पिता का वचन : कहानी

छत्‍तीसगढ में बस्‍तर की वर्तमान परिस्थितियों पर मैंनें कलम चलाने का प्रयास किया है जो कहानी के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं । आप सभी से इस कहानी के पहलुओं पर आर्शिवाद चाहता हूं :-


पिता का वचन
कहानी : संजीव तिवारी

चूडियों की खनक से सुखरू की नींद खुल गई । उसने गहन अंधकार में रेचका खाट में पडे पडे ही कथरी से मुह बाहर निकाला, दूर दूर तक अंधेरा पसरा हुआ था । खदर छांधी के उसके घर में सिर्फ एक कमरा था जिसमें उसके बेटा-बहू सोये थे । बायें कोने में अरहर के पतले लकडियों और गोबर-मिट्टी से बने छोटे से कमरानुमा रसोई में ठंड से बचने के लिए कुत्ता घुस आया था और चूल्हे के राख के अंदर घुस कर सर्द रात से बचने का प्रयत्न कर रहा था । जंगल से होकर आती ठंडी पुरवाई के झोंकों में कुत्ते की सिसकी फूट पडती थी कूं कूं ।


सुखरू कमरे के दरवाजे को बरसाती पानी की मार को रोकने के लिए बनाये गये छोटे से फूस के छप्पकर के नीचे गुदडी में लिपटे अपनी बूढी आंखों से सामने फैले उंघते अनमने जंगल को निहारने लगा । अंदर कमरे से रूक रूक कर चूडियां खनकती रही और सिसकियों में नये जीवन के सृजन का गान, शांत निशा में मुखरित होती रही । सुखरू का एक ही बेटा है सुल्टू । कल ही उसने पास के गांव से गवनां करा के बेदिया को लाया है । इसके पहले उस कमरे में सुखरू और सुल्‍टू का, दो खाट लगता था और लकडी के आडे तिरछे खपच्चियों से बना किवाड हवा को रोकने के लिए भेड दिया जाता था । आज दिन में ही सुखरू नें लोहार से कडी-सांकल बनवा कर अपने कांपते हाथों से इसमें लगाया है । ‘बुजा कूकूर मन ह सरलगहा फरिका ल पेल के घुसर जथे बाबू ‘ सुल्टू के कडी को देखकर आश्चर्य करने पर सुखरू नें कहा था ।


रात गहराती जा रही थी पर सुखरू के आंख में नींद का नाम नहीं था, कमरे के अंदर से आवाजें आनी बंद हो गई । मंडल बाडा डहर से उल्लू की डरावनी आवाज नें सुखरू का ध्यान आकर्षित किया । ‘घुघवा फेर आ गे रे, अब काखर पारी हे ‘ उसने बुदबुदाते हुए सिरहाने में रखे बीडी और माचिस का बंडल उठाया और खाट में बैठकर पीने लगा, आंखों में स्वप्न तैरने लगे ।


बदरा को उसने गांव के घोटुल में पहली बार देखा था । टिमटिमाते चिमनी की रोशनी में बदरा का श्यामल वर्ण दमक रहा था । वस्त्र विहीन युवा छाती पर अटखेलियां करते उरोज नें सुखरू के तन मन में आग लगा दिया था । सामाजिक मर्यादाओं एवं मान्यता के अनुरूप सुखरू नें बदरा से विवाह किया था । रोजी रोटी महुआ बीनने, तेंदूपत्ता तोडने व चार चिरौजी से जैसे तैसे चल जाता था । हंसी खुशी से चलती जिंन्दगी में बदरा के सात बच्चे हुए, पर गरीबी-कुपोषण व बीमारी के कारण छ: बच्चे नांद नहीं पाये । सुल्टू में जीवन की जीवटता थी, घिलर-घिलर कर, कांखत पादत वह बडा हो गया । सल्फी‍ पीकर गांव मताने के अतिरिक्त सभी ग्राम्य गुण सुल्‍टू नें पाये । सुखरू नें पडोस के गांव के आश्रम स्कूल में सुल्टू को पढाने भी भेजा पर वह ले दे कर आठवीं तक पढा और फेल हो कर मंडल के घर में कमिया लग गया । तीन खंडी कोदो-कुटकी और बीस आगर दू कोरी रूपया नगदी में । सुखरू और बदरा अपना अपना काम करते रहे ।


जमाना बदल रहा था, गांव में लाल स्याही से लिखे छोटे बडे पाम्पलेट चिपकने लगे, खाखी डरेस पहने बंदूक पकडे दादा लोगों का आना जाना, बैठका चालू हो गया । सुखरू अपने काम से काम रखता हुआ, दादा लोगों को जय-जोहार करता रहा । पुलिस की गाडियां भी अब गांव में धूल उडाती आने लगी । रात को गांव में जब उल्लू बोलता, सुबह गांव के किसी व्यक्ति की लाश कभी चौपाल में तो कभी जंगल खार में पडी होती । परिजन अपने रूदन को जब्ब‍ कर किरिया-करम करते, सब कुछ भूल कर अपने अपने काम पर लग जाते । कभी कभी जंगल में गोलियों की आवाजें घंटो तक आते रहती और रात भर भारी भरकम बूटों से गांव की गलियां आक्रांत रहती ।


शबरी के जल में भोर की रश्मि अटखेलियां कर रही थी । सूरज अपनी लालिमा के साथ माचाडेवा डोंगरी में अपने आप को आधा ढांपे हुए उग रहा था । सुखरू तीर कमान को अपने कंधे में लटकाये, जंगल में दूर तक आ गया था, बदरा भी पीछे पीछे महुआ के पेडों के नीचे टपके रसदार महुए को टपटपउहन बीनते हुए चल रही थी । ‘तड-तड धांय ‘ आवाज नें सुखरू के निसाने पर सधे पंडकी को उडा दिया । सुखरू पीछे मुडकर आवाज की दिशा में देखा । दादाओं और पुलिस के बीच जंगल के झुरमुट में लुकाछिपी और धाड-धाड का खेल चालू हो गया था । भागमभाग, जूतों के सूखे पत्तों को रौंदती आवाजें, झाडियों की सरसराहट, कोलाहल, शांत जंगल में छा गई । चीख पुकार और छर्रों के शरीर में बेधने का आर्तनाद गोलियों की आवाज में घुल-मिल गया । सुखरू नें कमर झुका कर बदरा को आवाज दिया ‘भागो ‘ , खुद तीर कमान को वहीं पटक गांव की ओर भागा ।


गांव भर के लोग जंगल की सीमा में सकला गए थे । गोलियों की आवाज की दिशा में दूर जंगल में कुछ निहारने का प्रयत्न करते हुए । दो घंटे हो गए बदरा बापस नहीं आई, गोलियों की आवाजें बंद हो गई । सुखरू का मन शंकाओं में डूबता उतराता रहा ।


शाम तक पुलिस की गाडियों से गांव अंट गया, जत्था के जत्था वर्दीवाले हाथ में बंदूक थामे उतरने लगे, जंगल को रौदने लगे । कोटवार के साथ कुछ गांव वाले हिम्मत कर के जंगल की ओर आगे बढे । जंगल के बीच में जगह जगह खून के निशान पेडों-पत्तों पर बिखरे पडे थे । दादा व पुलिस वालों की कुछ लाशें यहां वहां पडी थी । सुखरू महुए के पेड के नीचे झाडियों पर छितरे खून को देखकर ठिठक गया । झाडियों के बीच बदरा का निर्जीव शरीर पडा था । जल, जंगल-जमीन की लडाई और संविधान को मानने नहीं मानने के रस्‍साकसी के बीच चली किसी गोली नें बदरा के शरीर में घुसकर बस्तर के जंगल को लाल कर दिया था ।


सुखरू सिर पकड कर वहीं बैठ गया । लाशों की गिनती होने लगी, पहचान कागजों में दर्ज होने लगे। लाशों को अलग अलग रखा जाने लगा, साधु-शैतान ? ‘और ये ?’ रौबदार मूछों वाले पुलिस अफसर नें कोतवाल मनसुखदास से पूछा । ‘बदरा साहेब’ ‘मउहा बीनत रहिस’ कोटवार नें कहा । ‘दलम के साथ’ साहब नें व्यंग से कहा । कोतवाल कुछ और कहना चाहता था पर साहब के रौब नें उसके मुह के शव्द को मुह में ही रोक दिया । ‘कितने हैं ?’ साहब नें लाश को रखने वालों से पूछा । सर हमारे चार और नक्सोलियों के तीन ।‘ ‘... ये महिला अलग ।‘


सुखरू के आंसू बहते रहे, बदरा  की लाश पुलिस गाडी में भरा के शहर की ओर धूल उडाती चली गई । अंगूठा दस्‍तखत, लूट खसोट के बाद आखिर चवन्नी मुआवजा मिला, बोकरा कटा, सल्फी व मंद का दौर महीनों चलता रहा । धूल का गुबार उठा और बस्तर के रम्य जंगल में समा गया । बदरा की याद समय के साथ धीरे-धीरे सुखरू के मानस से छट गई । सुल्टू साहब लोगों के एसपीओ बनने के प्रस्ताव को ठुकराकर मंडल के खेतों में लगन के साथ मेहनत करने लगा । सुखरू मदरस झार के शहर में जा जा कर बेंचने लगा, जीवन की गाडी धीरे से लाईन पर आ गई ।


सुखरू नें पडोस के गांव से मंगतू की बेटी को अपने बेटे सुल्टू के लिए मांग आया, अपनी सामर्थ और मंडल के दिये कर्ज के अनुसार धूम धाम से बिहाव-पठौनी किया, मुआवजा का पैसा तो उसने मंद में उडा दिया था । सुखरू के स्मृति पटल पर चलचित्र जैसे चलते इन यादों के बीच उसकी नींद फिर पड गई ।
------000------

जंगल की ओर से आती बूटों की आवाजों को सुखरू परखने की कोशिस करने लगा । आवाजें उसके खाट के पास ही आकर बंद हो गई । वह गुदडी से अपना सिर बाहर निकाला, सामने स्याह अंधेरे में दो-चार-दस, लगभग सौ बंदूकधारी सिर खडे थे । सुखरू कांपते पैरों को जमीन में रखते हुए हडबडा कर खाट से उठा । दोनों हाथ जोडते हुए कहा ‘जोहार दादा’ । बंदूक वाले नें सुखरू की बात को अनसुना करते हुए अपने लोगों से बोला ‘बाहर निकालो उसे ‘ सुखरू की रूह कांप गई, वह गिडगिडाने लगा । ‘का गलती होगे ददा’ । साथ में आये दो लोगों नें जर्जर दरवाजे को कंधे से धक्का, मारा । दरवाजा फडाक से खुल गया, सुल्टू और बहु हडबडा कर उठ गये । वो कुछ समझ पाते इसके पहले ही सुल्टू की गर्दन और बहू के बाल को पकडकर लगभग खींचते हुए घर से बाहर लाया गया । तीनों की कातर पुकार जंगल में प्रतिध्वनित होने लगी । ‘धाय ‘ भरमार बंदूक नें आग का गोला उगला । सुल्टू की चीख बाहर निकलते हुए हलक में ही जब्ब हो गई ।


खून जमा देने वाली ठंड में सुखरू के अंग के रोमछिद्रों नें जमकर पसीना उडेल दिया, उसने आंखें खोलकर आजू बाजू देखा । कोई भी नहीं था, सियाह काली रात, छाती धौंकनी की तरह चल रही थी । उसने खाट से उतर कर सुल्टू के कमरे के दरवाजे को टमड कर देखा, दरवाजा साबूत भिडा हुआ था । ‘सुल्टू , बेटा रे ‘ उसने बेहद डरे जुबान से आवाज दिया, शव्द मुह से बमुश्कल बाहर आये । रसोई में सोया कुत्ता उठकर सुखरू के पांव पर कूं कूं कर लोटने लगा । सुखरू की आंखें अब अंधेरे में कुछ देख सकने योग्य हो गई थी, हिम्मत कर के फिर बेटे को आवाज लगाई । सुल्‍टू नें अंदर से हुंकारू भरी, सुखरू के जान में जान आई । ‘ का होगे गा आधा रात कन काबर हूंत कराथस’ सुल्टू नें कहा । ‘कुछु नहीं बेटा सुते रह, सपना देख के डेरा गे रेहेंव बुजा ल’ ‘.... रद्दी सपनाच तो आथे बेटा, बने सपना त अब नंदा गे । दंतेसरी माई के सराप ह डोंगरी, टोला जम्मो म छा गे हे, बुढवा देव रिसा गे हे बेटा ....’ सुखरू बुदबुदाने लगा फिर आश्वस्थ हो खाट में बैठ कर बीडी पीने लगा । गोरसी में आग जलाई और आग तापने लगा । कमरे में चूडियां फिर खनकने लगी, कुत्ता कूं कूं कर गोरसी के पास आकर बैठ गया । आग तापते हुए बूढी आंखों में अभी अभी देखे स्वप्न के दृश्य छाये रहे । दिमाग ताना बाना बुनता रहा । मुर्गे नें बाग दिया डोंगरी तरफ से रोशनी छाने लगी ।


सुल्टू अपने कमरे से उठकर कमजोर पडते गोरसी पर लकडी डालते हुए बाप के पास आकर बैठ गया । ‘बेटा अब तुमन अपन ममा घर रईपुर चल देतेव रे, उन्हें कमातेव खातेव । इंहा रहई ठीक नई ये बुजा ह ।‘ सुखरू नें गोरसी के आग को खोधियाते हुए कहा । ‘ सरी दुनिया दाई ददा तीर रहि के सेवा करे के पाठ पढाथे, फेर तें ह कईसे बाप अस जउन हमला अपन ले दुरिहाय ले कहिथस’ सुल्टू अनमने से बात को सामान्य रूप से लेते हुए कहा । ‘बेटा दिन बहुर गे हे, तें ह एसपीओ नई बनेस जुडूम वाले मन खार खाये हें, दादा मन तोर दाई के जी लेवईया संग लडे ल बलावत हें, उहू मन गुसियावत हें । गांव के गांव खलक उजरत हे, सिबिर में गरू-बछरू कस हंकावत हें । कोनो दिन बदरा जईसे हमू मन मर खप जबो, काखर बरछा, काखर गोली के निरवार करबो । तुमन जीयत रहिहू त मोर सांस चलत रहिही बेटा ।‘ सुखरू का गला रूंध आया, आगे वह कुछ ना बोल सका ।


सुल्‍टू अपना गांव, घर, संगी-साथी को छोडने को तैयार नहीं पर बाप की जिद है । उसने चार दिन से कुछ भी नहीं खाया है, खाट पर टकटकी लगाए जंगल की ओर देख रहा है । ‘... मान ले बेटा ।‘ सुखरू सुल्टू के हाथ को पकड कर पुन: निवेदन करता है । बाप की हालत को देखकर सुल्टू बात टालने के लिए कहता है ‘तहूं जाबे त जाबोन’ । सुखरू के आंखों में बुझते दिये की चमक कौंधती है और हमेशा हमेशा के लिए बुझ जाती है ।


शबरी में तर्पण कर सुल्टू डुबकी लगाता है, नदी को अंतिम प्रणाम करता है । लोहाटी संदूक में ओढना कुरथा को धर कर अपनी नवेली दुल्हन के साथ शहर की ओर निकल पडता है । माचाडेवा डोंगरी से खिलता हुआ सूरज गांव को जगमगाने लगा है । इंद्रावती में मिलने को बेताब शबरी कुलांचे भरती हुई आगे बढ रही है ।


सुल्टू पीछे-पीछे आते कुत्ते को बार बार भगाता है, पर कुत्ता दुतकारने – मारने के बाद भी थोडी देर बाद फिर सूल्टू के पीछे हो लेता है । सुल्टू के श्रम से लहराते खेत पीछे छूटते जाते हैं, सुल्टू के मन में भाव उमड घुमड रहे हैं । पिता के वचन के बाद लिये अपने फैसले से वह आहत है, क्या उसे शहर रास आयेगा ? यदि नहीं आया तो .... वह अपने गांव में फिर से वापस आ तो सकता है । बस में जाते हुए रास्‍तें में वह कई उजडे गांवों का नाम बुदबुदा रहा है । क्‍या सुखरू का स्वप्न आकार लेकर उसके गांव में भी चीत्कार के रूप में छा जायेगा और सारा गांव भुतहा खंडहरों और जली हुई झोपडियों में तब्‍दील हो जायेगा ? तब क्‍या वह गांव वापस लौट पायेगा ।

संजीव तिवारी

15 टिप्‍पणियां:

  1. ye kahani nahi haqikat hai.bahut badhiya likha aapne ,badhai aapko

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सार्थक कहानी है - यद्यपि छत्तीसगढी में लिखे अधिकाँश संवाद ऊपर से ही गुज़र गए. लिखते रहिये.

    जवाब देंहटाएं
  3. दो अलग विचारधाराओं के दमनचक्र में पिसता सामान्य आदिवासी। संजीव, इतना सशक्त लेखन बहुत अर्से से नहीं पढ़ा था। और कुछ शब्दों का न जानना आड़े नहीं आया समग्रता ग्रहण करने में।
    लेखन के लिये बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. "जल, जंगल-जमीन की लडाई और संविधान को मानने नहीं मानने के रस्‍साकसी के बीच चली किसी गोली नें बदरा के शरीर में घुसकर बस्तर के जंगल को लाल कर दिया था ।"

    उपरोक्त पंक्तीयो के माध्यम से ही आपने सारी बात कह दी !! बधाई आपको ,अत्यंत समसमायिक और संवेदनशील रचना !!

    जवाब देंहटाएं
  5. साधुवाद,
    सलवा जुडूम पर इससे अच्छा चित्रण हो ही नहीं सकता
    सरकार सलवा जुडूम मुद्दे पर विफल रही है. गरीब आदिवासी बेचारे मरे जा रहे हैं.
    मंत्री अधिकारी और सरकार सलवा जुडूम के नाम पर भ्रस्टाचार करने मे लगी है.
    निवेदन करता हूँ की कोई ऐसी ही श्रेष्ठ कहानी सलवा जुडूम कैंप पर भी लिखें.
    आपका ही
    आलोचक

    जवाब देंहटाएं
  6. Sanjeev Bhai! It is going to refresh the whole thoughts....ur,mine and all. So keep it up.

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत अच्छी कहानी. बहुत बधाई, संजीव भाई.

    जवाब देंहटाएं
  8. क्‍या सुखरू का स्वप्न आकार लेकर उसके गांव में भी चीत्कार के रूप में छा जायेगा और सारा गांव भुतहा खंडहरों और जली हुई झोपडियों में तब्‍दील हो जायेगा ? तब क्‍या वह गांव वापस लौट पायेगा
    " i have read this story in just one go, after every paragraph more curosity was there that what would happen noww....., wonderful expression with lot of questions???? appreciable..."

    Regards

    जवाब देंहटाएं
  9. सार्थक एवं प्रेरक कहानी है, बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  10. कहानी अच्छी लगी. सशक्त लेखन के लिए बधाई शुभकामनाये.

    जवाब देंहटाएं
  11. bilkul hakikat hai... aajkal aadivasiyon ke naam par upar wale laabh utha rahe hain.. adivasiyon ka jiwan wahin ka wahin hai..
    halaanki kuchh shabd samajh nahi aaye.. par kahani ka saar samajh aaya..
    achha likha hai aapne

    जवाब देंहटाएं
  12. nice story,
    starting me aapse thodi name ko lekar mistack ho gai hai, plz ushko sudhar le.....
    wt is the name of SHUKHRU'S WIFE?
    "BADRA or BUDHIYA"??

    जवाब देंहटाएं
  13. धन्‍यवाद प्रिया जी, आपने पूरी तल्‍लीनता एवं एक सहृदयी आलोचक की भांति इसे पढा और मुझे मेरी गलतियों का आभास कराया ।

    मुझे भगवती सेन जी की दो पक्तियां याद आ रही है -

    मन ला झन छरियावव, संन्‍ता म सानव जी ।

    चेथी के आंखी ल, आघू म आनव जी ।।

    सचमुच में आपने मेरी दृष्टि को दिशा दी है, पुन: धन्‍यवाद ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...