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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

लोक में महाभारत : दुर्योधन पुत्र लक्ष्‍मण कुमार - 1

सरला दास को उडि़या साहित्य के आदिकवि के रूप में जाना जाता है। उन्‍होंनें पंद्रहवीं शताब्दी में उडि़या सरला महाभारत की रचना की थी। सरला महाभारत लोक में व्‍याप्‍त महाभारत कथा है यह वेद व्यास के संस्कृत महाभारत से काफी अलग हैं। पिछले दिनों केन्‍द्रीय सरकार की एक संस्‍था के आमंत्रण में मैं उड़ीसा गया था। वहां सरला दास के महाभारत में और उडि़या के लोक में व्‍याप्‍त अन्‍य महाभारत के कुछ रोचक किस्‍सों की जानकारी हुई। 




एक कथा के अनुसार लक्ष्मण कुमार नें कुरुक्षेत्र के महान युद्ध में अपने पिता के साथ कंधे में कंधा मिलाते हुए युद्ध किया था। उसनें तब तक युद्ध किया था जब तक दुर्योधन के सभी भाई, महान महाराजा, कौरव की सेना के महान योद्धा सभी मारे गए। उस समय तक सिर्फ दुर्योधन जीवित था, कुरूक्षेत्र में अट्ठारहवें (शायद सत्रहवें) दिन भयानक युद्ध हो रहा था, रात होने वाली थी, अंधेरा घिर आया था। दुर्योधन चाहता था कि लक्ष्‍मण युद्ध क्षेत्र से भाग जाय और अपना जीवन बचाए। उस समय उसके लिए उसके बेटे का जीवन महत्वपूर्ण था। दुर्योधन का सोचना था कि युद्ध, उसके बेटे के क्षात्र धर्म (कर्तव्य) नहीं है, इस समय वह स्वयं अपने क्षात्र धर्म का प्रदर्शन करेगा। उस रात वह अपने बेटे को युद्ध के मैदान में मरते नहीं, जीवित देखना चाहता था। लक्ष्मण कुमार हरगिज जाना नहीं चाहता था किन्‍तु दुर्योधन ने बेटे को अंधेरे में युद्ध के मैदान से भागने का आदेश दिया। लक्ष्मण कुमार ने अपने पिता के आदेश का पालन किया। वह भागा, किन्तु, भयानक युद्ध में फंस गया वहां गहन अंधकार में यह पता ही नहीं चल रहा था कि था कि कौन मित्र है और कौन शत्रु, कौन किसको मार रहा है। लक्ष्मण कुमार मारा गया।




दुर्योधन को पता नहीं था कि लक्ष्‍मण की मृत्यु हो गई है। दुर्योधन लड़ता रहा जब अट्ठारह अक्षोहिणी सेना की लाशें रण में खेत हो गई तब युद्ध के मैदान के बीचो बीच रूधिर की ऐसी नदिया बह निकली जो कई-कई महानद से भी विकराल थी। रात्रि में दोनों दलों से युद्ध का नियंत्रण समाप्‍त हो गया था। दुर्योधन स्‍वयं को छिपाते हुए अपने कौरव शिविर में जाना चाहा, तो उसे उस रक्‍त की नदी को पार करने के सिवा कोई विकल्‍प नहीं दिखा। अंधेरे युद्धक्षेत्र में मृत्‍यु पर मृत्‍यु का शासन था, दुर्योधन जानता था कि उसे यहां से भागने के लिए इसे पार करना पड़ेगा। उस रूधिर की नदी में कई लाश, हाथी, घोड़, रथ सब तीव्र गति से बह रहे थे, उस पार जाने के लिए उस पार जाने के लिए किसी ऐसे वस्‍तु की आवश्‍यकता थी जो दुर्योधन का भार सह ले। वह हाथी, घोड़ों, रथों और तो और वीरों के लाशों को अपने गदा में खींचकर, अपने भार सहने लायक जांच चुका था। किन्‍तु उसका भार सह कर उसे इस रक्‍त नदी के उस पार ले जाने वाला कोई नहीं मिल रहा था। अंत में एक वीर के लाश को उसने अपने गदा से खींचा, गदा को उसके उपर रखकर उसके सहनशक्ति का परीक्षण किया। फिर पास खींचकर पहले अपना पांव रखकर देखा कि वह रक्‍त नद में डूबता तो नहीं है। लाश नहीं डूबा, दुर्योधन उस पर सवार हो गया। गदा को पतवार बना कर नदी पार करने लगा, उसके इष्‍ट-मित्र, सगे-संबंधी सब बह रहे हैं, इस काली रात में दुर्योधन लाश के छाती में बैठकर उस रक्‍त की नदी को पार कर रहा है। युद्ध के झंझावातों के साथ ही वह सोंच रहा है कि यह कौन ऐसा वीर है जो मेरे भार को सह लिया, मुझे इस भयानक युद्ध और रक्‍त नद से पार पहुचा दिया। 




रक्‍त नद को पार करने के बाद दुर्योधन उस लाश के मुख को देखता है, वह लक्ष्मण कुमार का मृत शरीर है। अपने पिता के जीवन और मृत्यु का प्रमेय युवा योद्धा ने मरकर हल कर दिया है। बताते हैं कि उस समय के हाहाकारी दृश्‍य का सरला महाभारत में बहुत करूण चित्रण हुआ है।
आगे कुछ और ...
-संजीव तिवारी

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