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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

किसानों की चिंता कौन करेगा?

सीपी एण्ड बरार से सन् 1930 में घनश्याम सिंह गुप्ता एवं सेठ गोविन्द दास को केन्द्रीय धारा सभा के लिए मनोनीत किया गया। इस अवधि में घनश्याम सिंह गुप्ता, केन्द्रीय धारा सभा में विभिन्न कानूनों एवं केन्द्रीय बिलों के विधायन के बहसों में महत्वपूर्ण दखल देते रहे। उन्होंनें इसी अवधि में केन्द्र में आर्य समाज बिल की संपूर्ण रूपरेखा बनाई और इसे पास कराया। सन् 1930 से 1937 के बीच पारित कई कानून आज भी भारत में लागू है जिसके निर्माण में धनश्याम सिंह गुप्ता का अहम योगदान है। उन्होंनें सेन्ट्रल कांस्‍टूयेंट एसेम्बसली में लम्बी-लम्बी बहसें की है जिसे आज तक छत्‍तीसगढ़ के किसी इतिहासकार या शोधार्थी नें जनता के समक्ष सहजता से उपलब्‍ध नहीं कराया हैं। वर्तमान संचार क्रांति से यह फायदा हुआ है कि देश के नेशनल आरकाईव्‍स से हमारे ये धरोहर अब अंग्रेजी में सहज रूप से उपलब्‍ध्‍ा हैं। उनके बहसों का कुछ हिस्‍सा हम हिन्‍दी भावानुवाद के साथ यहां प्रस्‍तुत कर कर रहे हैं।
19 मार्च 1936 को केन्द्रीय धारा सभा में द इंडियन फायनेंस बिल पेश हुआ। संसद में अध्यक्ष अब्दुल रहीम, संसद के सदस्यों में उड़ीसा डिवीजन के पं.नीलकंठ दास मुम्बई मिल मालिक संघ के एस.पी.मोदी, गुंटूर ग्रामीण के एन.जी.रंगें, यूनाईटेड सिटीज के मौलाना शौकत अली, इंड्रस्ट्रियल एण्ड लेबर के अंग्रेज मंत्री सर फ्रैंक नोएस आदि नें सेन्ट्रल प्रोविंस के घनश्याम सिंह गुप्ता के बीच फायनेंस बिल संबंधी गरमा-गरम बहसें की। घनश्याम सिंह गुप्ता नें तत्कालीन भारतीय अर्थव्ययवस्था में लार्ड कर्जन के लैण्ड रेवेन्यू पालिसी के प्रभाव पर बोलते हुए छत्तीसगढ़ का उदाहरण दिया। उन्होंनें कहा कि छत्‍तीसगढ़ डिवीजन में पिछले साठ साल में लैण्ड रेवेन्यू में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मेरे जिले में सन् 1870 में लैण्ड रेवेन्यू रू. 8,00,840 था जो सन् 1880 में 8,06,526 हो गया। ऐसी स्थिति में सरकार की यह पालिसी कपोलकल्पित है बल्कि उक्त तथ्य के आधार पर यह विकास को अवरूद्ध करने वाली एवं विकास विरोधी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत की जनता बेहद गरीब है। कृषि के उपज की कीमतें नीचे जा रही है और लैण्ड रेवेन्यू उपर जा रही है। सरकार एक साल में भूमि के कीमत का लगभग 33.33 प्रतिशत लैण्ड रेवेन्यू ले रही है। ऐसी स्थिति में क्या आप इसे बेहतर पालिसी मान सकते हैं, तब जब किसान गरीब से गरीब होते जा रहे हैं।
उन्‍होंनें सदन में उपस्थित सदस्‍यों को ललकारते हुए कहा कि, मेरे माननीय मित्र मुझे सहीं करें यदि मैं गलत हूं तो। उन्होंनें एक सदस्य श्री राव जो उन्हें बीच में टोका-टाकी कर रहे थे, उन्हें कहा कि श्री राव आप अपना पैसा बैंक में सुरक्षित रखने दीजिये किन्तु क्या खेती करने वालों की भी चिंता नहीं कीजिगा? क्या आप नहीं चाहेंगें कि गांव वाले भी सुखमय जीवन गुजारें? यह लैण्ड रेवेन्यू पालिसी ही इस देश में गरीबी एवं दरिद्रता के लिए जिम्मेदार है। हमें कुछ उद्योग के लिए ही नहीं, उनके संबंध में भी सोंचना चाहिए जिनकी जनसंख्या भारत में अस्सी प्रतिशत है, जो शहरों में नहीं, गांवों में रहते हैं।
उन्होनें आगे अपने बहस में चांवल के उत्पादन के प्रति उदासीनता के संबंध में कहा कि, मैं चाहता हूं कि सरकार इन तथ्यो को जाने, मुझे पता है कि वह अवश्य जानती है कि धान इस धरती की मुख्य फसल है। स्थिति ऐसी है कि, 20 करोड़ एकड़ अन्न उत्पादक क्षेत्र में से घटते हुए मात्र 8 करोड़ एकड़ भूमि में अभी धान का उत्पादन हो रहा है। मैंनें महसूस किया है कि धान के उत्पादन को बढ़ानें की स्थिति पर किसी नें ध्यान नहीं दिया है। क्या धान के उत्पादन को बढ़ाने के लिए कोई विकल्प या विचार आप लोगों के पास नहीं है? मैनें देखा है कि कपास के उत्पादन पर लाखों रूपये खर्च किए जा रहे हैं। क्यों? इसलिये कि कपास, गांव वालों के लिए नहीं है, कपास इंग्लैंड के मैनचेस्टर के लिए है या मुम्बई या अहमदाबाद के लिए है? जहां कपड़ों के मिलें हैं। किन्‍तु सरकार धान के उत्‍पादन बढ़ाने के संबंध में क्‍यूं नहीं सोंच रही है? जबकि यह इस देश का मुख्‍य फसल है, इस पर इसकदर उदासीनता क्‍यों?
- संजीव तिवारी ('विधान पुरूष : घनश्‍याम' के अंश)

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