दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़ : वागार्थ में प्रकाशित कैलाश बनवासी की कहानी

वर्तमान कथा साहित्‍य में कैलाश बनवासी जाने पहचाने कथाकर हैं जो विविधआयामी परिदृश्‍यों को रचते हुए आम जन की कथा लिखते हैं। कैलाश भाई मेरे नगर के हैं और मेरा सौभाग्‍य है कि मैं कुछ वर्षों तक उनके पड़ोस में ही रहा हूं और कथाकार मनोज रूपड़ा जी के दुकान तक की दौड़ लगाते रहा हूं. कैलाश बनवासी जी की 'लक्ष्य तथा अन्य कहानियां' व 'बाज़ार में रामधन' कहानी-संग्रहों के अलावा समसामयिक विषयों पर कई लेख व समीक्षाएं प्रकाशित हैं तथा वे कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं। कहानी संग्रह 'बाजार में रामधन' यहां मेरी गूगल बुक्‍स लाईब्रेरी में उपलब्‍ध है। इसी शीर्षक से संग्रह की पहली कहानी रचनाकार में यहां प्रकाशित है। 'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' कहानी वागार्थ के मार्च 2011 अंक में प्रकाशित है, यह कहानी कैलाश जी के उपन्‍यास का कथा रूप है। हम अपने पाठकों के लिए 'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं - 

'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़'

अजीब-सा स्वाद लगा था पानी का ।

कहावत है- कोस-कोस में बदले पानी, सात कोस में बानी, फिर मैं तो भूल ही चुका था, हम घर से कितना आगे आ चुके हैं । ...शायद हजार से भी ज्यादा । और यह हिसाबने का कोई तुक नहीं था, फिलहाल । मैं प्लेटफार्म के अपेक्षाकृत कुछ दूर के नलके में हाथ-मुँह धो रहा था, स्टेशन के टॉयलेट से निवृत्त होने के बाद । यह सुबह के साढ़े पाँच-छह के बीच का समय था, झीने और कोमल सफेद उजास का समय । मेरे ऊपर आकाश था, गहरा नीला, जिसमें कहीं-कहीं तारे टिमक रहे थे । और चाँद था, निस्तेज, किसी पुरानी किताब के पीले पड़ गए कागज-सा ।

यह दिल्ली का आकाश था । निजामुद्दीन ।

गौरी ने कुछ देर पहले जब मुझे जगाया था, मैं बहुत गहरी नींद में था । उठकर मैं भकुआया-सा कुछ देर देखता रहा था अपने ईद-गिर्द जहाँ कुछ लोग बेसुध सो रहे थे स्टेशन के लाउंज के फर्श पर, हमारी ही तरह । एक पल को तो समझ में मनहीं आया मैं कहाँ हूँ । जब समझ में आया तो अपनी घड़ी देखी, क्या समय हुआ है । सवा पाँच ही बजे थे । मुझे गौरी पर खीज हुई, क्यों उठा दिया इतनी जल्दी । गौरी की बहुत सी बातों पर मैं अक्सर खीज जाता हूँ, बहुत जल्दी । आदतन । मैं उस पर ऐसे खीजता हूँ मानों यह मेरा अधिकार हो ! और वह भी जैसे इसे स्वीकार कर चुकी है कि भाई जो करेगा, सही करेगा, क्योंकि मैं उसका एक जिम्मेदार भाई हूँ । एक गार्जियन । उससे उमर में दो बरस छोटा होने के बावजूद । ...और यह अभिभावकपन कब मेरे भीतर दाखिल हुआ और कब अपनी जड़ें जमा लिया, मुझे नहीं मालूम ।

इस सुबह यहाँ मैं अकेला था । और बहुत शान्ति । सुबह की नम हवा में भीगी शान्ति । और एक साफ-सुथरापन । एक सूनापन । सब कुछ भला-भला-सा । प्लेटफार्म की जलती हुई बत्तियाँ भी इस समय आँखों को नहीं चुभ रही थीं । अभी वह गहमा-गहमी कहीं नहीं थी, न ही वैसी भाग-दौड़, जब कल रात आठ के आसपास यहाँ पहुँचे थे ।

प्लेटफार्म के स्वीपर आ चुके थे । मार्निंग शिफ्ट के स्वीपर । लम्बे डण्डे वाली झाड़ू से बुहार रहे हैं । इन्हें देखकर रात की घटना की कड़वाहट मन में एक बार फिर तिर आई... ।

हम स्टेशन के टिकटघर से कुछ हट के सो गए थे । असल में किसी होटल में रात रुकने की बात हम सोच ही नहीं सकते थे । यह हमारे लिए महँगा सौदा था । फिर एक रात की ही तो बात है । काट लेंगे कैसे भी ! कितने सारे लोग तो सोते हैं प्लेटफार्म पर । फिर हमारे साथ जनरल डिब्बे में आये बिरेभाट गाँव के छह लोग भी थे, वे भी यहीं सो रहे थे । इसलिए चिंता की कोई बात नहीं थी । पर रात में दो स्वीपरों ने हमें उठा दिया था, अपने झाड़ूवाले डण्डे से हमें कोंचते हुए, ``उठो-उठो, ये तुम्हारे सोने की जगह नहीं है ! बाहर जा के सोओ ! टिकट खिड़की के सामने सो गए हैं साले देहाती !''

मुझे उनके चेहरे याद नहीं हैं, याद है उनकी आवाजें... जो असामान्य रूप से गहरी चिढ़ और नफरत से भरी थीं । अगर आवाज का रंग होता तो ये गहरे काले रंग की चमकदार आवाजें थीं, और जिन्हें अपने ऐसा होने का कोई अफसोस नहीं था, दूर-दूर तक । उनके लिए यह रोज की बात रही होगी, बहुत सामान्य । और गाँव से आए लोगों के लिए भी ये लगभग उतनी ही सामान्य बात थी । उन्हें हर साल ऐसे ही पलायन करना होता है कमाने-खाने के लिए । ऐसे अपमानों का उन्हें काफी अभ्यास है- सहने का भी और भूलने का भी । थोड़ा कुनमुनाकर हम वहाँ से उठ गए थे और कोने की एक खाली जगह में चले गए थे अपना बोरिया-बिस्तर लेकर । और फिर वहाँ सो भी गए थे, बावजूद इसके कि वहाँ ठंडी हवा सीधी आ रही थी, बावजूद इस भय के कि फिर कोई और आकर हमें यहाँ से खदेड़ देगा... । और हम यहाँ से

भी उठकर किसी और जगह चले जाएँगे... ।

प्लेटफार्म के नीचे पटरियाँ दूर तक चली गई हैं, भोर के सफेद उजास में चमकती हुइंर्, काले साँपों की मानिंद... । इस भली-भली-सी शान्त सुबह में तौलिए से अपने हाथ-मुँह पोंछता मैं वहाँ आ रहा हूँ जहाँ दीदी बैठी है, हमारे सामान के साथ । एक सूटकेस और दो सफारी बैग ।

हम पहली बार घर से इतनी दूर आए हैं वह भी दिल्ली ! दीदी गौरी का इण्टरव्यू है फरीदाबाद में । हमें ट्रेन में मुसाफिरों से ही पता चला था कि फरीदाबाद जाने के लिए नई दिल्ली नहीं, बल्कि निजामुद्दीन उतरना पड़ेगा । इसलिए कल रात आठ बजे हम अपनी ट्रेन `छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस' के यहाँ रुकते ही उतर गए थे । हमारे साथ बिरेभाट गाँव वाले यात्री भी उतर गए थे जो दुर्ग से चढ़े थे । उन्हें नोएडा जाना है, जो शायद यहाँ से पास पड़ता है ।
मैं पच्चीस बरस का हूँ, बी.एससी. तक पढ़ा । दो साल से सरकारी नौकरी में हूँ- वन विभाग में क्लर्क की नौकरी । इसके बावजूद बड़े शहर का डर खत्म नहीं हुआ था । वह बना हुआ था । यह गहरा था और बहुत चमकीला । पता नहीं कब से हमारे भीतर अपनी जड़ें जमाए हुए । एक अविश्वास... और ठग लिए जाने का भय... । ठगे जाने का भय अपने सचमुच के ठग लिए जाने से बहुत बड़ा था । हालाँकि अपने शिक्षित होने का एक दंभ मैं इस सफर में अपने साथ रखे था- किसी जरूरी और उपयोगी औजार की तरह, पर वह सचमुच कोई खास काम नहीं दे रहा था । मैं यहाँ भी उतना ही कमजोर था । बल्कि गौरी मुझसे ज्यादा सहज थी यहाँ । क्या यह मेरी अतिरिक्त सजगता थी, जो मुझे और नर्वस कर रही थी ? इसका आभास मुझे सारे रास्ते इन देहातियों को देखकर भी होता था जो मुझसे कहीं ज्यादा निश्चिन्त लगते थे, मेरी किताबी पढ़ाई को कमतर सिद्ध करते हुए । जबकि मैं उन्हें देहाती और गँवार ही मान रहा था, अपने से हर हाल में पिछड़ा, पर मैं गलत था; क्योंकि उनके पैंतीस-चालीस उम्र के चेहरों में कुछ था जो मेरे नौसिखिएपन पर भारी था । मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या था ? उनका अनुभव ? दु:ख और कष्टों से जूझने का लम्बा और लगातार अनुभव, जिसे कोई किताब नहीं, सिर्फ और सिर्फ जीवन सिखाता है ।
कल रात खाने के लिए मैं स्टेशन के बाहर के एक ठेले से ब्रेड-आमलेट ले आया था । वे छह लोग गाँव से अपने साथ लाए एक मोटरे से अंगाकर रोटी निकालकर गुड़ के साथ खा रहे थे, बहुत तृप्त भाव से । उनके खाने में एक सुख था । साझा सुख । दो पुरुष, उनकी पत्नियाँ, उनकी अधेड़ माँ और छह-सात साल की उनकी एक बेटी का साझा सुख । मैं पा रहा था उनके इस साझे सुख को तोड़ पाना बहुत कठिन है ! ये अपना गाँव छोड़ आए हैं, यहाँ से कुछ कमाकर लौट जाने के लिए । और एक दिन यहाँ से लौटकर जाने का इनका विश्वास कितना सहज और गहरा है! और कितना मजबूत ! जैसे बरसों से इनके जीवन में यही होता आ रहा हो... ।
और मुझे देखो, इनसे आर्थिक रूप से अधिक सक्षम होने के बाद भी मेरे भीतर वैसा विश्वास नहीं !
बरामदे के उस कोने में जब मैं पहुँचा, दीदी तैयार बैठी थी, मानों अभी ही उसका इण्टरव्यू लिया जाना हो ! वह हल्के आसमानी रंग की साड़ी पहने थी, जिस पर गहरे नीले रंग का कंट्नस्ट बार्डर था । चेहरे से सफर की थकान उतर चुकी थी, और नई जगह जाने का उत्साह दिखता था । मैंने पाया, आज गौरी अच्छी लग रही है, बावजूद अपने चेहरे पर हमेशा नजर आने वाले एक बचपने के ।
``अरे, तुम तैयार हो गई, इतनी जल्दी ?''
``तू भी तैयार हो जा जल्दी । हमको दस बजे तक वहाँ पहुँचना है ।'' गौरी मुझसे कहती है । छत्तीसगढ़ी में । हम छत्तीसगढ़ी में ही बात करते हैं, घर हो या बाहर ।
``मेरा क्या है, अभी हो जाता हूँ ।'' मेरा थोड़ा लापरवाह जवाब, जिसमें निहित है कि तुमको मेरे बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं, मुझको पता है कि कब क्या करना है ।
``टिकिट कटा लिया ?'' वह पूछती है ।
``नहीं । कटा लूँगा । अभी टिकिट-खिड़की कहाँ खुली है ?''
``जल्दी कटा लेना । यहाँ तो हर काम में बहुत भीड़ है ।''
``हाँ, कटा लूँगा ।'' मैं उसे आश्वस्त करना चाहता हूँ, क्योंकि देख रहा हूँ, उसका विश्वास, आत्म- विश्वास दोनों गड़बड़ा रहे हैं । ऐसा होने पर वह कुछ ज्यादा ही पूछने या सवाल करने लग जाती है । तब उसे यह बोध नहीं रहता कि कुछ सवाल अपने लिए भी होते हैं जिनके उत्तर जरा सा सोचने पर मिल जाते हैं । पर नहीं, वह फिर पूछेगी, क्योंकि पूछे बिना उसे चैन नहीं मिलता । सत्ताइस बरस की अबोधनुमा लड़की... मानो किसी कारण से चौदह-पन्द्रह की मानसिक दशा में ही अटक गई हो... ।
हमारे ग्रामीण सहयात्री अपना सामान समेट रहे हैं । सामान क्या, पूरी गृहस्थी ! उनके इतने सारे सामानों के कारण मेरे भीतर उनके प्रति एक चिढ़ बैठ गई है... कि ये कौन-सा तरीका है सफर करने का ? पूरा घर लादे लिए जा रहे हो ! दूसरों को कितनी दिक्कत होती है, इसकी बिल्कुल भी चिंता नहीं ! पूरे रास्ते मुझे यह खलता रहा है, और अपनी चिढ़ को मैंने प्रकट भी किया है । पर इससे कुछ होना-जाना नहीं । वे अपना मामला अपने हिसाब से तय करेंगे ।
... प्लास्टिक की खादवाली चार सफेद बोरियाँ, जिनमें दो में चावाल हैं, बाकी दो में उनकी गृहस्थी का सामान... गंज, कड़ाही, थालियाँ, लोटा, गिलास आदि से लेकर एक स्टोव और मिट्टी तेल की एक प्लास्टिक केन । दो पुराने टिन के बक्से हैं, जिन पर पेंट किए चटखीले फूल बदरंग होकर जंग खाए धूसर रंग में घुल-मिल गए हैं । एक बक्से में ताला लगा है जबकि दूसरे की कुंडी में तार का टुकड़ा बँधा है । इनमें शायद इनके कपड़े-लत्ते होंगे । यही है इनकी छोटी, बेपर्द गृहस्थी । मोबाइल गृहस्थी । जगह-जगह इनके साथ घूमती-भटकती गृहस्थी । कभी लखनऊ, कभी आगरा, कभी दिल्ली, कभी होशियारपुर... ।
छत्तीसगढ़ के हर बड़े स्टेशन में इन्हें देखा जा सकता है, अपने ऐसे ही माल-असबाब के साथ, हर साल... । बाढ़ या अकाल के साल इनकी संख्या बहुत बढ़ जाती है... टिडि्डयों की मानिंद दिखने लगते हैं ये... । साल के छह महीने खेती कमाने के बाद ये निकल जाते हैं, जहाँ इन्हें काम मिल जाए... कुछ महीने मजदूरी के बाद रुपये कमाकर ये अपने गाँव लौट आएँगे, प्रवासी पक्षियों की तरह... ।
``तुम लोग नोएडा कैसे जाओगे ?'' मैं पूछता हूँ ।
``टेम्पो करके जाएँगे, बाबू ।'' साँवला अधेड़ मुस्कराकर कहता है । वह इस समय अपना कड़े रेशे वाला काला कम्बल तहा रहा है ।
``बड़ दूरिहा हे बेटा, इही पायके टेम्पो करत हन, नहीं त हम मन रेंगत चल देतेन !'' उसकी बुढ़िया माँ कह रही है हँस के । ...सच कह रही है वो, कि हम तो पैदल ही चले जाते । इनका वश चले तो सारा जहान ही पैदल घूम लें ! दूरी इनके लिए मायने नहीं रखती, पैसा मायने रखता है जो ये मुश्किल से हासिल कर पाते हैं । उनका सामान बँध गया । वे अब हमसे विदा ले रहे हैं ।
वह बूढ़ी माँ और उनकी दोनों बहुएँ दीदी से बहुत घुल-मिल गए थे । खुद गौरी भी । वे कह रही हैं दीदी से, बहुत आत्मीयता से- ``जाथन बेटी ! दुरुग आबे त हमर गाँव आबे ! दया-मया धरे रहिबे !''
परिवार के पुरुष मुझसे यही कह रहे हैं, हँसकर । अपनी गँवई सरलता में ।
``हौ, तुहू मन आहू हमर घर दुरुग में ।'' दीदी भी उनसे हँसकर वैसी ही सरलता से कह रही है । इस बात को बिल्कुल भूले हुए कि अभी कुछ ही देर में ये दुनिया की बड़ी भीड़ में न जाने कहाँ खो जाएँगे... शायद हमेशा-हमेशा के लिए । फिर कभी नहीं मिलने के लिए, सिर्फ भूले-भटके कभी याद आ जाने के लिए ।
अब मुझे लगा, छत्तीसगढ़ हमसे बिछड़ रहा है... । छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से हमारे साथ आया एक गाँव,
उसकी सहज-सरल गँवई संस्कृति हमसे बिछड़ रही है... अपनी आत्मीयता से हमें विभोर किए हुए... ।
मैंने दीदी को देखा, वह उन्हें तब तक देखती रही जब तक वे गेट के बाहर नहीं चले गए । उसकी मुस्कुराहट में एक उदासी और अजीब-सा खोया-खोयापन था । दिल्ली को वह बिल्कुल भूल चुकी थी इस समय ।
एक पल के लिए मुझे सूझा कि उसे याद दिलाऊँ कि वह दिल्ली में है... पर लगा, दिल्ली की याद दिलाना अभी उसको आहत करना होगा, एक अन्याय होगा । ऐसे समय में दिल्ली को दूर रखना ही ठीक है । दिल्ली को हर समय अपने साथ रखना एक बड़ी बीमारी है... कई छोटी-बड़ी बीमारियों से मिलकर बनी एक बड़ी और खतरनाक बीमारी, जिसका ठीक होना मुश्किल होता है... ।
ये लड़की दिल्ली में रहेगी ?
मैंने शायद सौवीं बार यह सोचा होगा... या शायद हजारवीं बार ! मैं बहुत अविश्वास से अपने सामने की सीट पर बैठी गौरी को देख रहा था, जो ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रही थी, और ऐसे खोई हुई देख रही थी जैसे उसे अभी देर तक सिर्फ यही करना हो ! सुबह साढ़े छह की `शटल' इस समय अपनी पूरी स्पीड में भाग रही थी । खिड़की के शीशे गिरे हुए थे, फिर भी ठंडी हवा नीचे से सेंध लगाकर घुसी आ रही थी । ट्रेन उसी दिशा की ओर जा रही थी जिधर से हम आए थे । एक पल के लिए मुझे लगा, हम लौट रहे हैं... ।
फरीदाबाद, ओल्ड । हम वहीं जा रहे थे ।
``दो टिकट फरीदाबाद !'' मैंने भरपूर आत्म-विश्वास का प्रदर्शन करते हुए टिकट काउण्टर पर बैठे क्लर्क से कहा था । लेकिन उस फ्रेंच-कट दाढ़ी वाले गोरे क्लर्क ने अपने चश्मे के भीतर से मुझे एक पल घूरकर पूछा था- ``फरीदाबाद ओल्ड कि न्यू ?'' मैं इस पर चकरा गया था । ओल्ड कि न्यू ? मुझे इसका कोई आइडिया नहीं था । हमें जाना है सेक्टर-१७ । अब यह ओल्ड है या न्यू, नहीं पता । मैंने दसियों बार गैरी के कॉल-लेटर में संस्था का एड्रेस पढ़ा था, उसमें कहीं ओल्ड या न्यू नहीं लिखा है, फिर ये क्या चक्कर है ? इधर क्लर्क के घूरने में मेरे प्रति चिढ़ बढ़ती जा रही थी, सो मैंने बिना सोचे कह दिया, ``ओल्ड ।'' क्लर्क ने टिकट बना दिए । इससे ज्यादा वह मेरी कोई सहायता करने का इच्छुक नहीं था । मुझे लगा, टिकट देने के बाद जैसे उसने मुक्ति की साँस ली है, मुझसे पीछा तो छूटा !
ट्रेन में मुझे आश्चर्य था कि अपेक्षित भीड़ नहीं है । भीड़ क्या, पूरी सीटें लगभग खाली हैं । शायद इतनी सुबह के कारण । और बगैर भीड़ और धक्का-मुक्की के दिल्ली के ट्रेन की कल्पना करना मेरे लिए मुश्किल था । हमारे डिब्बे में मुश्किल से आठ-दस आदमी रहे होंगे । मेरे दाएँ कोने की सीट पर एक अधेड़ पुलिसवाला आराम से सो रहा था, अपना मोटा भूरा कोट पहने । शायद जी.आर.पी. का कर्मचारी हो, रात पाली ड्यूटी से घर लौटता हुआ । मुझे सोया हुआ पुलिसवाला एक जागे हुए पुलिसवाले से ज्यादा अच्छा लग रहा था । लगता था, अगर वह जाग गया तो उसके जागने के साथ ही उसका `पुलिस-मैन' भी जाग जाएगा, उसके सिरहाने पड़ी बेंत भी जाग जाएगी, समूचा थाना जाग जाएगा, और वह ऐसा शान्त और निर्विकार नहीं नजर आएगा । तुम्हारे सामने कोई पुलिसवाला सोया हो, तो तुम भी वही शान्ति महसूस कर सकते हो जो मैं महसूस कर रहा था ।
हवा में जनवरी के अन्तिम सप्ताह की ठंडकता थी । बहुत । जब छू जाती तो हम सिहर उठते । दिल्ली की ठंड के बारे में हमने अभी तक केवल सुना था, अब महसूस कर रहे थे । फिर भी लगा, हम किस्मत वाले हैं जो शीतलहर नहीं चल रही है । हमारा बचाव अपने साधारण गर्म कपड़े में हो जा रहा है । दीदी ने कत्थई शॉल कस के लपेट रखा है, और मैं पूरी बाँह का स्वेटर पहने हूँ, हल्के आसमानी रंग का । यह हमने यहाँ आने के पहले ही खरीदा है- दिल्ली की ठंड से मुकाबले के लिए ।
मेरा ध्यान हमारे यहाँ आने के मकसद पर आया । गौरी का इण्टरव्यू । सुबह के दस बजे का समय दिया है । दीदी का इण्टरव्यू-लेटर मेरे पैंट की जेब में पड़ा है । मटमैले भूरे रंग के लिफाफे के भीतर का वह कागज, जिसका उसे पिछले तीन महीने से इन्तजार था । यह एक प्रतिष्ठित स्वयं-सेवी संस्था का इण्टरव्यूलेटर है, जो अनाथ बच्चों के लिए काम करती है । मैं ट्रेन में इस समय दीदी के चेहरे पर अपने साक्षात्कार को लेकर थोड़ी चिंता या गंभीरता देखना चाहता था, जिसके लिए हम इतनी दूर आए हैं । पर यह नदारद ।
गौरी खिड़की के बाहर के दृश्यों में ही इतना रमी थी मानों भूल गई हो, कहाँ आई है और किसलिए । मुझे यह देखकर पहले थोड़ी चिंता हुई, फिर गुस्सा आने लगा । मैंने उसका ध्यान हटाने के लिए पूछा, ``गौरी, तुम्हारी तैयारी है न पूरी ?''
``हाँ, कर ली हूँ,'' उसका संक्षिप्त जवाब ।
अब मैं नया प्रश्न ढूँढ़ने लगा । और झल्लाया मन ही मन- बेवकूफ लड़की ! इसका कुछ नहीं हो सकता । वह अभी भी बाहर के दृश्यों को बच्चों की उत्सुकता से देख रही थी, और अब उसके चेहरे पर मौजूद यह भोलापन मुझे चुभने लगा था । ...तो हमारा इतनी दूर आना व्यर्थ हो जाएगा ? भूल गई कि उसे नौकरी की कितनी सख्त आवश्यकता है ? और खुद भी तो बाबू से लड़कर यहाँ आई है ! बाबू, जाने क्यों, नहीं चाहते थे कि दीदी इतनी दूर जाकर काम करे- ``अभी यहाँ एक स्कूल में पढ़ा तो रही है, फिर क्या जरूरत है दिल्ली जाने की !'' लेकिन बाबू भूल रहे थे कि एक छोटे से प्राइवेट स्कूल की अस्थायी और बहुत कम वेतन वाली नौकरी के भरोसे जीवन नहीं काटा जा सकता । गौरी और मैं दोनों ही समझ रहे थे कि यह अच्छा अवसर है, नियुक्ति शायद आगे चलकर स्थायी हो जाएगी । और मैं पा रहा था, यह काम गौरी के स्वभाव और योग्यता के हिसाब से भी ठीक है... ।
अब मैं यहाँ की प्रतिस्पर्धा के बारे में सोच रहा था, जिसका कोई ठोस और निर्धारित रूप मेरे सामने नहीं था । मुझे पता है कि यह दिल्ली है । देश की राजधानी । देश भर के प्रतियोगी आए होंगे । उनसे मुकाबला । और हमेशा लगता कि दूसरे निश्चय ही हमसे ज्यादा अच्छे हैं- रंग-रूप में ही नहीं, शिक्षा- दीक्षा, परवरिश, ज्ञान और व्यवहार में भी, ...कि हममें ढेर सारी कमियाँ हैं... कि हम एक बहुत पिछड़े परिवार से हैं... आर्थिक और मानसिक दोनों स्तर पर । पता नहीं क्या और कैसे होगा!... गौरी इण्टरव्यू बोर्ड में बैठे अधिकारियों को प्रभावित कर सकेगी, सचमुच?
मुझे इण्टरव्यू के लिए प्रतियोगी पत्र-पत्रिकाओं की ढेर सारी बातें याद आने लगीं जो वे इण्टरव्यू में सफलता के लिए बताते हैं, जिन्हें अपनी बेरोजगारी के दिनों में पब्लिक-लाइब्रेरी में बैठकर मैं पढ़ता रहता था । ये सफलता के कुछ नुस्खे बताते, आपका आत्म-विश्वास बढ़ाते । मसलन ये बताते कि इण्टरव्यू कक्षा में आपको कैसे प्रवेश करना है, कि आपके जूते खट-खट की आवाज करने वाले न हों, आपकी हेयर स्टाइल कैसी हो, आपके चेहरे पर बोर्ड-मेम्बर को नमस्कार करते वक्त कितने सेंटीमीटर की मुस्कान होनी चाहिए, कि आपके शर्ट और पैण्ट के रंग बहुत सौम्य होने चाहिए, कि आप उनके सामने सर झुकाकर या आँखें चुराकर बात ना करें, खुद को बहुत आत्म-विश्वास और स्पष्टता से प्रस्तुत करें, मेज पर अपनी उँगलियाँ न बजाएँ, आपके बातचीत का लहजा संतुलित, सहज और आत्मीय होना चाहिए एक गरिमामय ढंग से... । जिन सवालों के जवाब आपको नहीं आते हों, स्पष्ट बता कर क्षमा माँग
लें, यह आपके गोल-मोल या अस्पष्ट जवाब की तुलना में ज्यादा प्रभावी होगा । और इण्टरव्यू समाप्त होने के बाद सभी महानुभावों का मुस्कराकर धन्यवाद देते हुए आपको बाहर निकलना है... ।
लगभग ऐसी ही बातें होती थीं हर प्रतियोगी पत्र-पत्रिकाओं में । पढ़ते हुए मैं कल्पना में खुद को अत्यन्त मेधावी, शालीन और व्यवहार-कुशल उम्मीदवार के रूप में पाया करता था, और किसी काल्पनिक इण्टरव्यू में पाता कि बोर्ड के अधिकारी मेरी योग्यता से बहुत प्रसन्न हैं और मेरा चयन हो गया है... ।
मेरा सपना तब टूटता था, जब म्युनिसिपल लाइब्रेरी का चपरासी मनबोधी लाइब्रेरी बन्द होने के आठ बजे के नियत समय के पहले ही ``चलो, टाइम हो गया'' कहते हुए पत्र-पत्रिकाओं को सहेजना शुरू कर देता और छत पर धीरे-धीरे घूमते बाबा आदम जमाने के पंखों का स्विच ऑफ कर देता । इस समय मनबोधी का चेहरा अजब ढंग से मनहूसी और कड़वाहट से भरा लगता था, और वक्र । मानों यहाँ आनेवाले लोग एकदम निठल्ले और फालतू हैं जो यहाँ अपना टाइम-पास करते बैठे हैं! और कड़के इतने कि कभी कोई एक कप चाय के लिए भी नहीं पूछता !
...मैं नहीं जान पा रहा था, इस समय गौरी के मन में क्या चल रहा है । सोचा, उसे अपने पढ़े हुए को बताऊँ... । पर मेरे ज्ञान बघारने से वो कहीं और नर्वस न हो जाए? उसे घर में ऐसी बातें कहता ही रहता हूँ कि वह अपना आत्म-विश्वास बढ़ाए, खुद को ज्यादा मजबूत बनाए... । तब अभी ये सब कहने का क्या तुक? मैं सहसा मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगा कि इसका भला हो जाए, हालाँकि भगवान जैसी किसी चीज पर मेरा विश्वास बिल्कुल नहीं है, इसके बावजूद यह हो रहा था, अपने-आप ।
`शटल' बहुत तेजी से दौड़ रही है... ।
धड़-धड़-धड़-धड़...धड़-धड़-धड़-धड़... ।

कैलाश बनवासी 
४१, मुखर्जी नगर, सिकोला भाठा, दुर्ग-४९१००१ (छत्तीसगढ़) मो. ०९८२७९९३९२०

6 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी बड़ी पहचानी लगी, प्लेटफार्मों में पूरा भारत दिखता है, जीता हुआ।

    जवाब देंहटाएं
  2. हिंदी कहानी के इस सशक्‍त छत्‍तीसगढ़ी हस्‍ताक्षर को बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. chhattisgaht ke is kathakar ko pranam jis ne c g ko naya ayam diya ,badhyi

    जवाब देंहटाएं
  4. उन्हें बहुत बहुत शुभकामनायें !

    जवाब देंहटाएं
  5. अगर आवाज का रंग होता........खाने का साझा सुख ........मनबोधी का चेहरा .......
    लेखन शैली मन छू गई.

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...