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