विमल कुमार पाठक के होने का मतलब: जो तेरी बज्म से निकला वो परीशां निकला (Dr. Vimal Kumar Pathak) सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

विमल कुमार पाठक के होने का मतलब: जो तेरी बज्म से निकला वो परीशां निकला (Dr. Vimal Kumar Pathak)

छत्‍तीसगढ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. विमल कुमार पाठक विगत कुछ वर्षों से बेहद आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं । पिछले दिनों मैं उनसे मिलने उनके घर गया था तो उनका हाल देख-सुनकर मुझे दुख के साथ ही अत्‍यंत आश्‍चर्य हुआ । लगातार दुर्घटनाओं एवं बीमारियों में पानी की तरह पैसा बहाने के बाद आजकल डॉ. पाठक छत्‍तीसगढ शासन के द्वारा साहित्‍यकारों को देय न्‍यूनतम मानदेय एवं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों के पारिश्रमिक पर गुजारा कर रहे हैं । एक जमाने में डॉ. पाठक भिलाई स्‍पात संयंत्र के प्रसार अधिकारी हुआ करते थे तब उनके नाम का डंका संपूर्ण छत्‍तीसगढ में लोक कला व साहित्‍य के पुरोधा के रूप में बजती थी । संपूर्ण विश्‍व में लौह उत्‍पादन के लिए अनेकों कीर्तिमान स्‍थापित कर चुके भिलाई स्‍पात संयंत्र के सामुदायिक विकास विभाग के प्रमुख की क्‍या हैसियत हो सकती है इसकी कल्‍पना आप स्‍वयं कर सकते हैं, ऐसे वैभवपूर्ण पद पर कार्य कर चुके डॉ. पाठक इस हाल पर भी पहुंच सकते हैं, सहसा विश्‍वास नहीं होता, किन्‍तु यह नियति है ।

यहां मैं डॉ. विमल कुमार पाठक पर केन्द्रित भोपाल से प्रकाशित पत्रिका 'संकल्प रथ' के कुछ अंश आदरणीय संपादक श्री राम अधीर जी से साभार प्रस्तुत कर रहा हूं -


रायबरेली के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. ओम प्रकाश सिंह नें संकल्‍प रथ में लिखा है ....... डॉ. विमल कुमार पाठक परम्‍परा से जुडे हुए प्रेम, सौंदर्य और दर्शन के गीतकार हैं । इन्‍होंने हिंदी गीतों में आंचलिक संवेदना को उभार कर गीत की सच्‍चाई की खिडकी के पट खोले हैं और छत्‍तीसगढी गीतों की धुन पर रागात्‍मक एवं लयात्‍मक सृष्टि की है । डॉ विमल कुमार पाठक मूलत: गीतकार है । इनके गीतों में भक्ति के स्‍वर मुखरित हुए हैं । इन गीतों की स्‍वर साधना तथा छंद योजना भक्तिकालीन कवियों की परम्‍परा का स्‍मरण कराती है । अंतर्मन के दरवाजे खोलकर प्रकृति से तादात्‍म्‍य बनाते हुए विमय के गीत श्रद्धा और विश्‍वास की जमीन पर आकार लेते हैं उनमें प्रेम और श्रद्धा का योग है ।.......

....... डॉ विमल ने प्रेम और श्रृंगार के गीत भी लिखे हैं । ये गीत उनके युवा मन के हैं जो समय और अवस्‍था की पहचान देते हुए युगबोध के साथ छायावादी श्रृंगार प्रियता की बांध पर खडे नजर आते हैं । इनमें मनुष्‍य के समूचे प्रेम, सौंदर्य और श्रृंगार भावना की रति-गति देखी जा सकती है । यथा

मुझमें तुम यूं मिली कि जैसे

गंगा में जमुना जल ।

आंखों में यूं रमी कि जैसे

आज लिया हो काजल ।

डॉ. विमल पाठक भी इस भू-मण्‍डलीयकरण के परिवर्तन के प्रति सचेष्‍ट दिखाई पडते हैं । वे अपने समय की सामाजिक विकृतियों एवं विद्रूपताओं से जूझने के लिए निरन्‍तर संघर्षरत दिखाई पडते हैं ।


छतरपुर के साहित्‍यकार डॉ. गंगा प्रसाद बरसैया लिखते हैं -

डॉ. विमल कुमार पाठक छत्‍तीसगढ के सुपरिचित गीतकार हैं । उन्‍होंने काव्‍य यात्रा छठवें दशक में प्रारंभ की और सातवे दशक के अंक तक उन्‍होंने पर्याप्‍त लोकप्रियता और प्रतिष्‍ठा अर्जित कर ली थी । हिंदी और छत्‍तीसगढी में वे समान गति से गीतों की रचना करते हुए लोक-जीवन और समाज की विविध प्रसंग विधाओं को बडी मधुरता से ढाल रहे थे ।

श्री पाठक कोरे कवि और गीत-गायक ही नहीं, अपितु सक्रिय समाजसेवी भी रहे हैं । पृथक छत्‍तीसगढ राज्‍य का आंदोजन हो या श्रमिकों-दलितों के हित में संघर्ष करने की बात-उन्‍होंने बढ-चढकर भाग लिया और कई बार अगुवाई भी की । कवि के साथ ही वे समन्वित चेता और जनजीवन के कवि है ।यह सब उनकी काव्‍य-रचनाओं में देखा जा सकता है । छत्‍तीसगढ के जुझारू नेता स्‍व. डॉ. खूबचन्‍द बघेल ने उनके बारे में लिखा था आपमें विपुल प्राणशक्ति है । आप जैसे युवक छत्‍तीसगढ का माथा उंचा कर सकेंगे ऐसा मुझे विश्‍वास है ।

प्रेम, सौंदर्य, श्रृंगार, प्रकृति और जनजीवन की गीत-रचयिता श्री पाठक विगत दो-तीन वर्षो से घनघोर यातना का जीवन जी रहे हैं । दूसरों के दुख दर्दो को बांटने के लिए दौडकर आने वाला यह कवि आज अपने ही दुख-दर्दो से बेहद परेशान है । अपनी पीडा व्‍यक्‍त करते हुए वे स्‍वयं कहते हैं -

पिछले ढाई वर्षो से मैं लगभग अपंगता की स्थिति में चल रहा हूं । पांच बार आपरेशन कराकर निढाल हो गया हूँ । निर्धनता का जीवन जीने को बाध्‍य हूं.... लकवाग्रस्‍त बाये भाग से पूर्णत: लाचार पत्‍नी पर खर्च करके बिना घर, बिना बैंक बैलेंस, एक लाचार व्‍यक्ति की जिन्‍दगी जी रहा हूँ ।

इन शब्‍दों में निहित पीडा और आत्‍मवेदना को सहज ही समझा जा सकता है । जिस व्‍यक्ति ने सन् 1956 से साहित्यिक गतिविधियों और सर्जना से अपने को जोडा और सन 1975 तक छत्‍तीसगढ के प्रमुख कवियों की प्रथम पंक्ति पर प्रतिष्ठित रहा । जिसने औरों का दुख-दर्द कम करने का ठोस अभियान चलाया, उसकी आज यह स्थिति है । यही सब देखकर कई बार अनेक सरस्‍वती-पुत्र विचलित हो जाते हैं ।

काव्‍य-परिदृश्‍य पर उभरा एक नाम में इलाहाबाद के डॉ. तिलकराज गोस्‍वामी कहते हैं -

बाबा । जीवन संध्‍या आई ।

सोने को है तन का पंछी ।

शांति चतुर्दिक छाई ।

अब बटोर कर देखो ।

जीवन भर क्‍या हुई कमाई ।

है हिसाब में पूरी सख्‍ती

बिल्‍कूल नहीं ढिलाई

नफा हुआ नुकसान हुआ

करनी होगी भरपाई ।

डॉ. विमल पाठक ने अपनी कतिपय कविताओं में प्रकृति, ग्रामीण संस्‍कृति के भी मोहक चित्र प्रस्‍तुत किये हैं । आज की सामाजिक व गंदी राजनीति से उत्‍पन्‍न स्थितियों का भी उन्‍होंने उल्‍लेख किया है । वर्तमान हालात से वह दुखी है । किन्‍तु निराश नहीं है । उनकी आशावादिता उनकी कविताओं से प्रकट होती है । उनकी काव्‍य की भाषा बडी सहज, सरल व सुबोध है ।

अपने एक लेख में स्‍वयं विमल जी नें लिखा - मैं विमल पाठक यानी दुख ही जीवन की कथा रही....

....... स्‍व. डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन के संचालन में कई बार काव्‍य पाठ करने के सौभाग्‍य मैंने प्राप्‍त किए । हिन्‍दी गीतों के शहंशाह कहे जाने वाले गोपालसिंह नेपाली, गीतों के राजकुमार के रूप में प्रख्‍यात नीरज, राष्‍ट्रीय ओज और वीर रस की कविताओं के यशस्‍वी कवि देवराज दिनेश, रामावतार त्‍यागी, बलवीर सिंह रंग,मुकुट बिहारी सरोज, काका हाथरसी, डॉ. शुभनाथ सिंह, कैलाश वाजपेयी, रूप नारायण त्रिपाठी, जैसे राष्‍ट्रीय स्‍तर के गीतकार कवियों के साथ मैंने अनेक मंचों में आमंत्रित कवि के रूप में छत्‍तीसगढी गीतों के माध्‍यम से अपना लोक भाषायी ध्‍वज बडी शान से फहराया और छत्‍तीसगढ के प्रतिष्ठित कवियों आनंदी सहाय शुक्‍ल, डॉ. नंदुलाल चोटिया, मुकीम भारती, कोदूराम दलित, राधिक नायक, दानेश्‍वर शर्मा, हरि ठाकुर, विद्या भूषण मिश्र, नारायण लाल परमार , सुरजीत नवदीप, हरीश निगम, डॉ. शिव कुमार मधुर बटुक चतुर्वेदी, राम अधीर, मुस्‍तफा हुसैन, शंकर राव नायडू, रवि शंकर शुक्‍ल, कृष्‍ण रंजन, पवन दीवान,लक्ष्‍मण मस्‍तुरिया, रामेश्‍वर वैष्‍णव, मुकुन्‍द कौशल आदि के साथ काय पाठ करते । .......

पद्मश्री स्‍व. मुकुटधर जी पांडेय ने कहा-

कविता वही है जो हृदय को स्‍पर्श करे । श्री विमल कुमार पाठक की कविताएं इस निष्‍कर्ष पर खरी उतरती है । उनकी कुछ कविताओं को पढकर मैं भावाभिभूत हो गया और मेरी आंखें आर्द्र हो उठीं ।

उच्‍च कोटि की कला वास्‍तविकता तक ही सीमित नही होती, वास्‍तविकता से आगे बढकर समाज के सामने एक आदर्श प्रस्‍तुत करती है । पाठक जी की कविताओं में ये मणि-कांचन योग पाया जाता है ।

जमीन से जुडे खांटी कवि : डॉ. विमल पाठक में वरिष्‍ठ साहित्‍यकार लक्ष्‍मीनारायण पयोधि जी लिखते हैं -

दीप के पर्व पर हँसते हुए दीपों की कसम,

हर एक शख्‍स के होंठों पे हँसी लाना है ।

कॉपती-सी, भागती-सी,

मुंह उघारे, हॉफती सी

लो चली हवा

कि सांझ आ गयी ।

अब बटोर कर देखो,

जीवन भर क्‍या हुई कमाई ।

है हिसाब में पूरी सख्‍ती,

बिल्‍कुल नहीं ढिलाई ।

बाबा, जीवन संध्‍या आई ।

डॉ. विमल पाठक जमीन से जुडे खांटी कवि है, इसलिए लोक-सम्‍वेदना की उन्‍हें गहरी समझ है । वे अपने कौशल से हिन्‍दी गीतों में लोक तत्‍वों की इतनी बारीक बुनावट करते हैं कि वे लोक गीतों की आभा से दमक उठते हैं ।

पाठक जी अउ छत्‍तीसगढी कविता के रंग-ढंग में बी.डी.एल. श्रीवास्‍तव लिखते हैं -

छत्‍तीसगढी साहित्‍य गगन के क्षितिज ले निकल के झॉंकत पहाती के सुकुवा असर डॉ. विमल कुमार पाठक मन लगथे । चक चक ले चमकत अपन तन ले निकलते अंजोर के सगे संग मनखेच मन के नहीं बल्कि, छत्‍तीसगढ के धरती के जम्‍मों जीनिस मा जिनगानी के एक नवा जोस ला भरत नवा-नवा रद्दा ला गढत अउ देखावत हे । छत्‍तीसगढी भाखा के इही दुलरूवा, सरसती माई के मयारूक, परवा के धारन डॉ. विमल कुमार पाठक ला भला अइसन कोन छत्‍तीसगढिया होही जेमन उखरे हिरदे कटोरा ले निकले कान ला सुहात सुघ्‍घर झनकार ला नई सुनें होही ।

डॉ. पीसीलाल यादव अपने आलेख लोक जीवन के कवि डॉ. विमल पाठक

में लिखते हैं - ...... छत्‍तीसगढी कविता लोक जीवन के कविता पर ए अउ लोक जीवन के कवि ऑय डॉ. विमल पाठक । जइसे कसेली के दुध छेना के अधरहा म चूर के मीठ हो जथे अउ संगे संग कसेली ह घलो सिझ जथे । ठउका ओइसने डॉ. विमल पाठक के जिनगी म अनुभव ह सिझे हे ।

विमल कुमार पाठक की साहित्यिक यात्रा में साहित्‍यकार जमुना प्रसाद कसार नें कहा -

....... बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस अंचल के जुझारू नेता, कुशल पत्रकार एवं अपने ढंग के निराले हिन्‍दी छत्‍तीसगढी के कवि विमल कुमार पाठक एक ऐसे साहित्‍यकार हैं जो स्‍वत: को प्रचार-प्रसार से दूर रखते हुए भी बेहद लोकप्रिय है । मेरी जानकारी के अनुसार, गंवई के गीत, हिन्‍दुस्‍तान एक है, योजना की सिद्धि, छत्‍तीसगढिए जाग गए हैं एवं छत्‍तीस गीत उनके प्रकाशित कविता संग्रह है । विमल पाठक के इन छत्‍तीस गीतों में अठ्ठारह गीत हिन्‍दी के एवं अठारह गीत छत्‍तीसगढी भाषा के हैं । वैसे तो युग युगान्‍तर से हम कहते आ रहे हैं कि साहित्‍य समाज का दर्पण होता है । और यह ठीक भी है किन्‍तु मेरे अन्‍तर्मन में कभी-कभी विद्रोही स्‍वर गूंजने लगते हैं । सोचने लगता हूँ कि यदि यही एक मात्र सत्‍य है तो उनका क्‍या होगा जो कहते हैं :-

लीक-लीक गाडी चलै, लीकहिं चले कपूत ।

लीक छोड तीनों चलै, शायर-सिंह सपूत ।

विमल कुमार पाठक का यही दृष्टिकोण है कि यदि बीन का एक तार टूट जाय तो उसे तत्‍काल निकाल फेंको और नया तार लगा दो । उसे सुधारने की माथापच्‍ची मत करो । पाठक जी हमेशा हिम्‍मत के साथ नवीन पथ खोजने के हिमायती है । तभी इस देश को नवीन रोशनी मिल सकती है । ऐसा उनका मानना है । उनके ही शब्‍दों में-

दीप अब हिन्‍द में, ऐसा हमें जलाना है ।

हर एक घर को विमल, रोशनी दिखाना है ।

उनकी कृति गंवई के गीत में श्रृंगार एवं प्रकृति की मधुरिमा पर डा. श्‍याम परमार ने भूमिका में लिखा है कि-धार्मिक विषयों के बाहर जब छत्‍तीसगढी कविता ने पैर रखा तभी से उसकी दशा बदल गई । वर्तमान कवियों को इस ओर प्रेरणा देने वाले श्री प्‍यारेलाल गुप्‍त और श्री द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र । नई धारा के कवियों में जिन्‍होंने छत्‍तीसगढी लेखन को नई दिशा दी उनमें डॉ. विमल कुार पाठक का स्‍थान चिरांकित रहेगा । रूप-सौंदर्य एवं प्रकृति के विभिन्‍न रूपों के अनुपम चित्रकार पाठक जी ने ठेठ छत्‍तीसगढी के सुकोमल शब्‍दों के माध्‍यम से सघन अनुभूतियों को रूपायित करते हुए ग्रामीण-जीवन की सहजता, रसमयी संवेदना एवं उत्‍फुल्‍लकारिणी प्रकृति का मनमोहक वर्णन किया है ।

संकल्‍प रथ के संपादक राम अधीर जी अपने संपादकीय एवं लेख विमल कुमार पाठक के होने का मतलब: जो तेरी बज्‍म से निकला वो परीशां निकला में लिखते हैं -

यह अंक डा. विमल कुमार पाठक पर देकर मुझे अति सुख मिला है । मैंने पाठक जी के जीवन की विविध रंग-रेखाएं देखीं है । कई बार सोचता हूँ कि अगर ईश्‍वर है तो वह मनुष्‍य को एक ही हालात में क्‍यों रहने नहीं देता । या तो सुख से ही रहे या दुखों में ही । दूसरे संदर्भ में मैं कुछ कहना जरूरी मानता हूं जो कि बहुत ही गरिष्‍ठ हो सकता है । पाठक जी में अपनी माटी यानी छत्‍तीसगढ के प्रति असीम प्रेम आस्‍था श्रद्धा है । उनमें इसके लिये त्‍याग की भावना तब भी थी और अब भी है । लेकिन विमल पाठक अपने नाम के अनुरूप जीवन जीने के अभ्‍यस्‍त हो गये हैं । उन्‍हें यह नहीं मालूम कि अगर वह एक दिन में दस लोगों से मिलते हैं तो उनमें नौ मक्‍कार, झूठे अंतरमुखी और स्‍वार्थी हैं । उन्‍होंने जिन-जिन को लाभ पहुंचाया-उनमें से कोई बिरला ही उनके आज के दुख के दिनों में उनके साथ है या उनके दर्द से जुडा है । यह युग ऐसा है कि ऐसी कोई नेकी मत करो जिसे दरिया में डालना पडे । ........

........ मेरी हार्दिक इच्‍छा उन पर अंक देने की रही है वह तब से, जब मैं बरसों बाद उनसे मिला । मैंने अपने सोलह साल छत्‍तीसगढ में व्‍यतीत करते समय पाठक जी के अच्‍छे दिन भी देखें और फिर गिरावट के दिन भी । इन दिनों तो वे घोर गरीबी और संतापों का सामना कर रहे हैं । उन पर अंक एकाग्र कर मैं किसी अहम को नहीं पाल रहा हूँ । यह उनकी प्रतिभा का स्‍वागत करने जैसा है । उनके प्रतिभा संस्‍कार विविधवर्णी है । उन्‍होंने अंचल के कितने ही लोक-कलाकारों को खोजकर निकाला और सार्थक मंच देकर उनको पहिचान दी । .......

....... अंत में गीतकार कवि और मेरे छोटे भाई सदृश्‍य डॉ. विमलकुमार पाठक के प्रति मुक्‍त मन से अपनी समूची आस्‍था- विश्‍वास और स्‍नेह उडेलकर हल्‍का होना चाहता हूं । वे बैसाखियों के सहारे चल रहे हैं । उन्‍हें भले ही इससे दुख होता होगा- लेकिन मुझे नहीं क्‍योंकि भ्रष्‍टाचारियों के इस देश में करोडों लोग मानसिक रूप से बैसाखियो के ही सहारे चल रहे हैं । मैं भी उनमें शामिल हूँ । भले ही आपके साथ कोई न हो मैं तो हूँ ही, यह सच है । .......

...... मुझे इस बात की खुशी है कि अगर मैं मीजाज लगाने बैठूं तो शायद मुझपर रमेश नैयर, विमल पाठक, विनय पाठक और नरेन्‍द्र पारख की जरूर ही काफी देनदारी निकलेगी । और इनसे भी ज्‍यादा स्‍व. भाई जी प्रेमचंद जी.

...... पाठक जी को मुझे उपदेश देने का हक नहीं है । लेकिन एक-दो बातें अगर वे मान लेते हैं तो उनको बहुत ताकत मिलेगी । एक तो वह संसार में आये हैं तो किसी से कोई आशा न रखें कोई काम आये या न आये । और अपने हालात ईश्‍वर के सामने बयान मत कीजिये । क्‍योंकि ईश्‍वर ने आज तक किसी का भला नहीं किया-क्‍योंकि वह किसी का बुरा नहीं करता.... यह हमारे कर्मो का भी फल नहीं है । जब हमारे कर्म बुरे नहीं हैं तो कर्म को दोष क्‍यों दें । आप तो बस यही समझे संसार जिसका बनाया हुआ है-उसमें से हर एक को निराशा मिलती है- जो निराश नहीं होते वे मनुष्‍य है क्‍या बतायें....

मेरे गीत कवि मित्र स्‍व. रामावतार त्‍यागी की ये पंक्तियां अकेले गुनगुना लिया करें संबल मिलेगा ।

एक भी आंसु न कर बेकार

जाने कब समन्‍दर मांगने आ जाय ।

कर स्‍वयं ही गीत का श्रृंगार

जाने देवता को कौनसा भा जाय ।

जीवन परिचय

डॉ. विमल कुमार पाठक

जन्‍मतिथि 6 जनवरी 1938, बिलासपुर

स्‍थायी निवासी- पचरीघाट, बिलासपुर (छत्‍तीसगढ)

शैक्षणिक योग्‍यता: बी.कॉम-1960- सागर वि.वि. एम.ए. हिन्‍दी-1964- सागर वि.वि. बैचलर ऑफ जर्नलिज्‍म-1674- रवि वि.वि., पी.एच.डी. 1984- रवि वि.वि. विषय- छत्‍तीसगढी साहित्‍य का ऐतिहासिक अध्‍ययन, एम.ए. लोक प्रशासन-1984- रवि वि.वि. रायपुर, विद्यासागर (डी.लिट) भागलपुर वि.वि. बिहार द्वारा ।

- हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढी में लगभग 500 गीतों के रचयिता ।

काव्‍य संग्रह प्रकाशित

- गवई के गीत, हिन्‍दुस्‍तान एक है, योजना की सिद्धि हो एवं छत्‍तीसगढिए जाग गये हैं ।

संपादन- चिंगारी के फुल, छत्‍तीसगढी जागरण, गीत- दैनिक छत्‍तीसगढ केसरी, हिन्‍दी दिपीका, दैनिक सांघ्‍य समीक्षक, दैनिक राष्‍टीय विजय मेल

संपर्क : खुर्सीपार जोन 1 मार्केट, आई टी आई के पीछे, सेक्‍टर 11, भिलाई (छ.ग.)

मोबाईल : 09302831304

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म