विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
आज फिर रायपुर के छत्तीसगढ़ी कलेवा के ठीहा 'गढ़ कलेवा' जाने का अवसर मिला। बाहर बाइक और कार काफी संख्या में खड़े थे। वहां ग्राहकों के भीड़-भाड़ को देखकर दिल को सुकून मिला। बैठने के लिए बनाये गए परछी के अतिरिक्त बाहर खुले में बने पारंपरिक टेबलों में ग्राहक बैठे थे। खुले परिसर में चहल-पहल थी और काउंटर पर लोग स्वयं-सेवा करते हुए अपने पसंद का कलेवा खरीद रहे थे। कुछ दिगर-प्रांतीय सभ्रांत महिलाएं भी थी जो जाते समय छत्तीसगढ़ी डिस खरीद रही थीं, कुछ अपने बच्चों का गढ़ कलेवा के भित्ति आवरणों के साथ फोटो खींच रही थीं।
परिसर में घुसते हुए मुझे लगने लगा कि 'गढ़ कलेवा' हिट हो गया। देखकर आत्मिक आनंद आया कि हमारे प्रदेश की खान-पान परम्परा के प्रति शहरी लोगों में रूचि और सम्मान दोनों जागृत हुआ है।
हम (यानि अशोक तिवारी जी, शकुंतला तरार जी और मैं) छत्तीसगढ़ी के लब्ध प्रतिष्ठित संगीतकार खुमान साव जी के साथ थे। हमने आर्डर दिया, कलेवा परोसा गया, हमने खाया। कलेवा अपने पारंपरिक जायके के अनुसार स्वादिष्ट था।
अंदर प्लास्टिक के डिस्पोजलों में पानी और कलेवा सर्व करते वेटरों को देख कर खुमान साव जी ने चुटकी ली, वेटर सफाई मारने लगा। हमें काँसे के बर्तन में कलेवा सर्व किया गया किन्तु बर्तन गंदे थे, लग रहा था कि महीनो उसे मांजा नहीं गया है, तैलीयपन उन्हें छूते ही महसूस हो रहा था। जैसे किसी और का जूठा इस पवित्र बर्तन में समाया हुआ है। परछी के दीवारों में बने मोहक पारंपरिक भित्ति चित्र और झरोखों में धूल जमे थे, मकड़ी के जाले उभर आये थे। लग रहा था इसे महीनो से झाड़ा-पोंछा नहीं गया था। जमीन में मिट्टी जगह-जगह उखड़ी थी, गोबर से लिपी-पुती धरती गायब हो गई थी।
संस्कृति संचालनालय ने इसे अशोक तिवारी जी के मार्गदर्शन में, बड़ी आशा के साथ बनवाया था। मुख्य मंत्री ने इसका उद्घाटन किया था और इसकी प्रसंशा गाहे-बगाहे करते रहते थे। हमारी परम्परा को अक्षुण रखने के उद्देश्य से स्थापित इस केंद्र की इस कदर दुर्दशा देखकर अच्छा नहीं लगा। मेरा मानना है कि संस्कृति विभाग के साथ ही 'गढ़ कलेवा' का संचालन कर रही महिला समूह को भी ध्यान देना चाहिए, इसी परिसर के बदौलत वे अच्छा-खासा आय प्राप्त कर रहे हैं तो उनका कर्तव्य बनता है कि परिसर की पारंपरिकता को सहेज कर रखें।
नहीं तो, जिस परिकल्पना के साथ गढ़ कलेवा का निर्माण किया गया था वह कुछ महीनो में क्षीण पड़ने लगेगा और यही हाल रहा तो इसे समाप्त होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
-संजीव तिवारी
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