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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ चांद पर Master Chokhelal

चांद देश की संसद की आपात बैठक चल रही थी। प्रधान मंत्री ही नहीं, सबके माथे पर बल पड़ा हुआ था। वे गहरी चिंता में जान पड़ते थे, मानो राष्ट्रीय शोक का समय हो। हो भी क्यों नहीं। पृथ्वी नामक ग्रह के इकलौते सुपर पावर देश की सरकार की ओर से आज एक सुझाव-पत्र आया है। सुझाव-पत्र क्या, खुल्लमखुल्ला चेतावनी है, फरमान है। पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि यदि चांद सरकार ने अपने देश में साक्षरता का स्तर नहीं बढ़ाया तो उन्हें दी जा रही सारी आर्थिक और सैन्य सहायता बंद कर दी जायेगी। इतना ही नहीं युनाइटेड नेशन्स द्वारा आर्थिक नाकेबंदी की भी घोषणा की जा सकती है।

चांद देश की सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक था। उनका मानना था कि उनके देश में साक्षरता की दर शत-प्रतिशत है। उन्हें अपनी साक्षरता पर बड़ा घमंड था। इसी के दम पर वह सुपर पावर की बराबरी करना चाहता था। सुपर पावर को यह टुच्चापन कब भाने वाला था। भुगतो अब। उन्होंने जो कह दिया कि सालों, तुम सब निरक्षर हो, तो हो। कह दिया सो कह दिया। तुम सब निरक्षर ही हो। सुपर पावर की बादशाहत को चुनौती देने वाला निरक्षर और मूर्ख नहीं होगा तो और क्या होगा भला।

बिना आइना देखे अपना चेहरा सबको सुंदर लगता है। सुपर पावर ने उन्हें आइना दिखा दिया था। निकल गई सारी हेकड़ी। सुपर पावर आईने का रूख सदैव दूसरों की ओर ही रखता है। चाहे कोई कितना ही खूबसूरत क्यों न हो, उसकी मेकप में कोई न कोई मीन-मेख निकाल ही देता है। इसीलिये दुनिया की अधिकतर सरकारें अपनी जनता के लिये प्रसाधन सामग्री सुपर पावर के यहाँ से ही आयात करती रहती हैं। प्रसाधन सामग्री ही क्यों, हथियार, व्यवहार और विचार भी ये सुपर पावर के यहाँ से ही आयात करना पसंद करते हैं। देसी विचार अपना कर भला वे सुपर पावर को नाराज क्यों करे।

चांद देश की संसद को इस संतोष के साथ स्थगित किया गया कि - ’गनीमत है, कि साक्षरता के ही चाबुक से मारा गया है; मानवाधिकार के ब्रह्मास्त्र का उपयोग नहीं किया गया है।’

तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना, की तर्ज पर चांद देश की सरकार ने सुपर पावर को फौरन एक अनुरोध पत्र लिखा कि - ’’हे महाबली, हम सब निहायत ही मूर्ख व अज्ञानी हैं। आपकी कृपा हम पर सदा बनी रहेे। हमारे यहाँ साक्षरता जैसे महायज्ञ संपन्न कराने लायक ऋषि-मुनियों का नितांत अभाव है। एक महान कृपा और करें। आप तो जगत गुरू हैं। इस कार्य में आपके यहाँ के विशेषज्ञ ऋषियों का एक दल हमारे यहाँ भेज दें। वे हमारे यहाँ के अज्ञानियों के एक दल को, चाहे कान पकड़ाकर, चाहे उठक-बैठक कराकर, प्रशिक्षित करें। वे हमारे लिये ईश्वर तुल्य होंगे।’’

पत्र की भाषा अत्यंत शालीन और विनय-पत्रिका की भाषा के अनुरूप दासत्व-भाव लिये हुए थी। चांद देश की सरकार को यकीन था कि इसे पढ़कर सुपर पावर खुश हो जायेगा। पर जल्द ही उनका यह भ्रम टूट गया। सुपर पावर का जवाब आया।

जवाब क्या घुड़की थी। लिखा था - ’’आपने पत्र में जिस भाषा का प्रयोग किया है वह नितांत ही अपमानजनक और आपत्तिजनक है। न हम जगत गुरू हैं और न ही हमारे यहाँ कोई ऋषि-मुनि पाए जाते हैं। इसके लिये आपको आर्यावत्र्त नामक देश से संपर्क करना चाहिये। लेकिन आपको इसकी सजा जरूर मिलेगी। अरे मूर्खों, तुम्हें इतना भी पता नहीं कि हम तो केवल मिसाइल और लड़ाकू विमान ही भेजते हैं।’’

चांद सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ। नादानी में सांप के बिल में हाथ डालने का फल उसे मिल रहा था। उसने तत्काल आर्यावत्र्त के दूतावास से संपर्क कर अपनी समस्या रखी।

चांद सरकार का अनुरोध-पत्र पाकर आर्यावत्र्त की सरकार अतीव प्रसन्न हुई। उसे अपनी ऋषि परंपरा पर गर्व हुआ। जिस देश से अब तक मनोरंजन सामग्री के रूप में केवल बच्चों और महिलाओं का ही निर्यात किया जाता रहा हो, उससे मास्टर आफ मास्टर की मांग सचमुच गर्व की बात थी। उसने चांद सरकार को आश्वस्त किया कि जल्द ही यहाँ के योग्यतम शिक्षक को चांद पर भेज दिया जायेगा। आपकी सारी समस्याओं को सुलझा लिया जायेगा। सुपर पावर को भी मना लिया जायेगा।

आर्यावत्र्त की सरकार ने तत्काल एक कर्मठ व समर्पित शिक्षक का सर्वेक्षण करने का आदेश अपने मानव संसाधन विभाग को दिया, जिसे मास्टर आफ मास्टर के रूप में चाद देश भेजा जा सके।

उचित माध्यम और नियमानुसार सर्वेक्षण का मार्ग काफी लंबा और अव्यवहारिक होता। इसमें कम से कम दो साल लगने की संभावना थी, अधिक भी लग सकता था, अतः मंत्रालय ने नियमों को शिथिल करते हुए अत्यंत व्यवहारिक और लघु मार्ग अपनाया। देश की इज्जत का सवाल जो था। राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित देश के समस्त शिक्षकों की सूची निकाल कर उनके अभिलेखों का, जिनके आधार पर उन्हें सम्मानित किया गया था, अति सूक्ष्मता पूर्वक अवलोकन करने का निर्णय लिया गया ताकि इन्हीं लोगों में से किसी एक का चयन किया जा सके। इस हेतु एक उच्चाधिकार प्राप्त खोजी आयोग का गठन किया गया। नाम रखा गया - शिक्षक अन्वेषण आयोग। देश के एक सेवानिवृत्त महान् छिद्रान्वेषी महोदय को इस आयोग का कर्ताधर्ता नियुक्त किया गया। एक महीने के अंदर काम पूरा करने कहा गया।

पहले छिद्रान्वेषी महोदय की खोजबीन शुरू हुई ताकि उन्हें उनका नियुक्ति पत्र दिया जा सके। पता चला कि सेवानिवृत्ति के बाद कोई काम न मिलने से निराश होकर वे विदेश चले गये हैं, जहाँ उनका बेटा नौकरी करता है।

उनके विदेश से वापस आने और कार्यभार ग्रहण करने में ही एक माह का नियत समय समाप्त हो गया।

कार्यभार ग्रहण करते ही उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने सरकार को पत्र लिखा। पत्र में सरकार से आग्रह किया गया था कि आयोग का कार्यकाल एक महीने के लिये बढ़ाया जाय। पत्र में सरकार को पूर्ण आश्वस्त किया गया था कि एक माह में आयोग अपना काम पूरा कर लेगी।

काम शुरू हुआ। बढ़ाया गया महीना फाइलों को ढूंढने में ही समाप्त हो गया। अब तो पत्र लिखने और आश्वासान देने का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा। बार-बार एक ही काम में माथा क्यों खपाया जाय। विभाग को समझ आ गया था कि यह काम
इतना सरल नहीं है। उन्होंने आयोग का कार्यकाल एकमुस्त छः महीनों के लिये बढ़ा दिया।

एक महीना फाइलों की धूल झाड़ने में लगा। एक महीना फाइलों को व्यवस्थित करने में लगा। इस बीच पता चला कि कुछ फाइलंे गायब हो गई हैं। गायब फाइलों के मिले बगैर आयोग का काम आगे कैसे बढ़े? क्या पता, देश का सर्वश्रेष्ठ शिक्षक उन्हीं फाइलों में दबा पड़ा हो। लेकिन सवाल यह नहीं था कि उस फाइल में कौन दबा पड़ा होगा। सवाल यह था कि फाइल गायब कैसे हुई। प्रजातंत्र में फाइलों के गायब होने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं हो सकता। प्रजातंत्र में फाइलों से बड़ी भी कोई चीज होती है क्या ? फाइल आखिर फाइल है। फाइल के चलने से ही तो सरकार चलती है, देश चलता है।

अब तो युद्ध स्तर पर फाइलों को ढ़ँूढ़ने का काम शुरू हो गया।

छिद्रान्वेषी महोदय जी को बड़ा सुकून मिला। यह कह कर कि फाइल मिलने पर उन्हें सूचित कर दिया जाय, वे पुनः अपने बेटे के पास चले गये।

छः महीने बीत गए। फाइल नहीं मिली।

उधर छिद्रान्वेषी महोदय विदेश में सरकारी या़त्रा-भत्ता का जी भर कर उपभोग कर रहे थे और इधर फाइल ढूंढ़ने वाले यह भी भूल चुके थे कि वे क्या ढंूंढ़ रहे हैं। विभाग वाले भी भूल चुके थे कि उन्होंने शिक्षक अन्वेषण नामक आयोग भी कभी गठित किया था।

इस बीच चांद देश की सरकार हर महीना स्मरण पत्र भेजती रही। यहाँ वाले पत्र पढ़-पढ़ कर खुश होते रहे। अंत में वहाँ का विशेष दूत पत्र लेकर आया। पत्र बड़ा मार्मिक था। लिखा था - ’’हे जगत गुरू ! हमारी दशा को समझें, रहम करें। मिल गया हो तो अपने महान ऋषि पुत्र को जल्द से जल्द भेजने की कृपा करें। पता नहीं सुपर पावर कब यहाँ अपनी फौज उतार दे। सोंच-सोंच कर हम और हमारी सारी जनता अनिद्रा के रोगी हो गए हैं। सबकी बी. पी. खतरे की निशान तक बढ़ चुका है। देश पक्षाघात के मुहाने पर खड़ा है। हे कृपानिधान, हे तारनहार! हमें तार लीजिये। आपका आश्वासन सुन-सुनकर हमारा धीरज समाप्त हुआ जा रहा है।’’

पत्र की भाषा मार्मिक ही नहीं अत्यन्त गूढ़ भी थी, किसी की समझ में नहीं आई। लिहाजा पत्र की भाषा और तथ्यों को समझने के लिए भाषा शास्त्रियों और कूटनीतिज्ञों का एक विशेष दल गठित किया गया। सबने कई-कई बार पत्र का पठन
किया। एक-एक अक्षर और विराम चिन्हों का विश्लेषण किया गया। अंत में निम्न निष्कर्ष निकाले गये।

चांद देश के विशेष दूत से प्राप्त पत्र का विश्लेषण करने पर निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं -

- ’चांद देश की सरकार में आत्मबल की कमीं है। वह और उनकी जनता फौज-फोबिया नामक एक विशेष मानसिक रोग से ग्रसित प्रतीत होती है। यह रोग असुरक्षा की भावना के कारण पैदा होती है।’

- ’उनमें न तो धीरज है और न ही आत्मविश्वास। उन्हें मित्रों पर भी विश्वास नहीं है।’

- ’वे घोर निराशावादी हैं।’

- ’वे अनिद्रा के रोगी हैं।’
(ये सभी लक्षण मानसिक रोग के हैं।)

- ’वे आश्वासन की शक्तियों से परिचित नहीं हैं। न तो वे आश्वस्त होना जानते हैं और न ही आश्वासन देना। सुपर पावर का आरोप पूर्णतः सत्य है। आश्वासन का महत्व जो न समझे उससे बड़ा मूर्ख और निरक्षर, प्रजातंत्र में भला और कौन होगा? प्रजातांत्रिक सरकारें आश्वासनों के भरोसे ही चलती हैं। प्रजातंत्र में आश्वासन ही जनता का संतुलित आहार होती है। इसी से लोगों के पेट भरे जाते हैं।’

- ’वे बी. पी. के मरीज हैं और पक्षाघात के मुहाने पर खड़े हैं।’

उपरोक्त बातों से पता चलता है कि उन्हें न सिर्फ शिक्षक, बल्कि मनोचिकित्सक, हृदय रोग विशेषज्ञ और योग शिक्षक की भी जरूरत है। उन्हें इन रोगों में काम आने वाली दवाइयों की भी सख्त जरूरत है।

उपरोक्त रिपोर्ट सुनते ही चांद देश का विशेष दूत गश खाकर गिर गया।

व्यापक खोजबीन के बाद दो नामों की संक्षिप्त सूची सरकार के पास चयनार्थ भेजी गई।

पहले नंबर पर मास्टर दीनानाथ जी सुशोभित थे। मास्टर दीनानाथ शिक्षा-जगत ही नहीं फिल्मों, रंगमंचों और कहानियों में भी एक चर्चित नाम हैं। शिक्षकीय कार्य इनके लिये तप के समान है। धोती-कुरता और हर मौसम में छाता धारण करने वाले दीनानाथ जी सिद्धान्त और नियम के पक्के हैं। इनके अनेक विद्यार्थी देश-विदेश में उच्च प्रशासनिक पदों पर कार्यरत हैं। सादा जीवन, उच्च विचार को अपने जीवन में अपनाने वाले और ताउम्र पैसों के लिये तरसने वाले इस शिष्ट और शालीन शिक्षक की काया को देखकर किसी परग्रही प्राणी का भ्रम होता है। राष्ट्रीय पुरस्कार तो क्या इन्हें आज तक पंचायत स्तर का भी पुरस्कार नहीं मिला है।

ऐसे दीन-हीन प्राणी को भेजने से राष्ट्र की छवि खराब होने की संभावना थी। और फिर केवल राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त शिक्षक का ही प्रस्ताव मांगा गया था।

दूसरे नंबर पर कुण्डली मारे बैठे थे मास्टर चोखेलाल भिड़ाऊ। आपकी महिमा अपरंपार है। बच्चों, विशेष रूप से छात्राओं से आप विशेष लगाव रखते हैं। आप ही सच्चे अर्थों में गुरू हैं क्योंकि गुरूमंत्र जो आपके पास है, और किसी के पास नहीं है। साल भर पाठ्यपुस्तकों में माथापच्ची करना आपकी शिक्षा नीति के विरूद्ध है। जिस दिन शाला में आपका पदार्पण होता है, वह दिन शाला के इतिहास में अमर हो जाता है। अध्यापन कार्य छोड़कर बाकी सभी काम आप पूरे मनोयोग से करते है। सत्तापक्ष के नेताओं के साथ आपके बड़े मधुर और पारदर्शी संबंध हैं। स्थानीय विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक के आप चहेते हैं। आपकी कक्षा का कोई भी विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण नहीं होता। (यह बात और है कि आगे की कक्षाओं में इनमें से कोई कभी
उत्तीर्ण भी नहीं होता।)

खेलों में भी ’जीतना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं जीतकर ही रहूँगा’ के गुरूमंत्र का पालन करने वाले आपके छात्र कभी असफल नहीं होते। अपना लक्ष्य हासिल करने के लिये अक्सर आप प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ियों के हाथ-पाँव तुड़वाने में भी संकोच नहीं करते हैं।

आप वर्तमान शिक्षा प्रणाली के सख्त विरोधी हैं। प्राचीन, गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को आप सर्वोत्तम शिक्षा प्रणाली मानते हैं। साथ ही व्यवहारिक शिक्षा पर आप अधिक जोर देते हैं, फलस्वरूप आपकी कक्षाएँ शाला-भवन की बजाय आपके फार्म हाऊस पर ही लगती है। ऐसा आप ’लर्निंग बाय डूईंग’ सिद्धांत के तहत करते हैं। सर्वशिक्षा अभियान और संजीव गांधी शिक्षा मिशन जैसे साक्षरता कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु आप तब तक पसीना बहाते रहते हैं, जब तक इसकी आबंटित राशि समाप्त नहीं हो जाती। इन कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु आपकी धर्मपत्नी भी जी जान से जुटी रहती हैं। कलेक्टर महोदय की विशेष संरक्षण में आपकी पत्नी एक एन. जी. ओ. का भी संचालन करती हैं। आपकी इन्हीं उपलब्धियों के लिए आपको राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तर के शिक्षक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

मास्टर आफ मास्टर के लिये आपसे अधिक योग्य शिक्षक और कहाँ मिलता?

चांद देश की धरती पर कदम रखते ही मास्टर चोखे लाल जी ने अपना काम शुरू कर दिया। छः महीनें तक एयरकंडीशंड सरकारी कार में गाँव-गाँव घूमकर वहाँ की शालाओं का निरीक्षण किया। ग्रामीणों से मुलाकात कर वहाँ की साक्षरता दर का जायजा लिया। उन्होंने पाया, वहाँ पर प्रत्येक शाला की अपनी पक्की, मजबूत और खूबसूरत इमारतें हैं। इमारतों में बिजली, पानी और शौचालयों की समुचित व्यवस्था है। सभी स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक हैं। सभी जगह सभी बच्चे बराबर स्कूल जाते हैं। सभी बड़े-बूढ़े और औरतें अच्छी तरह पढ़ना-लिखना जानती हैं। स्कूल समय पर खुलते और बंद होते हैं। शिक्षक मन लगाकर पढ़ाते हैं।

मास्टर चोखे लाल जी को वहाँ पर न तो एक भी शाला भवन भारतीय शाला भवन-सा मिला और न ही कोई अपने जैसा गुरू। उन्हें स्थिति भंापते देर नहीं लगी। उन्हें चांद सरकार की शिक्षा नीति पर रोना आया। निष्ठा, ईमानदारी, और नैतिकता जैसे पुरातन, दकियानूसी विचारों को पकड़ कर चलने का केवल यही अंजाम होना था। उन्हें वहाँ का शिक्षा विभाग और शिक्षा प्रणाली यहाँ की तुलना में एकदम तुच्छ नजर आई।

छः महीने उन्हें अपना निरीक्षण प्रतिवेदन तैयार करने में लग गए। पूरे दो शिक्षा सत्र गुजर जाने के बाद ’भिड़ाऊ प्रस्ताव’ चांद देश की संसद के पटल पर रखी गई। इस बीच आश्वासनों की खुराक का भरपूर उपयोग होता रहा।

प्रस्ताव इस प्रकार था।

’’सुपर पावर को खुश करने का ’भिडा़ऊ प्रस्ताव’।’’

प्रस्ताव क्र.1:- ’शिक्षा विभाग को दी जा रही सारी सरकारी वित्तीय सहायता बंद कर दी जाय। भवन निर्माण और शिक्षण सहायक सामग्रियों की खरीदी पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी जाय। इस मद से बची राशि से सुपर पावर के यहाँ से युद्धक विमान और मिसाइलें खरीद ली जाय।’

प्रस्ताव पर संसद ने एक स्वर से आपत्ति की - ’’यह तो घुमाने वाली बात है। मामला साक्षरता का है, रक्षा का नहीं।’’

मास्टर चोखे लाल ने वहाँ के मूढ़ सांसदों को समझाया - ’’साहबानों, मामला न साक्षरता का है, और न रक्षा का। मामला केवल सुपर पावर को खुश करने का है।’’

प्रस्ताव का निहितार्थ समझ में आते ही संसद में चुप्पी छा गई। मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ अपनी कामयाबी पर मुस्कुराने लगा। उसने दूसरा प्रस्ताव पेश किया।

प्रस्ताव क्र.2:- ’औपचारिकेत्तर शिक्षा एवं प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाय। संजीव गांधी शिक्षा मिशन की स्थापना करके सर्वशिक्षा अभियान प्रारंभ किया जाय। हर तीन महीने के अंतराल पर समतुल्यता परीक्षा आयोजित किए जाएँ। समस्त शाला त्यागी बच्चों को उसमें सम्मिलित करके मुफ्त में प्रमाण-पत्र बांटे जाएँ।’

कुछ सांसदों ने फिर आपत्ति किया। मास्टर चोखे लाल ने उन्हें बैठने का इशारा करते हुए फिर कहा - ’’आपकी समस्याएँ मैं अच्छी तरह जानता हूँ। ईमानदारी के साथ प्रयास करने पर सारी समस्याएँ हल हो जायेगी। औपचारिकेत्तर शिक्षा केन्द्रों के लिये बच्चे कहाँ से आएँगे? भेरी सिम्पल; शालाओं के पच्चीस प्रतिशत नियमित बच्चों के नाम यहाँ दर्ज कर लिये जाए; पचीस प्रतिशत को समतुल्यता की परीक्षा में बिठा लिए जाए। चालीस साल से अधिक अवस्था के सभी स्त्री-पुरूषों के नाम प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों में अनिवार्य रूप से लिख लिए जाए। इन सभी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिये सुपर पावर के यहाँ से आर्थिक सहायता लेना हरगिज न भूलें। इसके दो फायदे होंगे - बेरोजगारों को रोजगार मिलेगी और साक्षरता के लिये किये जा
रहे प्रयासों का ब्यौरा सुपर पावर को देने में आसानी होगी।’’

उपरोक्त दोनों प्रस्ताव सुनकर सांसदों को चक्कर आने लगा। अब बारी थी तीसरे और चैथे प्रस्ताव की।

प्रस्ताव क्र.3:- ’यहाँ के शिक्षकों को गुरूमंत्रों का ज्ञान नहीं है। इसके लिये उन्हें बारी-बारी से आर्यावत्र्त की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में प्रशिक्षण हेतु भेजे जाए।’

सुनकर सांसदों ने दिल थाम लिए।

प्रस्ताव क्र.4:- ’यहाँ के शिक्षा मंडलों और विश्वविद्यालयों को न तो आधुनिक शिक्षा प्रणालियों का ज्ञान है और न उन्हें पाठ्यक्रम बनाना ही आता है। इन्हें भंग करके इन संस्थानों को कम से कम तीन वर्षों के लिये आर्यावत्र्त की शिक्षा विभाग के हवाले कर दिए जाएँ।’

इन चारों प्रस्तावों को सुनकर सारे सांसद गश खाकर गिर गये। कुछ लोगों को दिल का दौरा भी पड़ गया।

तीन साल बाद बड़े सुखद परिणाम आने लगे। सुपर पावर अब चांद देश की सरकार पर दिल खोलकर मेहरबान रहने लगी क्योंकि उनके एक्सपायर हो रहे सारे युद्धक विमान और अन्य साजो सामान बिक गये थे।

चांद देश की शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प हो गया था। सरकारी स्कूलों की पक्की इमारतें अब खंडहर लगने लगी थीं। शिक्षकों की मौज हो गई थी। कइयों ने अपनी निजी शिक्षण संस्थाएँ खोल ली थी। कुछ लोग फर्जी डिग्री के कारखाने खोलकर बैठ गए थे। छात्राओं के साथ शिक्षकों द्वारा बलात्कार के भी दिलचस्प समाचार आने लगे थे। व्यापारी भी खुश थे। अपने पारंपरिक व्यवसायों को छोड़कर वे अब शिक्षा के व्यवसाय में आ गये थे।

शिक्षा अधिकारी भी बेहद खुश थे। संजीव गांधी शिक्षा मिशन में नियुक्ति पाने के लिये लाखों के सौदे होने लगे थे।

औपचारिकेत्तर शिक्षा केन्द्र, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, और समतुल्यता परीक्षाओं के दस्तावेजों से कार्यालय की अलमारियाँ अटी पड़ी थी।

मास्टर चोखे लाल चांद देश के शिक्षा विभाग में दिव्य पुरुषों में शुमार कर लिये गए थे। सभी शैक्षणिक संस्थाओं में उनकी प्रतिमाएँ स्थापित हो गई थी। वे अभी पाँच साल और यहाँ रहकर अपना चार सूत्रीय सुधार कार्य चलाना चाहते थे, परंतु चांद देश की सरकार ने उनके पाँव पकड़ लिये। अत्यंत करुण स्वर में बोली - ’’हे गुरूर्देवो महेश्वरः, आपके इतने ही उपकार के बोझ से हमारा देश कृत-कृत्य हो चुका है। अब अधिक उपकृत होने की हममें शक्ति बाकी नहीं रही। प्रस्थान की बेला आ चुकी है, सादर विदाई स्वीकार करें। आर्यावत्र्त सरकार के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हुए, अनेक प्रशस्तियों के साथ मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ जी को एयर आर्यावत्र्त के विशेष पुष्पक विमान में बिठा दिया गया। इस विदाई के दुख को चांद देश की शिक्षा विभाग
सह नहीं पाई। बिदा करने आये सभी शिक्षा अधिकारी बेहोश होकर गिर पड़े।

16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल  9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

टिप्पणियाँ

  1. जहाँ बुद्धि काम न आये वहाँ बल पर ध्यान दिया जाता है। इतनी छोटी बात इतनी देर से समझ आयी।

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दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ