हिन्दी कविता में छंद का अनुशासन जब से कमजोर हुआ है, हिन्दी की कविता जन मन से दूर होती गई है। छंद बंधन से मुक्त कवितायें एकांतिक पाठ के आग्रह के साथ ही विशिष्ठ पाठक वर्ग और बौद्धिक मनों में सीमित होती गई। बंधन मुक्त कविता नें अभिव्यक्ति के नव आलोक को जन्म तो दिया पर वह लोक के कंठों में तरंगित नहीं हो सकी। संभवत: आदि कवियों नें साहित्य को लोक कंठों में बसाने के लिए ही संस्कृत छंद शास्त्र में शब्दों का अनुशासन लिखा था। जिससे अनुशासित शब्दों से पिरोए गए वाक्यांश स्वमेव गीतात्मकता को जीवंत रखे।
अरूण कुमार निगम जी के पोते
यश निगम के हाथों में ‘शब्द गठरिया बाँध’
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छत्तीसगढ़ में ऐसे ही एक जनकवि हुए जिनका नाम प्रदेश बड़े सम्मान के साथ लेता है, उनका नाम है जनकवि कोदूराम दलित। दलित जी जितने अपने पद्य में अभिव्यक्त शब्दों के प्रति अनुशासित थे उतने ही अपने जीवन आर्दशों के प्रति वे अनुशासित थे। उन्हीं के जेष्ठ पुत्र अरूण कुमार निगम नें विरासत में मिली इस परम्परा को पल्लवित एवं पुष्पित किया। अरूण कुमार निगम जी के कविता साधना से निकले छंदबद्ध रचनाओं का संकलन 'शब्द गठरिया बांध' अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से अभी-अभी प्रकाशित हुई है। दोहा, सवैया, आल्हा, कहमुकरी, कुण्डलियॉं और विविध छंदों से युक्त इस संग्रह को पढ़ते हुए गीतों के अर्थ और भाव सहज रूप से ग्राह्य होकर हृदय में उतरते जाते हैं। इस संकलन में शब्दों की गठरी जब खुलती है तब शब्द बरबस बुदबुदानें और गुनगुनाने को मजबूर करते हैं।
विभिन्न विषयों और अलंकारों से युक्त इस संकलन में कवि आरंभ में ही, कलम की महिमा बहुत सहज रूप से दोहे में प्रस्तुत करते हुए कहता हैं -
मान और सम्मान की, नहीं कलम को भूख।
महक मिटे ना पुष्प की, चाहे जाये सूख।।
कवि की यही सहजता काव्य को उसके लक्ष्य- तक पहुंचाती है। संग्रह के 112 पृष्टों तक, हर पृष्ट में कवि अपने कलम से निरंतर विभिन्न विषयों के उपर उत्कृष्ट रचनाओं का सुवासित पुष्प बिखराते हैं। संग्रह के विभिन्न छंदों को पढ़ते हुए लगता है कि हम रीतिकालीन या भक्तिकालीन काव्य का पठन कर रहे हैं जबकि कवि समय के बंधन से मुक्त , निराला और पंत के साथ ही वर्तमान समय को भी अपने गीतों में पिरोते आगे बढ़ते हैं -
कार्तिक अगहन पूस ले, आता जब हेमंत।
तन की चाहत सोंचती, बनूँ निराला पन्त।।
हिन्दी साहित्य में कवियों नें प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया है, हमारे काव्य साहित्य में ऋतु वर्णन के प्रचुर छंद विद्यमान है। इसके बावजूद आज भी जब कोई कवि ऋतुओं पर छंद लिखता है तो मन उसे पढ़कर आनंदित होता है। ऋतु, प्रकृति और पर्यावरण पर इस संग्रह में कवि नें भी खूबसूरत कलम चलाई है, सावन पर इस संग्रह में संग्रहित मालती सवैया देखें -
सावन पावन है मन भावन, हाय हिया हिचकोलत झूलै
बॉंटत बूंदनियॉं बदरी, बदरा रसिया रस घोरत झूलै
झॉंझर झॉंझ बजै झनकै, झमकै झुमके झकझोरत झूलै
ए सखि आवत लाज मुझे, सजना उत मोहि बिलोकत झूलै।
अरूण कुमार निगम जी के पास शब्दों का अपार भंडार है, उनकी कल्पना जब छंदों में श्रृंगार करती है तो इस तरह के सावन के दोहे बन पड़ते हैं -
भरे कल्पना छन्द में, इंद्रधनुष से रंग।
शब्दों का सावन करे, कुदरत को भी दंग।।
देख—देख श्रृंगार को, छलका रस श्रृंगार।
पानी—पानी वादियॉं, बदरा आये द्वार।।
मनभावन सावन जब आल्हा छंद में कवि द्वारा अभिव्यपक्त होता है तो उसके शब्द प्रयोग की कुशलता देखते बनती है -
चोट लगी वृक्षों को जब भी, होता घायल यह आकाश।
रो न सकी है आंखें इसकी, बादल इतना हुआ हताश।।
आने वाले कल से छीनी, तूने कलसे की हर प्यास।
आज मनाता जल से जलसे, कल की पीढ़ी खड़ी उदास।।
इसी तरह के ढेरों उदाहरणों से परिपूर्ण उत्कृष्ठ छंदों के इस संग्रह के कुछ उल्लेखनीय दोहे देखें, दीपावली में बने खीर के संबंध में, निर्जीव चूल्हे और प्रकृति का मानवीकरण बहुत सुन्दर रूप में अरूण जी इस दोहे में करते हैं -
मिट्टी का चूल्हा हॅंसा, सॅंवरा आज शरीर।
धूँआ चख—चख भागता, बटलोही की खीर।।
पर्यावरण पर कवि की चिन्ता दोहे में देखें -
बॉंझ मृदा होने लगी, हुई प्रदूषित वायु।
जल जहरीला हो रहा, कौन हाय दीर्घायु।।
मजदूरनी पर कवि की कल्प ना पर दोहा देखिए -
मौन हो गई चूड़ियॉं, बिंदिया भी चुपचाप।
पीर गज़ल गाती रही, धड़कन देती थाप।।
शब्दों शक्ति से परिपूर्ण कवि का मद्यपान पर दोहा देखें -
मैं की मय पीकर करे, मैं मैं मैं का जाप।
सुन मैं मय के बावरे, मैं मय दोनों पाप।।
इस पूरे संग्रह में एक से एक पद है जिनका उल्लेख यहॉं आवश्यक जान पड़ता है किन्तु यह संभव नहीं। मैं सिर्फ इस संग्रह से आपका परिचय करा रहा हूं, यह संग्रह shimply.com, flipkart.com और redgrab.com पर आन लाइन उपलब्ध और अरूण कुमार निगम जी के छंदों से साक्षात्कार कर सकते हैं। अरूण कुमार निगम जी के छंदों को आप उनके ब्लॉग मितानी गोठ में भी पढ़ सकते हैं। अरूण कुमार निगम जी सोशल मीडिया के चर्चित कवि हैं वे निरंतर कविता रचते हुए ओपन बुक्स आनलाईन एवं फेसबुक आदि के माध्यम से लगातार नव रचनाकारों को उत्साहित करते हुए छंद शास्त्र की शिक्षा दे रहे हैं एवं हिन्दी में खो रहे गीत को नई दिशा दे रहे हैं। प्रभावशाली व उपयुक्त शब्दों को जोड़-जोड़ कर गीत रचते निगम जी व्याकरण को अपना आधार मानते हैं। उन्होंनें अपने संग्रह के शीर्षक कविता में स्वयं लिखा है-
अक्षर—अक्षर चुन सदा, शब्द गठरिया बॉंध।
राह दिखाए व्याकरण, भाव लकुठिया बॉंध।।
- संजीव तिवारी
शब्द गठरिया बांध के विमोचन के समय के कुछ चित्र -
- संजीव तिवारी
शब्द गठरिया बांध के विमोचन के समय के कुछ चित्र -
देश के वरिष्ठ गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र तथा यश मालवीय के करकमलों से विमोचन इलाहबाद में |
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय क्षेत्रीय केंद्र इलाहबाद के सत्य प्रकाश मिश्र सभागार में लोकार्पण में उपस्थित साहित्यकार |
विमोचन समारोह में कविता पाठ करते अरूण कुमार निगम |
भिलाई के ग़ज़लकार गिरिराज भंडारी और इलबबद के साहित्यकार सौरभ पाण्डेय के साथ अरुण व सपना निगम |
युवा ग़ज़लकार और अंजुमन प्रकाशन के संचालक वीनस केसरी इलाहबाद |
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधायी हो।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-05-2015) को "कचरे में उपजी दिव्य सोच" {चर्चा अंक- 1992} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, क्लर्क बनाती शिक्षा व्यवस्था - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंBahut khub inspiring
जवाब देंहटाएंनिगम जी को बहुत बहुत बधाई
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