छत्तीसगढ़ में लोक संगीत के नागरी प्रस्तुति का बीजारोपण

प्रतिवर्ष की भांति 1948 में राजनांदगांव में गुजराती समाज के द्वारा दुर्गोत्सव मनाया जा रहा था। उस समय बीड़ी के व्यापारी मीरानी सेठ के घर के सामने दुर्गा रखा हुआ था। दुर्गा पंडाल में इस वर्ष भी शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम रखा गया था जिसमें रायपुर के प्रसिद्द संगीतकार अरुण सेन आमंत्रित थे। कार्यक्रम के बीच में सुगम और फ़िल्मी संगीत भी रखा गया था ताकि दर्शक शास्त्रीय संगीत से बोर न हों। इसमें खुमानसाव को फिल्मी संगीत की प्रस्तुति के लिए बुलाया गया था। इस कार्यक्रम में खुमान साव ने कुछ फिल्मी गीत प्रस्तुत किए जिसमें 'घर आया मेरा परदेसी' जैसे गाने प्रस्तुत किए गए। कार्यक्रम सुनने वालों ने खुमान संगीत को बहुत पसंद किया। उसी दिन खुमान साव ने यह निश्चय किया कि महानगरों की भांति राजनांदगांव में भी एक आर्केस्ट्रा पार्टी का निर्माण किया जाए। इस कार्यक्रम से ही छत्तीसगढ़ में आर्केस्ट्रा पार्टी की परिकल्पना ने पहली बार पंख पसारा।

इसी वर्ष दुर्गा पक्ष के बाद ही खुमान साव ने खुमान एण्ड पार्टी के नाम से आर्केस्ट्रा पार्टी का गठन किया। उस समय महिलाएं आर्केस्ट्रा में नहीं गाती थीं। जो पुरुष गायक पार्टी में थे उनमे सुंदर सिंह ठाकुर जो बाद में ट्राइबल के सीओ हुए वे सहगल के गीत गाते थे। जयराम शुक्ल जो किशोरीलाल शुक्ला के भतीजे थे और बाद में तहसीलदार हुए वे और संतोष शुक्ला अन्य फिल्मी गीत गाते थे।

खुमान साव के आर्केस्ट्रा पार्टी ने तब धूम मचा दिया था। पूरे छत्तीसगढ़ में 'खुमान एण्ड पार्टी' की मांग आने लगी थी। उनकी पार्टी में धीरे-धीरे लोग जुड़ते गए और 1948 से 50 तक खुमान आर्केस्टा का पूरे छत्तीसगढ़ में काफी धूम रहा। जब संगीत कलाकार बढ़ते गए तब उन्होंने 1952 में 'शारदा संगीत समिति' की स्थापना की जिसमें भी वो संगीत देने लगे। कलाकारों के बढ़ने के बाद 1959 में उन्होंने 'सरस्वती संगीत समिति' का गठन किया और आर्केस्ट्रा पार्टी अनवरत चलती रही। 1954 में जब वे जनपद स्कूल राजनांदगांव में शिक्षक नियुक्त हो गए उसके बाद उन्होंने अंतिम आर्केस्ट्रा पार्टी का जो संचालन किया उसका नाम 'राज भारती संगीत समिति' था, जिसे बाद में उनके शिष्य नरेंद्र चौहान जी चलाने लगे। 1962 में प्रसिद्द लोकसंगीतकार गिरजा सिन्हा और भैयालाल हेडाऊ के साथ मिल कर भी उन्होंने एक संगीत समिति का गठन किया जिसमे फ़िल्मी गीतों के साथ ही छत्तीसगढ़ी गीत भी प्रस्तुत किये जाने लगे। इस प्रकार से छत्तीसगढ़ में लोक संगीत के नागरी प्रस्तुति का बीजारोपण हुआ।
(खुमान साव पर संजीव तिवारी द्वारा लिखे जा रहे कलम घसीटी के अंश)
फेसबुक पर यह प्रस्‍तुति-

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख 'चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख -


झांसी की रानी थी भट्ट ब्राह्मण  
लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश (Bhatt Brahmin Dynasty) की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा (Bajirao Peshwa) गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी (Queen of Jhansi) में मणिकर्णिका (रानी का बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजवंश ब्राह्मणों का है और इस राजवंश की स्थापना भी दक्षिण से हुई है।
 
पंडित विश्वेक्ष्वर भट्ट नें शिवाजी को दी थी छत्रपति की उपाधि
मराठा साम्राज्य के संस्थापक मराठा शासक शिवाजी भोसले के 1674 में छत्रपति की उपाधि ग्रहण करने के समय उनके क्षत्रिय होने पर विवाद हुआ था तब काशी के महान पंडित विश्वेक्ष्वर भट्ट (जिन्हें गागा भट्ट भी कहा जाता है) ने शास्त्रार्थ कर शिवाजी को क्षत्रिय प्रमाणित किया था और उनका राज्याभिषेक करवाया था। उस समय विश्व की सबसे बड़ी दक्षिणा पं.गागा भट्ट Gaga Bhatt को दी गई थी। यह दक्षिणा ही अपने आप में एक छोटे राज्य के बराबर थी। दक्षिणा से स्थापित हुआ यह देश का पहला छोटा ब्राह्मण राज्य था। मराठा राज्य के आधीन रहते हुए इसी छोटे राजवंश ने अपने को विकसित किया। तत्कालीन समय में उत्तर भारत से भट्ट ब्राह्मणों का बड़ी संख्या में महाराष्ट्र माइग्रेशन हुआ। इसी राजवंशी ब्राह्मणों में सन 1700 से 1740 के बीच बाजी राव पेशवा (Baji Rao Peshwa) मराठा सेनापति हुए जो अपनी बहादुरी के लिए बहुत प्रसिद्ध थे।  उन्होंने 41 लड़ाइयां लड़ीं जिसमें एक में भी वे पराजित नहीं हुए। इसी राजवंश ने आगे चलकर अपना विस्तार किया और उसकी एक शाखा में आगे चलकर  बुंदेलखंड के राजा गंगाधर राव नेवालकर की पत्नी (1828-1858) झांसी की रानी लक्ष्मी बाई हुईं जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सन 1857 की लड़ाई लड़़ी और वीरगति को प्राप्त हुईं। आज पूरा विश्व उन्हें नारी सशक्तिकरण का प्रतीक मानता है। उनकी विद्वता की मिसाल यह थी कि उन्होंने न केवल अंग्रेजों को सामान्य शास्त्रार्थ में परास्त किया था बल्कि खुद अंग्रेजों की अदालत में भी उनके शासन को चुनौती दी थी।

आखिर भट्ट ब्राह्मण कैसे (Bhatt are Brahmin)
अब हम अपने मूल प्रश्न पर आते हैं कि आखिर भट्ट ब्राह्मण कैसे (Bhatt are Brahmin) जिन पर कई लेखों में विपरीत टिप्पणियां अंकित हैं। संस्कृत-हिन्दी कोश (वामन शिवराम आप्टे) में भट्टों की उत्पत्ति (bhatt brahmin ki utpatti) के बारे में एक सूत्र दिया गया है- क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां भट्टो जातो..नुवाचकः। इसकी व्याख्या में आगे पढ़ने पर पता चलता है कि विधवा ब्राह्मणी और क्षत्रिय पिता से उत्पन्न जाति भट्ट हुई। अगर इसे सत्य मान लिया जाए तो इस संयोग से उत्पन्न जाति ब्राह्मण नहीं बल्कि क्षत्रिय होगी। जबकि ऐसा कदापि नहीं है सभी भट्ट स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं और तदानुसार आचरण भी करते हैं। वास्तव में भट्टों की उत्पत्ति के लेख से दुर्भावना पूर्वक छेड़छाड़ की गई है। ऊपर दिए गए सूत्र का क्रम परिवर्तित किया गया है जिसके कारण भ्रम की स्थिति निर्मित हुई है और जिससे उसके बाद की कड़ियां नहीं जुड़ती हैं। भट्ट ब्राह्मण वंश में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने वाली जानकारी में यह क्रम ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता का है। इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। 

एतिहासिक पृष्‍टभूमि 
वंशानुगत जानकारी के अऩुसार प्राचीन काल में युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में क्षत्रिय मारे जाते थे। उनकी युवा विधवाओं को ब्राह्मणों को उपपत्नी के रूप में दे दिया जाता था। इस तरह इस जाति का प्रादुर्भाव युद्धों की त्रासदी से हुआ है। यह परंपरा किस सदी तक जारी रही इस बारे में जातीय इतिहास मौन है। जबकि उपरोक्त छेड़छाड़ के बाद जो स्थितियां बन रहीं है इसका कोई प्रमाणिक ऐतिहासिक घटनाक्रम से कोई जुड़़ाव नहीं है। इतिहास में कभी भी ऐसी कोई घटना दर्ज नहीं है जिसमें युवा ब्राह्मणों की बड़ी संख्या में मृत्यु हुई हो और बड़ी संख्या में युवा ब्राह्मणियां विधवा हुई हों जिन्हें क्षत्रियों ने पत्नियों के रूप में स्वीकारा हो तथा नई जाति विकसित हुई हो। वैसे भी प्राचीन भारतीय समाज में प्रतिलोम विवाह वर्जित थे। इसके अलावा मान भी लें कि एकआध घटनाएं किसी कारणवश हुईं भी हों तो उससे कम से कम जाति विकसित नहीं हो सकती है।

शब्दकोश के अनुसार भट्ट के अर्थ 
1. प्रभु ,स्वामी (राजओं को संबोधित करने के लिए सम्मान सूचक उपाधि) 
2. विद्वान ब्राह्मणों के नामों के साथ प्रयुक्त होने वाली उपाधि 
3. कोई भी विद्वान पुरुष या दार्शनिक 
4. एक प्रकार की मिश्र जाति जिनका व्यवसाय भाट या चारणों का व्यवसाय अर्थात राजाओं का स्तुति गान है। 
5. भाट, बंदीजन। 
उपरोक्त अर्थ में देखते हैं कि एक ही शब्द के अर्थ में चार जातियों को एक साथ लपेट दिया गया है भट्ट, भाट, चारण और बंदीजन। भट्ट स्वयं को कुलीन ब्राह्मण घोषित करते हैं वे सम्पन्न हैं उनमें डाक्टर, इंजीनियर,वैज्ञानिक से लेकर मंत्रियों तक के पद पर लोग सुशोभित हैं, दूसरी तरफ चारण जाति मुख्यतः राजस्थान में रहती है। ये चारण जाति स्वयं को क्षत्रिय कुल से संबंधित बताती है, इसके अलावा वे स्वयं को विद्वान बताते हैं तथा उनका अपना इतिहास bhatt brahmin history है। बंदीजन नामक जाति वर्तमान में दिखाई नहीं पड़ती है और रहा सवाल भाट का तो वह पिछड़ी जाति में शामिल पाई जाती है  तथा कहीं-कहीं इसके याचक वर्ग से होने के तो कहीं पर उनके द्वारा खाप रिकार्ड रखने की जानकारी मिलती है। यह जाति छोटे-मोटे व्यवसाय धंधे करती है। इसके अलावा इसके पास बड़ी जमीनें भी नहीं हैं। भाट स्वयं के ब्राह्मण होने का कोई दावा तक प्रस्तुत नहीं करते हैं। अब सवाल उठता है कि जब भट्ट का मतलब विद्वान ब्राह्मणों की उपाधि है तो फिर उस नाम की जाति निम्नतर कैसे हो गई। वास्तव में भट्टों को षड़यंत्रपूर्वक भाट में शामिल बता कर अपमानित करने का प्रयास किया जाता है ताकि उन्हें बदनाम कर उनके समाज में वास्तविक स्थान से पद्-दलित किया जा सके।

भट्टों की जातीय अस्मिता को कैसे तोड़ा मरोड़ा गया है इसका प्रमाण स्वयं शब्द कोश में ही मिलता है। शब्दकोश में भट्टिन शब्द के अर्थ देखें 1. (अनभिषिक्त) रानी, राजकुमारी  (नाटकों में दासियों द्वारा रानी को संबोधन करने में बहुधा प्रयुक्त) 2. ऊंचे पद की महिला 3. ब्राह्मण की पत्नी। उसी प्रकार शब्दकोश का एक और शब्द को लें ब्राह्मणी अर्थ है- 1. ब्राह्मण जाति की स्त्री 2. ब्राह्मण की पत्नी 3. प्रतिभा (नीलकंठ के मतानुसार बुद्धि). ४. एक प्रकार की छिपकली ५. एक प्रकार की भिरड़  ६. एक प्रकार की घास। ऊपर के दोनों शब्दों से ज्ञात होता है कि भट्टिन ऐसी रानी है जो वर्तमान में राजकाज से बाहर है या राजकुमारी है और वो ब्राह्मण की पत्नी है। जबकि ब्राह्मणी का सीधा अर्थ ब्राह्मण की पत्नी से है। अब आप भट्टिन का कितना भी अर्थ निकालने की कोशिश करिए भट्टिन भट्ट की पत्नी नहीं है अगर वह भट्ट की पत्नी है तो पदच्युत रानी नहीं है न राजकुमारी है और न आपके भट्ट की उत्पत्ति सूत्र के अनुसार ब्राह्मण की पत्नी है। जबकि आप किसी भी ब्राह्मण की पत्नी को आज भी भट्टिन नाम से नहीं पुकार सकते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि भट्ट ब्राह्मणों के पारंपरिक वाचिक इतिहास में जो भट्टों की उत्पत्ति (origin of bhatt brahmin) की बात कही जाती है वह सतप्रतिशत सत्य है और शब्दकोश में जो भट्टिन शब्द के अर्थ आए हैं वास्तव में वो प्राचीन काल के ब्राह्मण की दूसरी-पत्नी के संबंध में है। इस प्रकार राजवंशी भट्टिन से उत्पन्न जातक ही भट्ट कहलाए। चूंकि भट्टों का मातृपक्षा राजवंशी रहा है इसलिए यह जाति स्वयं के नाम के साथ राज सूचक शब्द राव लगाना अपनी शान समझती है। इस तरह कहा जा सकता है कि भट्ट अपनी उत्पत्ति से ही कुलीन, सम्पन्न व राजवंशी ब्राह्मण जाति है जिनका भाटों से दूर-दूर का संबंध नहीं है। केवल दो ब्राह्मण समुदायों के बीच चले सत्ता संघर्ष के कारण इस तरह का भ्रम फैलाया गया है।

भट्टों को अपमानित करने के लिए फैलाया गया एतिहासिक भ्रम
आइए देखते हैं भट्टों के विरुद्ध वो ऐतिहासिक कारण क्या हैं जिनके कारण उन्हें अपमानित करने के लिए भ्रम फैलाया गया। वास्तव में प्राचीन काल में विधवा राजकन्याओं और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न राजवंशी ब्राह्मण जाति ने बाद में पिता की वृत्ति में अपना उत्तराधिकार मांग लिया। तब समाजिक बंटवारे में उन्हें पुरोहिती कर्म से पृथक करते हुए वेदों का अध्ययन, ज्योतिष, धर्मशास्त्रों का प्रचार और केवल शिव तथा शिव-परिवार के मंदिरों में पुजारी बनने का अधिकार दिया गया। इसके वर्तमान उदाहरण में नेपाल के पशुपतिनाथ के प्रमुख पुजारी परिवार विजेन्द्र भट्ट तथा इंदौर के खजरानें गणेश मंदिर भट्ट पुजारियों का नाम लिए जा सकते है। महाराष्ट्रीय देशस्थ भट्ट ब्राह्मणों का गणेश उपासना के प्रति आकर्षण भी इसी ऐतिहासिक सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। इस परंपरा के अन्य अवशेष देखें तो उज्जैन महाकाल मंदिर में भी भट्ट ब्राह्मणों की पुरोहितों की भीड़ में तख्तियां भी देखीं जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त इस बात की जानकारी पुरानी पीढ़ी से या फिर कई पुराने रिकार्ड से भी मिल सकती है।

भट्ट ब्राह्मणों का समाज में योगदान  World famous prominent Bhatt Brahmins and their works  प्रमुख भट्ट महापुरूष

राजवंशी भट्ट ब्राह्मणों ने वेदों के अध्ययन के अलावा आगे चलकर वेदों की मीमांसा (वैदिक वाक्यों में प्रतीयमान विरोध का परिहार करने के लिये ऋषि-महर्षियों द्वारा की गई छानबीन ) में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन प्रमुख आचार्यो ने टीकाओं या भाष्यों की रचना की उनमें हैं-

1. सूत्रकार जैमिनि, 2. भाष्यकार शबर स्वामी 3. कुमारिल भट्ट 4. प्रभाकर मिश्र 5. मंडन मिश्र,6. शालिकनाथ मिश्र 7. वाचस्पति मिश्र 8. सुचरित मिश्र 9. पार्थसारथि मिश्र, 10. भवदेव भट्ट,11 भवनाथ मिश्र, 12. नंदीश्वर, 13. माधवाचार्य, 14. भट्ट सोमेश्वर, 15. आप देव,16. अप्पय दीक्षित, 17. सोमनाथ 18. शंकर भट्ट, 19. गंगा भट्ट, 20. खंडदेव, 21. शंभु भट्ट और 22. वासुदेव दीक्षित शामिल हैं। इस तरह हम देखते हैं कि 22 में से 6 भट्ट आचार्यों ने वेदों की मीमांसा की है।

भट्ट ब्राह्मणों के महापुरुषों की उपस्थिति ईसा पूर्व 5 वीं शताब्दी से मिलनी शुरू हो जाती है जिसमें सर्वप्रथम आते हैं-
आर्यभट्ट (476-550 सीई)- नक्षत्र वैज्ञानिक जिनके नाम से भारत का प्रथम उपग्रह छोड़ा गया।
वाग्भट्ट (6वीं शताब्दी)- आयुर्वेद के प्रमुख स्तंभ दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजनचर्या, त्रिदोष आदि के सिद्धान्त उनके गढ़ हुए हैं।
बाण भट्ट (606 ई. से 646 ई.)-संस्कृत महाकवि इनके द्वारा लिखित कादंबरी संस्कृत साहित्य की प्रथम गद्य रचना मानी जाती है।
कुमारिल भट्ट (700 ईसापूर्व)- सनातन धर्म की रक्षा के लिए जिन्होंने आत्मोत्सर्ग किया।
भवभूति (8वीं शताब्दी)- संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार। 
आचार्य महिम भट्ट  (11 वीं शताब्दि)- भरतमुनी के नाट्यशास्त्र के प्रमुख टीकाकार आचार्य।
चंद बरदाई (1149 – 1200)- पृथ्वीराज चौहान के मित्र तथा राजकवि जिन्होंने चौहान के साथ आत्मोत्सर्ग किया।
जगनिक (1165-1203ई.)- विश्व की अद्वतीय रचना आल्हा के रचयिता जिन्होंने ऐतिहासिक पात्रों को देवतातुल्य बना दिया।
भास्कराचार्य या भाष्कर द्वितीय (1114 – 1185)- जिन्होंने अंक गणित की रचना की।
वल्लभाचार्य (1479-1531)- पुष्टिमार्ग के संस्थापक तथा अवतारी पुरुष।
सूरदास  (14 वीं शताब्दी)- साहित्य के सूर्य, साहित्य में वात्सल्य रस जोड़ने का गौरव।
राजा बीरबल  (1528-1586)-असली नाम महेश दास भट्ट मुगल बादशाह अकबर के नौ रत्नों में प्रमुख।
गागा भट्ट (16 वीं शताब्दी)- छत्रपति शिवाजी महराज के राजतिलक कर्ता।
पद्माकर भट्ट (17 वीं शताब्दी)-रीति काल के ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि।
तात्या टोपे (1814 - 1859)-1857 क्रांति के प्रमुख सेनानायक।
बाल गंगाधर तिलक (1856-1920)-प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी।
पं. बालकृष्ण भट्ट (1885-1916)-भारतेंदु युगीन निबंधकारों में विशिष्ट स्थान।
श्री राम शर्मा आचार्य (1911-1990)- गायत्री शक्तिपीठ के संस्थापक।
पं.राधेश्याम शर्मा ( दद्दा जी, 20 वीं शताब्दी)- पथरिया मध्यप्रदेश निवासी पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. विद्याचरण शुक्ल के गुरु जिनके नाम से उनके फार्म हाउस का नाम है। 


आज पूरे भारत में भट्ट ब्राह्मणों की उपस्थिति कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक है। ब्राह्मणों में भट्टों जाति सबसे बड़ी है। रही बात राजनैतिक स्थिति की तो कई राज्यों में भट्ट ब्राह्मणों को बिना मंत्रिमंडल में शामिल किए मंत्रिमंडल की कल्पना भी नहीं की जा सकती है उसमें उत्तराखंड, गुजरात, पं.बंगाल शामिल हैं जबकि महाराष्ट्र में स्थिति इसके ठीक उलट है वहां भट्ट ब्राह्मणों का मंत्रिमंडल में वर्चस्व होता है और बाकी की जातियां विरोध में ऩजर आती हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि भट्ट जन्म से ही कुलीन एवं सम्पन्न ब्राह्मण थे और हैं। हमे गर्व है कि हम भट्ट हैं जिनका इतना चमकदार इतिहास है।
प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट
(प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, वर्तमान में रायपुर के प्रतिष्ठित दैनिक अखबार 'जनता से रिश्‍ता' से जुड़े हैं)

फिर याद आये सीता शरण जोशी

आज हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. उरगावकर के पास मैं अपने कंधे की चेकअप के लिए गया था। वहां इंतजार करते मरीजों के बीच एक लड़का मिला जिसके हाथ में ताजा प्लास्टर बंधा था। वहां बैठे अधिकांश मरीज छत्तीसगढ़ में रहने वाले गैर छत्तीसगढ़िया नजर आ रहे थे। मने छत्तीसगढ़ का खाने और छत्तीसगढ़ का ही बजाने वाले।
मैंने बच्चे से छत्तीसगढ़ी में हाथ टूटने का कारण पूछा। उसने लजाते हुए जवाब दिया कि आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ गया था वहां से गिर गया। मैंने पूछा किसके साथ आए हो तो उसने कहा, मां के साथ। पढाई, भाई-बहन, मां-बाप अदि के बारे में पूछने पर वह संक्षिप्त उत्तर दे रहा था। उसने कहा कि पिताजी नहीं है, मैंने पूछा, क्या पिता की मृत्यु हो गई? तो उसने उत्तर नहीं दिया। जब दो-तीन बार पूछा, कुरेदा तो वह खीझ से बोला '*दरो के ह भाग गे हे!'
अचानक उसके मुह से निकले वाक्य को सुनकर वहां बैठे मरीज हंस पड़े। उसी समय उसकी मां ने डिस्पेंसरी में प्रवेश किया, उसकी हाथों में दवाइयाँ थी। अपने बच्चे से बात करते देख कर वह महिला मेरे बाजू में बैठ गयी। लगभग 40 साल की उस ग्रामीण महिला ने चर्चा में बताया कि, उसके दो बच्चे हैं, एक लड़की इससे एक साल छोटी है। इनका बाप ठेकेदार था, मुझे 'बनाकर' रखा था, चार साल पहले हमें छोड़ कर भाग गया। लहुट के नहीं आया भडवा, बिहारी था रोगहा, अब इतने बड़े इंडिया में उसे कहाँ खोजूं।
मैंने सुना था कि जवान लड़कियां घर छोड़ कर भाग जाती हैं किसी लड़के के साथ। औरतें पति छोड़कर भाग जाती हैं किसी मर्द के साथ पर ये पुरुष ...?
मैं ज्यादा कुछ सोचता तब तक कंपाउंडर ने मुझे डॉक्टर के केबिन में बुला लिया। मेरे कंधे का दर्द और बढ़ गया था, लुटी छत्तीसगढ़ बच्चे को कंधे में उठाकर डिस्पेंसरी से बाहर निकल रही थी।
-तमंचा रायपुरी

सम्मान खरीदने के लिए रहीसी और बीमार साथी के लिए गरीबी

पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया में दो विरोधाभाषी साहित्यिक संवेदनशीलता को देख रहा हूं। पिछले दिनों दुर्ग के सभी समाचार पत्रों में एक समाचार प्रकाशित हुआ जो लगभग चौथाई पेज का समाचार था। जिसमें दुर्ग के पास स्थित एक गांव में वृहद साहित्य सम्मेलन का समाचार, विस्तार से छापा गया था। जिसमें 8 प्रदेशों के साहित्यकारों के दुर्ग आगमन का समाचार था एवं 95 साहित्यकारों को पुरस्कार दिए जाने के संबंध में जानकारी दी गई थी। इस कार्यक्रम के संबंध में पिछले दिनों कुछ साहित्यकार मित्रों ने मुझसे, दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति के सचिव होने के कारण, जानकारी चाही थी। तब मैंने इस कार्यक्रम के आयोजक और इस कार्यक्रम के संबंध में अपनी अनभिज्ञता जताई थी, क्योंकि कार्यक्रम के आयोजक के संबंध में या उनके साहित्य के संबंध में ज्यादा कुछ जानकारी मुझे नहीं थी। बल्कि साहित्य की राजनीति से कुछ लोग अपना रोजगार चलाते हैं ऐसी जानकारी मुझे प्राप्त थी। जिसे मैंने अपने मित्रों को दी, तो उनमें से कुछ लोगों का दलील था कि पंद्रह सौ रुपया ही तो मांगे हैं। पंद्रह सौ रुपया में एक स्मारिका प्रकाशित करवा रहे हैं और हमें बड़े साहित्यिक कार्यक्रम में पुरस्कृत कर रहे हैं, तो 15 सौ रुपया देना वाजिब है, बिचारा मुफ्त में थोड़ी कार्यक्रम करवाएगा?
95 लोगों को पुरस्कार देने में कितना समय लगा होगा, इसका आकलन कर रहा हूं। एक व्यक्ति को पुरस्कार देने उसके बाद पोज देकर फोटो खिंचवाने में लगभग 1 मिनट का समय तो लगना ही है। इस प्रकार से 95 लोगों को पुरस्कार देने में कम से कम 2 घंटे लगे ही होंगे। बाकी अखिल भारतीय साहित्य सम्मलेन क्या हुआ होगा यह समझ से परे है। खैर ....
इधर पिछले चार-पांच दिनों से, छत्तीसगढ़ के एक आर्थिक रूप से विपन्न साहित्यकार के गंभीर रुप से बीमार होने एवं इलाज के लिए वित्तीय सहायता के संबंध में एक ग्रुप चलाया जा रहा है। जिसमें लगातार उस साहित्यकार के स्वास्थ्य की स्थिति और सहायता पहुंचाने के माध्यमों की जानकारी दी जा रही है। इस ग्रुप के कई सदस्य अन्य ग्रुपों में भी सहायता हेतु अनुरोध कर रहे हैं। इस प्रकार से उस साहित्यकार को सहायता के लिए हजारों साहित्यकारों तक संदेश पहुंचाया जा चुका है। आज सुबह उस साहित्यकार को पहुंचाए जाने वाले कुल सहयोग राशि रु. 25000 तक पहुची थी।
मुझे आश्चर्य हो रहा है कि, कितना अपील करने के बावजूद इस गरीब साहित्यकार के लिए आवश्यक पैसे की व्यवस्था नहीं हो पा रही है।
दूसरी तरफ अपने कचरा साहित्य को विश्व का महानतम साहित्य मानते हुए, ₹1500 खर्च कर, घुरुवा पुरस्कार लेने (मने खरीदने) के लिए पिले पड़े हैं। उसके साथ ही ₹1000 का यात्रा व्यय अलग। उस आयोजक ने ₹1500 प्रति साहित्यकार के हिसाब से लाखों कमाई किया होगा। हालांकि यह भी ज्ञात हुआ कि वह तथाकथित वसुलीवाला साहित्यकार सभी 95 लोगों से रुपया नहीं लिया है, नए और उखलहा साहित्यकारों से ही पैसा लिया है जो लगभग 50 की संख्या में है। इस प्रकार से लगभग 75000 का पुरस्कार-सम्मान व्यवसाय हो गया है। दूसरी तरफ गरीब साहित्यकार को इलाज के लिए ₹ 50000 भी इकट्ठे नहीं हो पा रहे हैं।
-तमंचा रायपुरी

गांव की महकती और खनकती आवाज़ है - ममता चंद्राकर
विनोद साव

अपनी खनकती आवाज़ से छत्तीसगढ़ी के लोक-गीतों को मोहक आंचलिकता से भर देने वाली यशस्वी गायिका ममता चंद्राकर को पद्मश्री से नवाजा जाएगा. लोक गायन में मुखरित होने की कला ममता जी को विरासत में मिली है. वे दुर्ग के लोक कला मर्मज्ञ दाऊ महासिंग चंद्राकर की बेटी हैं जिन्होंने अपने निर्देशन में 'सोनहा बिहान' जैसे लोकमंच को प्रस्तुत किया था. संप्रति ममता जी रायपुर आकाशवाणी केन्द्र में उप निदेशक है. वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्देशक प्रेम चंद्राकर की जीवन-संगिनी हैं.

ममता चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ी लोक गीतों की मंचीय प्रस्तुति को आधुनिक तामझाम से बखूबी जोड़ा है. इस तामझाम में मंच में प्रस्तुत करने की यांत्रिक कला है. ऐसी प्रस्तुति आज दुनिया की हर भाषा में लिखे गीत के लिए अब अनिवार्यता बन गई है. जिसमें एक भव्य मंच रोशनी से चकाचौंध होता है और तेज झनकता संगीत स्वर होता है. इसमें ज्यादातर नृत्य एक बड़े समूह के द्वारा किये जाते हैं. इस समूह की मुख्य गायिका नृत्य नहीं करती बल्कि नेरटरयानी सूत्रधार के रूप में मंच पर पारंपरिक पहनावे के साथ खड़ी होती है और अपनी भाव-भंगिमाएं बिखेरती रहती हैं. इस तरह वह बड़े आकर्षक कलेवर में अपने गीतों को मस्ती में गाते हुए समां बांध लेती है

छत्तीसगढ़ में इस तरह की मोहक प्रस्तुतियों में जिन कलाकारों ने अपने को स्थापित कर लिया उनमें हैं ममता चंद्राकर और अलका चंद्राकर. यद्यपि इन दोनों कलाकारों में न केवल पीढ़ी का अंतर है बल्कि दोनों के गीत रूपों में भी अंतर है. अलका चंद्राकर छत्तीसगढ़ी में जहां सुगम संगीत में पिरोये अपने गीतों को फडकते अंदाज़ में पेश करने में माहिर हैं वहीं ममता चंद्राकर छत्तीसगढी के पारंपरिक लोक-गीतों को अपने गायन में मधुर स्वर देती हैं. यद्यपि लोकगीतों को गाने में प्रसिद्धि अनेक गायकों को मिली है पर आंचलिकता से पगी हुई आवाज जैसे पुरुष स्वर में हम लक्ष्मण मस्तुरिहा में पाते हैं वैसे ही नारी स्वर में आंचलिकता से लबरेज यह स्वर ममता के गाए गीतों में स्पष्ट झंकृत होता है. विशेषकर जब बिहाव गीतों के उनके श्रृंखलाबद्ध गीतों को सुना जाए तो वह वही स्वर है जो छत्तीसगढ़ की माटी में उपजी स्त्री के निपट गांव का गंवई स्वर होता है. इन स्वरों को गीतों के हिसाब से भिन्न रूप ममता अपनी गायकी से दे लेती हैं. इनमें दुल्हन के श्रृंगार के समय की रोमानी दुनिया होती है, तो तेलचघी, टिकावन, बरात निकासी, मऊर भडौनी गीतों के समय की प्रसन्नता मिश्रित चहकन भरी आवाज़ होती है तो भांवर और बिदाई के समय का आत्मिक रूदन भरा ह्रदय को झकझोरने वाला स्वर गूंजता है - यह सब ग्राम्यबोध से भरे श्रोताओं के सीधे अंतःस्थल को छू लेता है, सुनने वाले को बरबस ही भाव विभोर कर लेता है.

छत्तीसगढ़ राज्य बनते ही जो छत्तीसगढ़ी में फ़िल्में बनाने का उत्साह दिखा उनमें सतीश जैन की तरह ममता के पति प्रेम चंद्राकर भी एक कुशल फिल्म निर्देशक के रूप में सामने आए. प्रेम अपनी युवावस्था से ही विडियो शूटिंग व टेलीफिल्म निर्माण से जुड़े हुए थे. वे गंभीर किस्म के कला साधक रहे हैं. उनके खामोश चेहरे के भीतर कला और सोच के जो द्वन्द थे वे उनकी फिल्मों की कथाओं और निर्देशन के माध्यम से मुखरित हुए. प्रेम और ममता की संगति और उनकी कलात्मक जुगलबंदी ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों, लोक गीतों, नृत्यों को अनेक आयाम दिए. यहाँ भी प्रेम की चुप्पी साधना ने ममता की गायन कला को सिनेमेटिक सौंदर्य से भर दिया. प्रेम चंद्राकर निर्देशित फिल्मों में गायिका ममता पर वैसा ही स्वाभाविक फिल्मांकन किया जिस तरह वे मंचों पर अपनी प्रस्तुतियाँ देती हैं. फिल्म के दृश्य में उपस्थित होकर जैसे ही ममता अपने गीत के बोल बोलती हैं ‘तोर मन कइसे लागे राजा ..’ वैसे ही सिनेमाहाल उमंग उल्लास से भरे दर्शकों की तालियों की गडगडाहट और सीटियों की सनसनाती फूंक से गूँज जाते हैं और फिल्मों की पार्श्व गायिका ममता फिल्मों की एक वायवी दुनियां की किरदार हो जाती हैं. टेलीफिल्म ‘लोरिक चंदा’ में पार्श्व गायन से शुरू हुई उनकी यह यात्रा आज फीचर फिल्मों तक जा पहुंची है और व्यावसायिक फिल्मों की वे अब जानी मानी गायिका हो गई हैं. उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोकगीत - सुआ, गौरा गौरी, बिहाव, ददरिया को नई पहचान दी है. आज उनके गानों के सी.डी. गांव गांव में जमकर बिक रहे हैं. इन्टरनेट यूज़र उनके गीतों को अपने कंप्यूटर और मोबाइल में सुन रहे हैं. किन्हीं मायनों में ममता चंद्राकर आज नयी पीढ़ी की छत्तीसगढ़िया गायिकाओं की सबसे बड़ी ‘आइकन’ हो गयी हैं. ‘रंझाझर भौजी के डूमर माला’ जैसे गीत से शुरुवात करने वालीं ममता आज भी रंझाझर मता रही हैं. तब ऐसे में उन्हें पद्मश्री अलंकरण क्यों न मिले. वे सर्वथा योग्य हैं.

आकाशवाणी में पदस्थ होने से पहले ममता के कितने ही गीत तब रेडियो में बजा करते थे. इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय-खैरागढ़ से ‘कंठ संगीत’ यानी व्होकल म्यूजिक में एम.ए. और डाक्टरेट करने वाली ममता ने आकाशवाणी में अपने कंठ का जादू कुछ इस कदर बिखेरा कि आज वे रायपुर आकाशवाणी केन्द्र में उप निदेशक जैसे उच्च पद पर आसीन हैं. ममता चंद्राकर की इस अनवरत विकास यात्रा और पद्मश्री अलंकरण पाने के इस अवसर पर हम सबकी ओर से उन्हें ढेर सारी बधाइयां और शुभ-कामनाएं.
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निराला का गद्य यथार्थवादी साहित्य है

सरला शर्मा का उद्बोधन

जिला हिंदी साहित्य समिति के द्वारा संस्कृति विभाग के सहयोग से वसंत पंचमी के उपलक्ष्‍य में एक दिवसीय संगोष्‍ठी का आयोजन किया गया। दुर्ग के होटल अल्‍का के सभागार में आयोजित यह कार्यक्रम तीन सत्रों में था। जिसमें पहला सत्र महाकवि निराला के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित था। इस सत्र को संबोधित करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार एवं व्यंग्‍यकार रवि श्रीवास्तव ने निराला के चर्चित रचनाओं एवं उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि महाकवि निराला की कविताओं को गोष्ठियों में पढ़ देने से उनकी रचनाओं का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता। उन्‍होंनें कहा कि निराला का साहित्यिक अवदान प्रेमचंद से कम नहीं है इसी कारण उन्‍हें महाकवि कहा गया। निराला की मातृभाषा बांग्ला थी किंतु वे हिंदी के बड़े कवि हुए, उन्होंने तत्‍कालीन सामंतों एवं सामंती व्‍यवस्‍था के प्रति अपने प्रतिरोध को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया। ब्रज जैसे लोक भाषा में जो बात व्यापक रुप से नहीं कही जा सकती उसे उन्होंने खड़ी बोली हिंदी में कहा और उसे स्थापित किया। निराला के गद्य साहित्य पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ लेखिका सरला शर्मा ने कहा कि निराला का असल विद्रोही स्‍वरूप उनकी गद्य रचनाओं में ही दिखता है। उन्होंने वर्तमान समय के साथ निराला की रचनाओं को व्याख्यायित करते हुए कहा कि आज भी निराला की रचनाओं की प्रासंगिकता है, निराला नें युगानुरूप सृजन किया, छायावाद और प्रगतिवाद के संधि स्थल से निराला के रचना की शुरुआत होती है। निराला को नए युग का स्वागत करने वाले रचनाकार के रुप में माना जाता है, उनका गद्य यथार्थवादी साहित्य है। उन्होंने उनकी गद्य रचनाओं, निबंधों, कहानियों आदि पर चर्चा करते हुए कहा कि निराला सामाजिक सरोकारों का व्यापक चित्रण करते थे और अपनी अभिव्यक्ति को व्यंग्‍य के माध्यम से तीव्र प्रहारक बनाते थे। निराला साहित्यिक विसंगतियों के शिकार थे इसलिए उनके गद्य का समय पर उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया। पाठ्यक्रमों में उनके गद्य साहित्य को स्थान दिया जाना चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे राजभाषा विभाग के पूर्व अध्‍यक्ष पं. दानेश्वर शर्मा ने बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा का उल्लेख करते हुए निराला के अनछुए प्रसंगों पर चर्चा की। 

कार्यक्रम के द्वितीय सत्र का विषय था दुर्ग जिले का इतिहास। इस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए इतिहासकार एवं जामगांव महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ के के अग्रवाल ने वाचिक परंपरा से लेकर ज्ञात उपलब्‍ध साक्ष्‍य व अविभाजित दुर्ग जिला के विभिन्न पुरातत्व स्थलों का उल्लेख करते हुए, जिले के इतिहास को समय बद्ध किया। कार्यक्रम के अगले वक्ता इतिहासकार व दुर्ग साईंस कालेज के प्राध्‍यापक डॉ. ए के पांडेय ने दुर्ग जिले के सफरनामा को तिथियों व आंकड़ों में विभाजित करते हुए बताया। उन्‍होंनें दुर्ग के ऐतिहासिक महत्व के कालखण्‍डों का उल्लेख करते हुए क्रमबद्ध रुप से दुर्ग नगर के इतिहास की जानकारी दी। सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्‍ठ साहित्‍यकार गुलबीर सिंह भाटिया जी ने दुर्ग के इतिहास से संबंधित खालसा शब्द को परिभाषित किया। कार्यक्रम में दुर्ग नगर के पुरातत्व एवं इतिहास से संबंधित चित्रों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। जिसके चित्रों को अरुण गुप्ता नें विश्‍लेषित किया। इस सत्र में मुक्तकंठ साहित्य समिति के द्वारा प्रकाशित मासिक बुलेटिन का विमोचन अतिथियों एवं मुक्त कंठ साहित्य समिति के अध्यक्ष सतीश कुमार चौहान एवं डॉ नौशद सिद्धिकी, ओमप्रकाश शर्मा के द्वारा किया गया व उपस्थित साहित्‍यकारों को बुलेटिन की प्रति बांटी गई।

कार्यक्रम के अंतिम सत्र में सरस काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसकी अध्यक्षता रायपुर से पधारे वरिष्ठ शायर गौहर जमाली ने किया। इस गोष्ठी में रायपुर दुर्ग एवं भिलाई से आए हुए कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ी। जिसमें मुकुन्‍द कौशल, मुत्‍थुस्वामी, विद्या गुप्ता, नीता काम्‍बोज, अनीता श्रीवास्तव, नीलम जायसवाल, सबा खान, एमएल वैद्य, राधेश्‍याम सिंदूरिया, सिद्ध, अरुण कसार, अलकरहा, नवीन तिवारी, ओम प्रकाश जायसवाल, अरुण निगम, निजाम दुर्गवी, हाजी सुल्तानपुरी, नौशाद सिद्धिकी, प्रदीप पाण्‍डेय, युसूफ मछली आदि नें अपनी कविताओं का पाठ किया। इस एक दिवसीय कार्यक्रम में तुंगभद्र सिंह राठौर, जगदीश राय गुमानी, प्रदीप वर्मा, रतनलाल सिन्हा, प्रशांत कानस्कर, संतोष झांझी, रौनक जमाल, रमाकांत बराड़या, गजराज दास महंत, उमेश दीक्षित, त्रयंबक राव, शैलेंद्र तिवारी, जीवन सिंह राजपूत, गोविंद पाल आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन समिति के सचिव संजीव तिवारी नें किया एवं स्‍वागत भाषण समिति के अध्‍यक्ष डॉ संजय दानी नें दिया। 

पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजन का ठीहा : गढ़कलेवा


खानपान के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय भोज्यपदार्थों के प्रति बढ़ती जनता की रूचि एवं शहरीकरण के चलते हम अपने पारंपरिक खान-पान को विस्मृत करते जा रहे हैं। देश के कई क्षेत्रों में पारंपरिक खान-पान की परंपरा आज विलुप्ति के कगार पर है, जबकि माना जाता है कि खान-पान संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। हमारी खान-पान की परंपरा हमारी क्षेत्रीय अस्मिता का गौरव है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ के संस्कृति संचालनालय द्वारा 'गढ़कलेव' के नाम से पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का एक रेस्टॉरेंट रायपुर में खोला गया है।


'गढ़कलेवा' का परिसर एक ठेठ खूबसूरत छत्तीसगढ़ी गांव के रूप में तैयार किया गया है। इस स्थल की साजसज्जा और जनसुविधाएं छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन का आनंद दिलाते हैं। जिसे गांव के ही पारंपरिक शिल्पियों ने ही मूर्त रूप देते हुए आकार दिया है। वर्तमान में यहाँ पारंपरिक परिवेश और बर्तनों में लगभग तीन दर्जन छत्तीसगढ़ी व्यंजन परोसा जा रहा है। आगे मध्यान्ह तथा रात्रि भोजन भी उपलब्ध कराया जायेगा।

इसका शुभारंभ प्रदेश के मुख्य मंत्री डॉ.रमन सिंह के द्वारा 26 जनवरी 2016 को किया गया। इस जलपानगृह में छत्तीसगढ़ की संस्कृति में रचे-बसे ठेठरी, खुरमी, चीला, मुठिया, अंगाकर रोटी, बफौरी, चउसेला जैसे तीन दर्जन से भी अधिक पारंपरिक व्यंजनों को शामिल किया गया है। छत्तीसगढ़ी परिवेश उपलब्ध कराने के लिए परिसर में लकड़ियों की आकर्षक कलाकृतियां भी बनाई गई हैं और दीवारों की भित्तिचित्र के माध्यम से सजावट की गई है। गढ़ कलेवा में जलपान में शामिल चाउर पिसान के चीला, बेसन के चीला, फरा, मुठिया, धुसका रोटी, वेज मिक्स धुसका, अंगाकर रोटी, पातर रोटी, बफौरी सादा और मिक्स, चउंसेला आदि परोसा जा रहा है। इसके अलावा मिठाइयों में बबरा, देहरउरी, मालपुआ, दूधफरा, अईरसा, ठेठरी, खुरमी, बिडि़या, पिडि़या, पपची, पूरन लाडू, करी लाडू, बूंदी लाडू, पर्रा लाडू, खाजा, कोचई पपची आदि भी परोसा जा रहा है। गढ़ कलेवा का एक अति महत्वपूर्ण पक्ष इसका परिसर है, जिसे ठेठ छत्तीसगढ़ी ग्रामीण परिवेश के रूप में तैयार किया गया है। इसकी साज-सज्जा और जनसुविधाएं सभी कुछ छत्तीसगढ़ ग्रामीण जीवन का आनंद उपलब्ध कराने की क्षमता रखते हैं।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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