कला की एकांत साधिका- सुश्री साधना ढांढ


यों तो मैंने लगभग आठ-नौ वर्षों पहले महाकौशल कला विथिका में सुश्री साधना ढांढ की कृतियों की प्रदर्शनी देख रखी थी, पर उस वक़्त मुझे कतई गुमां न था कि ये कृतियां अस्सी प्रतिशत् शारीरिक निःशक्तता से पीडित किसी महिला द्वारा रचीं गयी हैं। मुझे जब यह ज्ञात हुआ कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर रोल माॅडल अवार्ड मिला है, तो मैं अपने आपको उनसे मिलने से रोक नहीं पाया। वहां कुछ पत्रकार बंधु पूर्व से ही विराजमान थे। वे भी उनसे ही मिलने आये हुए थे। साधना जी को देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि अस्सी प्रतिशत् शारीरिक निःशक्तता के बावजूद उन्होंने अपने अन्दर के कलाकार को निःशक्त नहीं होने दिया है। उनके अन्दर के कलाकार की जिजीविषा देखते ही बन रही थी। वे हमारी उपस्थिति से पूरी तरह अनभिज्ञ अपनी कृतियों को उकेरने में मग्न थीं और हम उन्हें विभिन्न तरह के क़ाग़ज़ों पर उनके शिल्प को आकार लेते हुए, खो जाने की हद तक तन्मय होकर देख रहे थे। वहां पर उपस्थित उनकी बधिरों की भाषा में समझाने वाली शिक्षिका ने उन्हें हल्के से छुआ और उनकी तन्द्रा टूटी। फिर उन्होंने हमारी ओर देखा उनकी आंखें आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। संभवतः मैंने पहली बार किसी निःशक्त को छलकते हुए आत्मविश्वास के साथ पाया। अवार्ड के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें यह अवार्ड राष्ट्रपति महोदय द्वारा 3 दिसम्बर को प्रदान किया जायेगा।
साधनाजी अपने घर पर ही एक शिल्प स्कूल चलातीं हैं, जहां पर वें बच्चों और बड़ों को समान रूप से प्रशिक्षण देतीं हैं। नई पीढ़ी के कलाकारों के बारे में पूछने पर उन्होंनें बताया कि वे मेहनत से बचना चाहतें हैं और शाॅर्टकट में ही सफलता पा लेना चाहते हैं। मोबाईल फोन भी उनकी एकाग्रता में बाधक हो जाता है।
वर्तमान में रायपुर शहर की दिशा और दशा के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि रायपुर में तो चारों ओर कंक्रीट ही कंक्रीट पसरा हुआ है । लोगों में संवेदनशीलता भी कम होती जा रही है। बातों ही बातों में हमें पता चला कि लगभग 12 वर्ष की उम्र से ही उन्हें निःशक्तता का दंश झेलना पड़ रहा है। इसके अलावा इस दौरान उन्हें हुए लगभग अस्सी फ्रेक्चर्स, जो कि अच्छे-अच्छों का दिल हिलाने का माद्दा रखते हैं, से भी वे अप्रभावित रहीं। हमने जब इन हालातों में भी उनकी इस अतीव क्रियाशीलता का राज़ पूछा तो उन्होंने एक पंक्ति में उत्तर दिया व्यस्त रहो मस्त रहो। उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछने पर उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया इस पर मध्यस्थ शिक्षिका ने बताया कि दीदी सिर्फ काम पर यकीं रखती हैं। वे नेम एण्ड फेम से बचतीं है । बाद में मध्यस्थ शिक्षिका से ही ज्ञात हुआ कि उनकी लगभग आठ-नौ जगह प्रदर्शनियां लग चुकी हैं और लगभग सत्रह से भी अधिक संगठनों एवं संस्थाओं द्वारा उन्हे पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जा चुका है। अंत में हमने उस निष्णात कलाकार की कलाकृतियों का भरपूर आनंद लिया और उसी खुमारी में वापस आ गये।
वाकई इसमें कोई संदेह नही है कि अपनी निःशक्तता को अभिशाप मानकर हताशा-निराशा के दलदल में फंसे हुए निःशक्तों के लिये साधनाजी आशा की किरण नहीं बल्कि आशा का पूरा सूर्य ही है, जिन पर पूरी उपन्यास लिखी जा सकती है।

आलोक कुमार सातपुते,हाउसिंग बोर्ड कालोनी सड्डू रायपुर
मो-09827406575


बुलंद हौसलों से बनीं 'रोल मॉडल

यदि जज्बा और हौसले बुलंद हों, तो किसी भी कठिनाई में अपना मुकाम हासिल किया जा सकता है। जिंदगी में अब तक 80 फ्रैक्चरों का सामना कर चुकी तथा ऑस्ट्रियोपॉरेसिस जैसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त प्रदेश की सुश्री साधना ढांड ने अपनी कला को ही अपनी बीमारी से लडऩे का जरिया बनाया। उनके जज्बे और हौसले का सम्मान करते हुए सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता मंत्रालय ने उन्हें रोल मॉडल के अवार्ड से नवाजा है। विकलांग दिवस के अवसर पर आगामी 3 दिसंबर को राष्ट्रपति के हाथों उन्हें यह सम्मान दिया जाएगा। सुश्री साधना के इस सम्मान पर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल ने भी हर्ष व्यक्त किया है। 12 बरस की उम्र से श्रवण शक्ति को खोने, पैरों से निशक्त, नाटे कद के साथ जिंदगी की तमाम चुनौतियों से लड़ते हुए उन्होंने पेंटिंग, शिल्पकला तथा फोटोग्राफी के क्षेत्र में सुकून तलाशा।
कल्पना की ऊंचाइयों पर अपने दुख विस्मृत करती साधना जिंदगी का उत्सव अपनी कला में तलाशती हैं। चित्रकला, शिल्पकला के साथ अप्रतिम फोटोग्राफी करने वाली साधना की कृतियां न केवल दर्शकों को अचंभित करती हैं, बल्कि विपरीत स्थितियों में भी जीवन कैसे जिया जा सकता है, इसकी प्रेरणा भी देती हैं। पेड़-पौधों के बीच भी उनका कलाकार अनुपम कृतियां तलाशता रहता है। फल, फूलों, सब्जियों से साकार किए 100 से अधिक गणेश के चित्र इसकी गवाही देते हैं। यह उनके भीतर बैठे कलाकार का ही करिश्मा है कि वे अपनी तस्वीरों में भी अद्भुत शेड एंड लाइट तथा कलर इफेक्ट का कौशल प्रदर्शित करती हैं। 1982 से अपने घर पर बच्चों को चित्रकला का प्रशिक्षण देने वाली साधना ने अब तक 20000 से ज्यादा छात्रों को प्रशिक्षित किया है। गणेश भगवान के विभिन्न स्वरूपों पर केंद्रित उनकी एकल फोटो प्रदर्शनी न केवल शहर में बल्कि देश के विभिन्न शहरों में भी दर्शकों ने भरपूर सराहना दी। जवाहर कला केंद्र, जयपुर के अलावा भुवनेश्वर, पूना, नागपुर, भोपाल, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली जैसे स्थानों पर उन्होंने अपने प्रदर्शनों से न केवल अपना बल्कि प्रदेश का नाम भी रौशन किया है। 
स्त्री शक्ति, सृजन सम्मान, महिला शक्ति सम्मान, बेस्ट टेरेस गार्डन अवार्ड, बोंसाई- फ्लावर डेकोरेशन, लैंडस्कैप, फोटोग्राफी आदि क्षेत्रों में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित साधना अपनी व्यस्तता और एकाग्रता के जरिए आज इस मुकाम तक पहुंची हैं। बुलंद हौसलों वाली सशक्त और नन्हें कद की साधना हालांकि विगत दो वर्षों से चलने-फिरने में असमर्थ हैं, बावजूद इसके उनकी न तो कल्पना मुरझाई है, न ही एकाग्रता विचलित हुई है। बदलते परिवेश में उनका मानना है कि लोगों के पास समय नहीं हैं, जाहिर है इससे एकाग्रता कहां मिलेगी। निश्चित रूप से वे न केवल निशक्तजनों के लिए, बल्कि सशक्तों के लिए भी साधना एक रोल मॉडल हैं।

अरूण काठोटे

फसलों, पशुओं और दीपों के साथ उत्साह का पर्व दीपावली

भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार कार्तिक महीने में दीपों के उत्सव का त्यौहार दीपावली संपूर्ण भारत में मनाई जाती है. पत्र—पत्रिकायें, शुभकामना संदेश दीप और लक्ष्मी के तत्सम तद्भव शब्दों के लच्छेदार वाक्यांशों से भर जाते है. आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, क्योंकि यह हमारा महत्वपूर्ण त्यौहार जो है. अलग अलग स्थानों और आख्यानों में इसे मनाने के पीछे कारण जो भी रहे हों किन्तु सभी का केन्द्र धन, आनन्द और दीप से है. परम्पराओं में जन के लिए धन का मूल अर्थ धान्य से है जो हमारे देश का मूल है. लम्बे इंतजार और कठिन श्रम के उपरांत धान्य जब हमारे घर में आये तो उत्साह तो निश्चित है, उसके स्वागत में दीप जलाना हमारी परम्परा है. इस त्यौहार की परिकल्पना इसी से आगे बढ़ती है, कल्पना कीजिये ऐसे समय की जब रौशनी का माध्यम सिर्फ दीप रहा होगा. अमावस की रात को अनगिनत दीप जब जल उठे होंगें, जन स्वाभाविक रूप से नाच उठा होगा.

श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी. चाहे उनका जन शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के विरूद्ध. जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है.

कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण पशुओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता. इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है. यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है. इसी धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियां मनाते हैं. दीप और धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह जब इकट्ठा किया जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके उपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद धान की नपाई होती है. यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप प्रतीक है, राह दिखाता है.

प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन की आवश्यकता पड़ती है. बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है. पशुओं के कोठे लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है. कोठा सहित पूरे डीह डोंगर यानी गांव के हर जगह दीपक जलाया जाता है.

छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह ‘दियारी’ खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है. परंपरानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहां जाकर गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता हैं, पशुपालकों के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है. दूसरे दिन बैलों को लाल टीका लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है. बाद में घर की महिलायें चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है. फलस, अन्न और पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त एश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी है. इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में लाला जगदलपुरी की एक हल्‍बी गीत ‘उडी गला चेडे’ प्रासंगिक है – ‘राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्‍ता धान के पायते रला/केडे सुन्‍दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘

लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्‍दर गौरैया आई, और उसने दोस्‍ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्‍दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्‍ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्‍मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्‍या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्‍ट भाग से गौरैया को क्‍या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्‍ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में।

उत्सव के उत्साह को निरंतर रखने की जन सोंच भी गजब की है वह देवारी के बाद होरी के इंतजार में आनंदित होता है. दूसरे सेला के लिए उड चलता है. यादवों के बीच प्रचलित एक लोक दोहा देखें आवत देवारी लहुर लईया, जावत देवारी बड़ दूर/ जा जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावे धूर. यानी दिवाली के त्यौहार का महत्व बहुत है, उसके लिए हम उतावले रहते हैं और यह कब आके चली जाती है पता ही नहीं चलता, हम साल भर इसका इंतजार करते हैं. दीपावली अब तुम विदा लो क्योंकि अब हमारी स्मृत्तियों में फागुन को धूल उडाने दो. फिर अगले साल आयेगी दीपावली और हम अपनी प्राणदायी फसलों, पशुओं और दीपों की कल्पना कागजों में करेंगें.

संजीव तिवारी

चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा

आज सुबह समाचार पत्र पढ़ते हुए कानों में बरसों पहले सुनी स्वर लहरियॉं पड़ी.ध्यान स्वर की ओर केन्द्रित किया, बचपन में गांव के दिन याद आ गए. धान कटने के बाद गांवों में खुशनुमा ठंड पसर जाती है और सुबह ‘गोरसी’ की गरमी के सहारे बच्‍चे ठंड का सामना करते हैं. ऐसे ही मौसमों में सूर्य की पहली किरण के साथ गली से आती कभी एकल तो कभी दो तीन व्यक्तियों के कर्णप्रिय कोरस गान की ओर कान खड़े हो जाते. ‘गोरसी’ से उठकर दरवाजे तक जाने पर घुंघरू लगे करताल या खंझरी के मिश्रित सुर से साक्षात्‍कार होता. घर के द्वार पर सर्वांग धवल श्वेत वस्त्र में शोभित एक बुजुर्ग व्‍यक्ति उसके साथ दो युवा नजर आते. बुजुर्ग के सिर पर पीतल का मुकुट भगवान जगन्नाथ मंदिर की छोटी प्रतिकृति के रूप में हिलता रहता. वे कृष्‍ण जन्‍म से लेकर कंस वध तक के विभिन्‍न प्रसंगों को गीतों में बड़े रोचक ढ़ंग से गाते और खंझरी पर ताल देते, एक के अंतिम छूटी पंक्तियों को दूसरा तत्‍काल उठा लेता फिर कोरस में गान चलता. कथा के पूर्ण होते तक हम दरवाजे पर उन्‍हें देखते व सुनते खड़े रहते. इस बीच घर से नये फसल का धान सूपे में डाल कर उन्‍हें दान में दिया जाता और वे आशीष देते हुए दूसरे घर की ओर प्रस्‍थान करते. स्‍मृतियों को विराम देते हुए बाहर निकल कर देखा, बाजू वाले घर मे एक युवा वही जय गंगान गा रहा था, बुलंद आवाज पूरे कालोनी के सड़कों में गूंज रही थी. उसके वस्त्र ‘रिंगी चिंगी’ थे, किन्तु स्वर और आलाप बचपन में सुने उसी जय गंगान के थे. मन प्रफुल्लित होने लगा, और वह भिक्षा प्राप्त कर मेरे दरवाजे पर आ गया.

श्री कृष्ण मुरारी के जयकारे के साथ उसने अपना गान आरंभ कर दिया. वही कृष्ण जन्म, देवकी, वासुदेव, मथुरा, कंस किन्तु छत्तीसगढ़ी में सुने इस गाथा में जो लय बद्धता रहती है ऐसी अनुभूति नहीं हो रही थी. फिर भी खुशी हुई कि इस परम्परा को कोई तो है जिसने जीवित रखा है क्योंकि अब गांवों में भी जय गंगान गाने वाले नहीं आते.

किताबों के अनुसार एवं इनकी परम्‍पराओं को देखते हुए ये चारण व भाट हैं. छत्‍तीसगढ़ में इन्‍हें बसदेवा या भटरी या राव भाट कहा जाता है, इनमें से कुछ लोग अपने आप को ब्रम्‍ह भट्ट कहते हैं एवं कविवर चंदबरदाई को अपना पूर्वज मानते हैं. चारण परम्‍परा के संबंध में ब्रह्मपुराण का प्रसंग तो स्पष्ट करता है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंश की स्तुति करने लगे (ब्रह्म पु. भूमिखंड, 28.88)। यहीं से चारण सब जगह फैले। महाभारत के बाद भारत में कई स्थानों पर चारण वंश नष्ट हो गया। केवल राजस्थान, गुजरात, कच्छ तथा मालवे में बच रहे। इस प्रकार महाराज पृथु ने देवता चारणों को "मानुष चारण" बना दिया। इसी प्रकार भाटों के संबंध में जनश्रुतियों में भाटों के संबंध में कई प्रचलित बातें कही जाती हैं। इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और विधवा ब्राह्मणी माता से हुई बताई जाती है। ..... वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था। ..... कहते हैं, चारण तो कच्छ में ही हैं पर भाट सर्वत्र पाए जाते हैं .... चारण तो केवल राजपूतों के ही दानपात्र होते हैं, पर भाट सब जातियों से दान लेते हैं। ..... कविराज राव रघुबरप्रसाद द्वारा लिखित और प्रकाशित भट्टाख्यानम् नामक छोटी सी पुस्तक में कवि ने खींचतानी से प्रमाण जुटाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भाट शब्द ब्रह्मभट्ट से बना है, उसे ब्रह्मराव भी कहा गया है। भट्ट जाति की उत्पत्ति का प्रतीक पुरुष ब्रह्मराव था जिसे ब्रह्मा ने यज्ञकुंड से उत्पन्न किया था। भाट स्वयं को कभी सूत, मागध और वंदीजन कहकर अपने को सरस्वतीपुत्र कहने लगते हैं और कभी अग्निकुंड से उद्भूत बताते हैं। (विकिपीडिया)

छत्‍तीसगढ़ के राव भाटों के संबंध में उपरोक्‍त पंक्तियों का जोड़ तोड़ फिट ही नहीं खाता. छत्‍तीसगढ़ से इतर राव भाट वंशावली संकलक व वंशावली गायक के रूप में स्‍थापित हैं और वे इसके एवज में दान प्राप्‍त करते रहे हैं. छत्‍तीसगढ़ के बसदेवा या राव भाट वंशावली गायन नहीं करते थे वरण श्री कृष्‍ण का ही जयगान करते थे. इनके सिर में भगवान जगन्‍नाथ मंदिर पुरी की प्रतिकृति लगी होती है जो इन्‍हें कृष्‍ण भक्‍त सिद्ध करता है. वैसे छत्‍तीसगढ़ की सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं में पुरी के जगन्‍नाथ मंदिर का अहम स्‍थान रहा है इस कारण हो सकता है कि इन्‍होंनें भी इसे अहम आराध्‍य के रूप में सिर में धारण कर लिया हो. छत्‍तीसगढ़ में इन्‍हें बसदेवा कहा जाता है जो मेरी मति के अनुसार 'वासुदेव' का अपभ्रंश हो सकता है. गांवों में इसी समाज के कुछ व्‍यक्ति ज्‍योतिषी के रूप में दान प्राप्‍त करते देखे जाते हैं जिन्‍हें भड्डरी कहा जाता है. छत्‍तीसगढ़ में इनका सम्‍मान महराज के उद्बोधन से ही होता है, यानी स्‍थान ब्राह्मण के बराबर है. छत्‍तीसगढ़ के राव भाटों का मुख्‍य रोजगार चूंकि कृषि है इसलिये उनके द्वारा वेद शास्‍त्रों के अध्‍ययन पर विशेष ध्‍यान नहीं दिया गया होगा और वे सिर्फ पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक रूप से भजन गायन व भिक्षा वृत्ति को अपनी उपजीविका बना लिए होंगें. छत्‍तीसगढ़ी की एक लोक कथा ‘देही तो कपाल का करही गोपाल’ में राव का उल्‍लेख आता है. जिसमें राव के द्वारा दान आश्रित होने एवं ब्राह्मण के भाग्‍यवादी होने का उल्‍लेख आता है.

गांवों में जय गंगान गाने वालों के संबंध में जो जानकारी मिलती हैं वह यह है कि यह परम्परा अब छत्तीसगढ़ में लगभग विलुप्ति के कगार पर है, अब पारंपरिक जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने वाले बसदेवा इसे छोड़ चुके हैं. समाज के उत्तरोत्तर विकास के साथ भिक्षा को वृत्ति या उपवृत्ति बनाना कतई सही नहीं है किन्तु सांस्कृतिक परम्पराओं में जय गंगान की विलुप्ति चिंता का कारण है. अब यह समुदाय जय गंगान गाकर भिक्षा मांगने का कार्य छोड़ चुका है. पहले इस समुदाय के लोग धान की फसल काट मींज कर घर में लाने के बाद इनका पूरा परिवार छकड़ा गाड़ी में निकल पड़ते थे गांव गांव और अपना डेरा शाम को किसी गांव में जमा लेते थे. मिट्टी को खोदकर चूल्हा बनाया जाता था और भोजन व रात्रि विश्राम के बाद अल सुबह परिवार के पुरूष निकल पड़ते थे जय गंगान गाते हुए गांव के द्वार द्वार. मेरे गांव के आस पास के राव भाटों की बस्ती के संबंध में जो जानकारी मुझे है उसमें चौरेंगा बछेरा (तह. सिमगा, जिला रायपुर) में इनकी बहुतायत है.

पारंपरिक भाटों के गीतों में कृष्‍ण कथा, मोरध्‍वज कथा आदि भक्तिगाथा के साथ ही ‘एक ठन छेरी के दू ठन कान बड़े बिहनिया मांगें दान’ जैसे हास्य पैदा करने वाले पदों का भी प्रयोग होता था. समयानुसार अन्‍य पात्रों नें इसमें प्रवेश किया, प्रदेश के ख्‍यातिनाम कथाकार व उपन्‍यासकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के चर्चित उपन्‍यास ‘आवा’ में भी एक जय गंगान गीत का उल्‍लेख आया है -
जय हो गांधी जय हो तोर,
जग म होवय तोरे सोर । जय गंगान ....
धन्न धन्न भारत के भाग,
अवतारे गांधी भगवान । जय गंगान .....

मेरे शहर के दरवाजे पर जय गंगान गाने वाले व्‍यक्ति का जब मैं परिचय लिया तो मुझे आश्‍चर्य हुआ. उसका और उसके परिवार का दूर दूर तक छत्‍तीसगढ़ से कोई संबंध नहीं था. उसकी पीढ़ी जय गंगान गाने वाले भी नहीं है वे मूलत: कृषक हैं. वह भिक्षा मांगते हुए ऐसे मराठी भाईयों के संपर्क में आया जो छत्‍तीसगढ़ में भिक्षा मांगने आते थे और कृष्‍ण भक्ति के गीत गाते थे. उनमें से किसी एक नें जय गंगान सुना फिर धीरे धीरे अपने साथियों को इसमें प्रवीण बनाया. अब वे साल में दो तीन बार छत्‍तीसगढ़ के शहरों में आते हैं और कुछ दिन रहकर वापस अपने गांव चले जाते हैं. मेरे घर आया व्‍यक्ति का नाम राजू है उसका गांव खापरी तहसील कारंजा, जिला वर्धा महाराष्‍ट्र है. इनके पांच सदस्यों की टोली समयांतर में दुर्ग आती हैं और उरला मंदिर में डेरा डालती हैं.

राजू के गाए जय गंगान सुने ......


संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...