विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
कंगला मांझी छत्तीसगढ के आदिवासी नेतृत्व के उदीयमान नक्षत्र थे । उनका नाम छत्तीसगढ के सम्माननीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के रूप में लिया जाता है । कंगला मांझी एकमात्र ऐसे नेता थे जो तत्कालीन सी पी एण्ड बरार (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ व महाराष्ट्र) से अंग्रेजों के विरूद्ध लडाई में समाज के असंगठित आदिवासियों को अपने अदभुत संगठन क्षमता से संगठित कर उनके के मन में देश प्रेम का जजबा दिया । बस्तर व अन्य स्थानीय राजगढों, रियासतों के गोंड राजाओं को अंग्रेजों के विरूद्ध खडा किया ।
कंगला मांझी का असली नाम हीरासिंह देव मांझी था । छत्तीसगढ और आदिवासी समाज की विपन्न और अत्यंत कंगाली भरा जीवन देखकर हीरासिंह देव मांझी नें खुद को कंगला घोषित कर दिया । इसलिए वे छत्तीसगढ की आशाओं के केन्द्र में आ गये न केवल आदिवासी समाज उनसे आशा करता था बल्कि पूरा छत्तीसगढ उनकी चमत्कारिक छबि से सम्मोहित था । कंगला मांझी विलक्षण नेता थे ।
कंगला मांझी अपने जवानी के शुरूआती दिनों में सन १९१३ से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुडे एवं एक वर्ष में ही जंगलों से अंग्रेजों द्वारा हो रहे दोहन के विरूद्ध आदिवासियों को खडा कर दिया । १९१४ में बस्तर के अंग्रेज विरोधी गतिविधियों से चिंतित हो अंग्रेज सरकार नें आदिवासियों के आंदोलन को दबाने का प्रयास किया पर कंगला मांझी के अनुरोध पर कांकेर रियासत की तत्कालीन राजमाता नें आदिवासियों का साथ दिया अंग्रेजों को पीछे हटना पडा। कंगला मांझी लगातार जंगलों व बीहडों में अपने लोगों के बीच आदिवासियों को संगठित करने में लगे रहे ।
सन १९१४ में उन्हें अंग्रेजों के द्वारा गिरफतार कर लिया गया । कंगला मांझी के लिए यह गिरफतारी वरदान सबित हुई, इस अवधि में उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई और वे गांधी जी के अहिंसा नीति के भक्त हो गये । १९२० में जेल में गांधी जी से उनकी मुलाकात पुन: हुई और इसी समय बस्तर की रणनीति तय की गयी । महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर कंगला मांझी नें अपने शांति सेना के दम पर आंदोलन चलाया और बस्तर के जंगलों में अंग्रेजों को पांव धरने नही दिया। वे मानते थे कि देश के असल शासक गोंड हैं । वे वलिदानी परंपरा के जीवित नक्षत्र बनकर वनवासियों को राह दिखाते रहे ।
१९४७ में देश आजाद हुआ तो उन्होंने पंडित नेंहरू से आर्शिवाद प्राप्त कर नये सिरे से आदिवासी संगठन खडा किया इनका संगठन श्री मांझी अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद आदिवासी किसान सैनिक संस्था एवं अखिल भारतीय माता दंतेवाडी समाज समिति के नाम से जाना जाता है ।
कंगला मांझी नें आदिवासियों को नयी पहचांन देने के लिए १९५१ से आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की वर्दी और सज्जा को अपने व अपने संगठन के लिए अपना लिया । सुनने में आश्चर्य होता है पर आंकडे बताते हैं कि, सिपाहियों की वर्दी से गर्व महसूस करने वाले कंगला मांझी के दो लाख वर्दीधारी सैनिक थे, वर्दी विहीन सैनिक भी लगभग इतनी ही संख्या में थे । कंगला मांझी आदिवासियों के आदि देव बूढा देव के अनुयायी को अपना सैनिक बनाते थे जबकि लगभग समस्त आदिवासी समुदाय बूढा देव के अनुयायी हैं इस कारण उनके सैनिकों की संख्या बढती ही गयी, छत्तीसगढ के अतिरिक्त मघ्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड तक उनके सदस्य फैले हुए हैं ।
कंगला मांझी अपने सैनिकों के साथ श्रीमति इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी से भी मिल चुके थे एवं उनसे अपने सैनिकों के लिए प्रसंशा पा चुके थे । वे विकास के लिए उठाये गये हर कदम का समर्थन करते थे। हिंसा का विरोध करते थे । अहिंसक क्रांति के पुरोधा कंगला मांझी के सिपाही सैनिक वर्दी में होते लेकिन रास्ता महात्मा गांधी का ही अपनाते । उनका कहना था हमें मानव समाज की रक्षा के लिए मर मिटना है ।
कंगला मांझी नें समय समय पर आदिवासियों को संगठित करने व अनुशासित रखने के उद्धेश्य से पर्चे छपवा कर आदिवासियों में बटवाया करते थे इन्ही में से एक -
“भारत के गोंडवाना भाईयों, प्राचीन युग से अभी तक हम शक्तिशाली होते हुए भी जंगल खेडे, देहात में बंदरों के माफिक चुपचाप बैठे हैं । भारत के दोस्तों ये भूमि हमारी है फिर भी हम भूमि के गण होते हुए भी चुपचान हांथ बांधे बैठे हैं । आज हमारे हांथ से सोने की चिडिया कैसे उड गयी ।“
“आदिवासी समाज तब उन्नति करेगा जब वह राज्य और देश की उन्नति में भागीदार बनेगा और देश व राज्य तभी समृद्ध बनेगा जब उसका आदिवासी समृद्ध होगा ।“
यह दर्द और घनीभूत हो जाता है जब स्थिति इतने वर्षों बाद भी जस की तस दिखती है । आदिवासियों नें कभी दूसरों का अधिकार नही छीना मगर आदिवासियों पर लगातार चतुर चालाक समाज हमला करता रहा । संस्कृति, जमीन और परंपरा पर हुए हमलों से आहत आदिवासी तनकर खडे भी हुए लेकिन नेतृत्व के अभाव में वहुत देर तक लडाई नही लड सके । प्रतिरोधी शक्तियां साधन सम्पन्न थी । आदिवासी समाज सीधा, सरल और साधनहीन था ।
आज आदिवासी समाज निरंतर आगे बढ रहा है । इस विकास के पीछे कंगला मांझी का संघर्ष है । उन्होनें अपने लंबे जीवन को इस समाज के उत्थान के लिए झोक दिया । आज जबकि आदिवासी हितों की रक्षा के सवाल पर गौर करना अधिक जरूरी है, नकली लडाईयों में आदिवासी समाज को उलझा दिया जाता है ।
छत्तीसगढ का आदिवासी हीरा कंगला मांझी जब तक इनके बीच रहा, नक्सली समस्या छत्तीसगढ में नही आई । कितने दुर्भाग्य की बात है कि उनके अवसान के बाद उनकी परंपरा का भरपूर पोषण नही किया गया और धीरे धीरे नक्सली गतिविधियां पूरे प्रांत में छा गई । समय अब भी है आहत आदिवासियों को उचित महत्व देकर पुन: वह दौर लौटाया जा सकता है और कंगला मांझी के स्वप्नों को साकार किया जा सकता है, बस्तर बाट जोह रहा है अपने सपूत कंगला मांझी का।
प्रतिवर्ष ५ दिसम्बर को डौंडी लोहारा तहसील के गांव बघमार में कंगला मांझी सरकार की स्मृति को नमन करने आदिवासी समाज के अतिरिक्त छत्तीसगढ के स्वाभिमान के लिए चिंतित जन एकत्र होते हैं । जहां राजमाता फुलवादेवी एवं जीवंत आदिवासी सैनिकों को देखकर मन कंगला मांझी के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है । धन्य हे मोर छत्तीसगढ के सपूत ।
(कंगला मांझी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय आदिवासी केम्प रणजीत सिंह मार्ग, नई दिल्ली में है ।)
(प्रस्तुत लेख छत्तीसगढ की साहित्तिक पत्रिका “अगासदिया” के क्रांतिवीर कंगला मांझी विशेषांक में प्रकाशित संपादकीय, अलग अलग लेखों, संस्मरणों व आलेखों को पिरोते हुए लिखा गया है द्वारा - संजीव तिवारी)
कंगला मांझी का असली नाम हीरासिंह देव मांझी था । छत्तीसगढ और आदिवासी समाज की विपन्न और अत्यंत कंगाली भरा जीवन देखकर हीरासिंह देव मांझी नें खुद को कंगला घोषित कर दिया । इसलिए वे छत्तीसगढ की आशाओं के केन्द्र में आ गये न केवल आदिवासी समाज उनसे आशा करता था बल्कि पूरा छत्तीसगढ उनकी चमत्कारिक छबि से सम्मोहित था । कंगला मांझी विलक्षण नेता थे ।
कंगला मांझी अपने जवानी के शुरूआती दिनों में सन १९१३ से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुडे एवं एक वर्ष में ही जंगलों से अंग्रेजों द्वारा हो रहे दोहन के विरूद्ध आदिवासियों को खडा कर दिया । १९१४ में बस्तर के अंग्रेज विरोधी गतिविधियों से चिंतित हो अंग्रेज सरकार नें आदिवासियों के आंदोलन को दबाने का प्रयास किया पर कंगला मांझी के अनुरोध पर कांकेर रियासत की तत्कालीन राजमाता नें आदिवासियों का साथ दिया अंग्रेजों को पीछे हटना पडा। कंगला मांझी लगातार जंगलों व बीहडों में अपने लोगों के बीच आदिवासियों को संगठित करने में लगे रहे ।
सन १९१४ में उन्हें अंग्रेजों के द्वारा गिरफतार कर लिया गया । कंगला मांझी के लिए यह गिरफतारी वरदान सबित हुई, इस अवधि में उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई और वे गांधी जी के अहिंसा नीति के भक्त हो गये । १९२० में जेल में गांधी जी से उनकी मुलाकात पुन: हुई और इसी समय बस्तर की रणनीति तय की गयी । महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर कंगला मांझी नें अपने शांति सेना के दम पर आंदोलन चलाया और बस्तर के जंगलों में अंग्रेजों को पांव धरने नही दिया। वे मानते थे कि देश के असल शासक गोंड हैं । वे वलिदानी परंपरा के जीवित नक्षत्र बनकर वनवासियों को राह दिखाते रहे ।
१९४७ में देश आजाद हुआ तो उन्होंने पंडित नेंहरू से आर्शिवाद प्राप्त कर नये सिरे से आदिवासी संगठन खडा किया इनका संगठन श्री मांझी अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद आदिवासी किसान सैनिक संस्था एवं अखिल भारतीय माता दंतेवाडी समाज समिति के नाम से जाना जाता है ।
कंगला मांझी नें आदिवासियों को नयी पहचांन देने के लिए १९५१ से आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की वर्दी और सज्जा को अपने व अपने संगठन के लिए अपना लिया । सुनने में आश्चर्य होता है पर आंकडे बताते हैं कि, सिपाहियों की वर्दी से गर्व महसूस करने वाले कंगला मांझी के दो लाख वर्दीधारी सैनिक थे, वर्दी विहीन सैनिक भी लगभग इतनी ही संख्या में थे । कंगला मांझी आदिवासियों के आदि देव बूढा देव के अनुयायी को अपना सैनिक बनाते थे जबकि लगभग समस्त आदिवासी समुदाय बूढा देव के अनुयायी हैं इस कारण उनके सैनिकों की संख्या बढती ही गयी, छत्तीसगढ के अतिरिक्त मघ्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड तक उनके सदस्य फैले हुए हैं ।
कंगला मांझी अपने सैनिकों के साथ श्रीमति इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी से भी मिल चुके थे एवं उनसे अपने सैनिकों के लिए प्रसंशा पा चुके थे । वे विकास के लिए उठाये गये हर कदम का समर्थन करते थे। हिंसा का विरोध करते थे । अहिंसक क्रांति के पुरोधा कंगला मांझी के सिपाही सैनिक वर्दी में होते लेकिन रास्ता महात्मा गांधी का ही अपनाते । उनका कहना था हमें मानव समाज की रक्षा के लिए मर मिटना है ।
कंगला मांझी नें समय समय पर आदिवासियों को संगठित करने व अनुशासित रखने के उद्धेश्य से पर्चे छपवा कर आदिवासियों में बटवाया करते थे इन्ही में से एक -
“भारत के गोंडवाना भाईयों, प्राचीन युग से अभी तक हम शक्तिशाली होते हुए भी जंगल खेडे, देहात में बंदरों के माफिक चुपचाप बैठे हैं । भारत के दोस्तों ये भूमि हमारी है फिर भी हम भूमि के गण होते हुए भी चुपचान हांथ बांधे बैठे हैं । आज हमारे हांथ से सोने की चिडिया कैसे उड गयी ।“
“आदिवासी समाज तब उन्नति करेगा जब वह राज्य और देश की उन्नति में भागीदार बनेगा और देश व राज्य तभी समृद्ध बनेगा जब उसका आदिवासी समृद्ध होगा ।“
यह दर्द और घनीभूत हो जाता है जब स्थिति इतने वर्षों बाद भी जस की तस दिखती है । आदिवासियों नें कभी दूसरों का अधिकार नही छीना मगर आदिवासियों पर लगातार चतुर चालाक समाज हमला करता रहा । संस्कृति, जमीन और परंपरा पर हुए हमलों से आहत आदिवासी तनकर खडे भी हुए लेकिन नेतृत्व के अभाव में वहुत देर तक लडाई नही लड सके । प्रतिरोधी शक्तियां साधन सम्पन्न थी । आदिवासी समाज सीधा, सरल और साधनहीन था ।
आज आदिवासी समाज निरंतर आगे बढ रहा है । इस विकास के पीछे कंगला मांझी का संघर्ष है । उन्होनें अपने लंबे जीवन को इस समाज के उत्थान के लिए झोक दिया । आज जबकि आदिवासी हितों की रक्षा के सवाल पर गौर करना अधिक जरूरी है, नकली लडाईयों में आदिवासी समाज को उलझा दिया जाता है ।
छत्तीसगढ का आदिवासी हीरा कंगला मांझी जब तक इनके बीच रहा, नक्सली समस्या छत्तीसगढ में नही आई । कितने दुर्भाग्य की बात है कि उनके अवसान के बाद उनकी परंपरा का भरपूर पोषण नही किया गया और धीरे धीरे नक्सली गतिविधियां पूरे प्रांत में छा गई । समय अब भी है आहत आदिवासियों को उचित महत्व देकर पुन: वह दौर लौटाया जा सकता है और कंगला मांझी के स्वप्नों को साकार किया जा सकता है, बस्तर बाट जोह रहा है अपने सपूत कंगला मांझी का।
प्रतिवर्ष ५ दिसम्बर को डौंडी लोहारा तहसील के गांव बघमार में कंगला मांझी सरकार की स्मृति को नमन करने आदिवासी समाज के अतिरिक्त छत्तीसगढ के स्वाभिमान के लिए चिंतित जन एकत्र होते हैं । जहां राजमाता फुलवादेवी एवं जीवंत आदिवासी सैनिकों को देखकर मन कंगला मांझी के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है । धन्य हे मोर छत्तीसगढ के सपूत ।
(कंगला मांझी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय आदिवासी केम्प रणजीत सिंह मार्ग, नई दिल्ली में है ।)
(प्रस्तुत लेख छत्तीसगढ की साहित्तिक पत्रिका “अगासदिया” के क्रांतिवीर कंगला मांझी विशेषांक में प्रकाशित संपादकीय, अलग अलग लेखों, संस्मरणों व आलेखों को पिरोते हुए लिखा गया है द्वारा - संजीव तिवारी)
संजीव तिवारी जी, आंचलिक ब्लॉग पोस्ट की ऐसी ही कल्पना मेरे मन में थी. कंगला मांझी के विषय में जानकारी देकर आपने बड़ा पुण्य का काम किया है.
जवाब देंहटाएंआदिवासियों का विकास नहीं हुआ है. कहीं हम उनके विकास के गलत मॉडल पर तो नहीं चल रहे? क्या सोच है आपकी?
वाह! बहुत शानदार!
जवाब देंहटाएंसंजीव भैय्या मै आप पर केस करने जा रहा हूं आपने मेरी एक पोस्ट मुझसे छीन ली है, जो मैं लिखने की सोचता ही रह गया वह आपने लिख भी डाला।
सच में धन्यवाद!!!
ज्ञान दद्दा! आपके कथन से सहमत हूं मैं। विकास का शहरी मॉडल आदिवासियों पर भी लागू करना ही हमारी या हमारी सरकारों की गलती है। नक्सलवाद इसी का नतीजा है, देशकाल, वातावरण व संस्कृति को देखते हुए आदिवासियों के लिए विकास का कोई अलग ही पैमाना तय करना था जबकि ऐसा हुआ नहीं।
संजीव जी..
जवाब देंहटाएंकंगला माझी के जीवन पर इतनी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करने के लिये आप बधाई के पात्र हैं। कई तथाकथित विद्वान जो बस्तर की नक्सली समस्या को सामाजिक आर्थिक कारणो से जोडते हैं उन्हें इस पोस्ट के लिंक थमायें। सफल प्रयास लोकमानस के भीतर से ही पनपेंगे और सार्थक होंगे।
*** राजीव रंजन प्रसाद
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2005/08/050814_azad_hind.shtml
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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