विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
छत्तीसगढ़ के दो उपेक्षित क्षेत्रो में एक बस्तर की संस्कृति पर, अंग्रेजी अध्येताओं व हीरालाल शुक्ल से लेकर राजीव रंजन प्रसाद जैसे लेखकोँ नें प्रकाश डाला है किंतु छत्तीसगढ़ का सरगुजा क्षेत्र हमेशा से उपेक्षित रहा है. सरगुजा क्षेत्र की संस्कृति के संबंध मे अंग्रेज अध्येताओं नें भी विश्वसनीय जानकारी सामने नही लाई है. अंग्रेज अध्येताओं के अध्यन जमीनी सत्यता से कोसों दूर हैं.
सरगुजा क्षेत्र की लोक कला एवं लोक गीतों पर विभिन्न शोध कार्य हुए हैं. भाषाविज्ञान की दृष्टि से सरगुजिहा बोली पर शोधात्मक कार्य लगभग 40 वर्ष पहले डॉ.कांति कुमार जैन नें किया था. उसके बाद डॉ. साधना जैन नें उस शोध की कड़ी को विस्तार दिया. इसके उपरांत लम्बे समय तक सरगुजिहा बोली पर अकादमिक शोध कार्य नहीं हुए. लम्बे अंतराल के बाद डॉ. सुधीर पाठक नें इस पर कार्य किया. उनके शोध का विषय था, सरगुजिया बोली व छत्तीसगढी भाषा के व्याकरण का तुलनात्मक अध्ययन. इस शोध नें डॉ.कांति कुमार जैन एवं डॉ.साधना जैन के भाषावैज्ञानिक शोध में नये अध्याय जोड़े जो छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास में एक मील का पत्थर बना. हालांकि यह शोध ग्रंथ विश्वविद्यालय तक ही सीमित है, इसका लोक प्रकाशन नहीं हुआ है.
छत्तीसगढी भाषा की समृद्धि के लिए डॉ.सुधीर पाठक के इस शोध ग्रंथ का प्रकाशन आवश्यक है. यह शोध भाषा सुधी अध्येताओं एवं शोधार्थियों के लिए सरगुजिहा बोली एवं छत्तीसगढ़ी भाषा के अंतर्संबंधों को समझनें में महत्वपूर्ण ग्रंथ सिद्ध होगी. डॉ. सुधीर पाठक से हुई चर्चा के अनुसार उन्होंनें इस शोध ग्रंथ के प्रकाशन के लिए संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ शासन से सहायता की मांग की है. देखिए संस्कृति विभाग अपनी ही संस्कृति के एक धरोहर के प्रकाशन के लिए सहयोग करती है कि नहीं.
पिछले लगभग बीस वर्षों से छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र की संस्कृति के संबंध मेँ कोई भी तथ्यपरक जानकारी यदि आप तक पहुंची है, तो यह तय मानें कि वह किसी न किसी रुप मेँ डॉ. सुधीर पाठक के माध्यम से ही आप तक पहुंची है. डॉ.सुधीर पाठक सरगुजा की बोली, साहित्य, संस्कृति और परम्परा के जीते जागते कोष हैं. यदि हम यह कहे तो, अतिश्योक्ति नहीं होगी.
ग्रामीण बैंक मेँ अधिकारी डॉ.सुधीर पाठक सरगुजा के मूल निवासी हैं. वे बैंक में सेवा करते हुए क्षेत्र के दूरस्थ ग्रामों में पदस्थ रहे हैं. अभी भी वे जहॉं पदस्थ हैं वहाँ आवागमन और संचार के माध्यमो की अल्पता है. वे इन दूरस्थ गाँवों में सरगुजा की मूल और 'आरुग' संस्कृति का साक्षात्कार करते हैं. अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण वे लोक बोली और परंपराओं का गहरा अध्ययन निरंतर करते रहते हैं. अपनी ही इसी प्रवृत्ति को वे समय समय पर शब्दो के माध्यम से विभिन्न आलेखों के माध्यम से या पत्रिका 'गागर' मेँ प्रस्तुत करते हैं. 'गागर' सरगुजिहा बोली की पहली पत्रिका है, जिसका प्रकाशन संपादन डॉ. सुधीर पाठक द्वारा सन 2003 में शुरू की गई जो आज तक अनवरत प्रकाशित है. इस पत्रिका के साथ ही डॉ.सुधीर पाठक भारतेंदु साहित्य कला समिति के माध्यम से लोक कलाओं का संवर्धन एवम लोक साहित्य के प्रकाशन का कार्य निरंतर कर रहे हैं.
डॉ. सुधीर पाठक द्वारा संपादित पत्रिका 'गागर' के दो अंक मेरे हाथो में है, जिसमें से एक मेँ सरगुजिहा लोककथा संग्रहित है ओर दूसरी नियमित अंक है. अभी मैनें लोक कथा अंक को पढ़ना आरंभ किया है. सरगुजिया लोक कथाओं पर फिर कभी, अभी डॉ. सुधीर पाठक को सरगुजिया बोली, भाषा व संस्कृति पर उनके प्रदेय के लिए कोटिश: आभार.
यदि आप चाहें तो उनसे 08959909048 पर संपर्क कर सकते हैं
-संजीव तिवारी
Sarguja, Sargujiha Boli, Dr.Sudhir Pathak
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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)