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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भूमकाल : बस्तर का मुक्ति संग्राम

भारत स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन की 150 वीं वर्षगांठ मना रहा है । भारत के कोने कोने से 18 वीं सदी में अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में उठी चिंगारियों से देश रूबरू हो रहा है । नृत्‍य, नाटिका, कविता, लेख व कहानियों के द्वारा इस महान व पवित्र संग्राम की गाथाओं को प्रस्‍तुत किया जा रहा है और हम पूर्ण श्रद्धा से उन अमर सेनानियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्‍यक्‍त कर रहे हैं । छत्‍तीसगढ की धरती भी इस स्‍वतंत्रता आंदोलन के महायज्ञ में अपनी आहुति देती रही जिसके संबंध में इन दिनों लगातार लिखा गया और राज्‍य के श्रेष्‍ठ मंच निर्देशकों के द्वारा इसे मंचस्‍थ भी किया गया ।

17 वीं एवं 18 वीं सदी के छत्‍तीसगढ की हम बात करें तो यह बहुसंख्‍यक आदिवासी जनजातियों का गढ रहा है और धान, खनिज व वन संपदा से भरपूर होने के कारण अंग्रेज सन् 1774 से लगातार इस सोन चिरैया पर आधिपत्‍य जमाने का प्रयास करते रहे हैं जिसमें आदिवासी, वन व खनिज बाहुल्‍य बस्‍तर अंचल का भूगोल भी रहा है जहां की भौतिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों नें ‘परदेशियों’ को आरंभ से ललचाया है । बस्‍तर वनांचल क्षेत्र रहा है जहां सदियों से पारंपरिक जनजातियां मंजरों, टोलों व गांवों में शांति के साथ निवास करती रही है । काकतीय नरेशों व पारंपरिक देवी दंतेश्‍वरी की उपस्थिति इस सुरम्‍य वनांचल की अस्मिता रही है एवं ये आदिवासी दैवीय सत्‍ता के प्रतिरूप के रूप में राजा को अपना सबकुछ मानते रहे हैं । परम्‍पराओं के अनुसार उनके लिये राजा के अतिरिक्‍त किसी और की सत्‍ता स्‍वीकार्य नहीं रही है ऐसे में वे हर घुसपैठ का जमकर मुकाबला करने को सदैव उद्धत रहे हैं । आदिवासी अस्मिता में चोट के कारण उस सदी में लगभग दस विद्रोह हुए थे जिनमें भूमकाल का विद्रोह जनजातीय इतिहास में एक अविस्‍मरणीय विद्रोह था ।


आईये हम उस समय में बस्‍तर अंचल की स्थितियों पर एक नजर डालें । 17 वीं सदी के मध्‍य तक काकतीय नरेश बस्‍तर क्षेत्र में अपनी राजधानी दो तीन जगह बदलते हुए जगदलपुर में अपनी स्‍थाई राजधानी बना कर राजकाज करने लगे थे प्रजापालक राजाओं से जनता प्रसन्‍न थी । सन् 1755 में नागपुर के मराठों नें छत्‍तीसगढ के सभी क्षेत्रों में मराठा सत्‍ता कायम कर लिया तब अन्‍य गढो सहित बस्‍तर के राजाओं से अधिकार छीन लिये थे । इस प्रकार से बस्‍तर के भी राजा नाममात्र के सील ठप्‍पा ही रह गये थे । इधर संपूर्ण भारत में धीरे धीरे पैर जमाती ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी नें सन् 1800 में रायगढ राज में अपना घुसपैठ कायम कर छत्‍तीसगढ में अंग्रेजी सत्‍ता का ध्‍वज फहरा दिया था । इसके बाद के वर्षों में अंग्रेजों की कुत्सित मनोवृत्ति नें विरोध व विद्रोहों का निर्ममतापूर्वक दमन करते हुए सन् 1891 तक छत्‍तीसगढ के अन्‍य गढों में भी अपना कब्‍जा कर लूट खसोट के धंधे को मराठों से छीन लिया था ।


पहले ही बतलाया जा चुका है कि बस्‍तर में अंग्रेजी हुकूमत एवं आताताईयों के विरूद्ध लगभग नव विद्रोह हो चुके थे । बारंबार विद्रोहों के कुचले जाने के कारण स्‍वाभिमान धन्‍य शांत आदिवासी अपनी अस्मिता के लिये उग्र हो चुके थे उनके हृदय में ज्‍वाला भडक रही थी । ऐसे समय में 1891 में अंग्रेज शासन के द्वारा बस्‍तर का प्रशासन पूर्ण रूप से अपने हाथ में लेते हुए तत्‍कालीन राजा रूद्र प्रताप देव के चाचा लाल कालेन्‍द्र सिंह को दीवान के पद से हटाकर पंडा बैजनाथ को बस्‍तर का प्रशासक नियुक्‍त कर दिया गया । पंडा बैजनाथ के संबंध में यह कहा जाता है कि वह एक बुद्धिमान व दूरदर्शी प्रशासक था उसने तत्‍कालीन राजधानी जगदलपुर का मास्‍टर प्‍लान बनाया था एवं बस्‍तर में विकास के लिये विभिन्‍न जनोन्‍मुखी योजना बनाकर उसे प्रशासनिक तौर पर कार्यान्वित करवाने लगा था ।


इन योजनाओं के कार्यान्‍वयन में अंग्रेजी हुकूमत के कारिंदों के द्वारा आदिवासियों पर जम कर जुल्‍म ढाये गये । अनिवार्य शिक्षा के नाम पर आदिवासियों के बच्‍चों को जबरन स्‍कूल में लाया जाने लगा एवं विरोध करने पर दंड दिया जाने लगा । सुरक्षित वन के नियम के तहत् जंगल पर आश्रित आदिवासियों को अपने ही जल जंगल व जमीन से हाथ धोना पड रहा था या भारी भरकम जंगल कर देना पड रहा था । लेवी एवं अन्‍य करों का भार बढ गया था विरोध करने पर अंग्रेजी हुक्‍मरानों के द्वारा बेदम मारा जाता था एवं कारागारों में डाल दिया जाता था । पंडा बैजनाथ के द्वारा तदसमय में शराब बंदी हेतु बनाये नियमों के तहत् शराब विक्रय को केन्‍द्रीकृत करने ठेका देने व घर घर शराब निर्माण को बंद कराने का आदेश पारित किया गया था, आदिवासियों की मान्‍यता के अनुसार उनके बूढा देव को शराब का चढावा चढता था एवं वे उसे प्रसाद स्‍वरूप ग्रहण करते थे ऐसे में उन्‍हें लगने लगा कि उनके देव के साथ, उनकी धर्मिक मान्‍यताओं के साथ खिलवाड किया जा रहा है । पंडा बैजनाथ के द्वारा प्रशासनिक ढांचा तैयार करने के उद्देश्‍य से बस्‍तर के बडे गांव एवं छोटे नगरों में पुलिस व राजस्‍व अधिकारियों की नियुक्तियां की गई एवं वे कर्मचारी आदिवासियों की सेवा करने के स्‍थन पर उनका शोषण ही करते गये । कुल मिला कर बस्‍तर की रियाया पंडा बैजनाथ के प्रशासन से त्रस्‍त हो गई थी । उपलब्‍ध जानकारियों के अनुसार बस्‍तर का यह मुक्ति संग्राम पूर्णत: पंडा बैजनाथ के विरूद्ध ही केन्द्रित रहा है ।


इसके साथ ही अन्‍य परिस्थितियों में बस्‍तर को लूटने के उद्देश्‍य से ‘हरेया’ बाहरी लोगों का बेरोकटोक बस्‍तर आना जाना रहा है, अंग्रेजों के द्वारा मद्रास रेसीडेंसी से बस्‍तर प्रशासन को सहयोग करने के कारण मद्रास रेसीडेंसी के ‘तलेगा’ के लोग क्रमश: बस्‍तर आकर बसने लगे थे एवं प्रशासन से साठ गांठ कर के आदिवासियों की जमीन हडपकर खेती और वनोपज पर अपना कब्‍जा जमाने लगे थे और गरीब भोले आदिवासियों से बेगारी कराने लगे थे । एक तो आदिवासियों से उनकी जमीन वन नियम के तहत् छीनी जा रही थी दूसरे तरफ मद्रास के लोग वन भूमि पर कब्‍जा करते जा रहे थे और आदिवासी अपने ही खेतों व जंगलों में बेगारी करने को मजबूर थे । बस्‍तर में खनिज, वनोपज का लूट खसोट आरंभ हो चुका था । ‘बाहरी’ ‘परदेशी’ बस्‍तर के अंदर भाग तक पहुच कर संपदा का दोहन करने लगे थे । आदिवासियों के मन में इस दमन व शोषण के विरूद्ध क्रोध पनपने लगा था ।


उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों के संबंध में जो अटकलें लगाई जाती हैं उसके अनुसार राजा भैरम देव के उत्‍तराधिकारी नहीं रहने व जीवन के अंतिम काल में पुत्र रूद्र देव प्रताप सिंह देव के पैदा होने के कारण जगदलपुर के राजनैतिक परिस्थितियों में उबाल आने लगा था या कृत्तिम तौर पर इसे हवा दिया जा रहा था । राजा भैरमदेव के भाई लाल कालेन्‍द्र सिेह का बस्‍तर में भरपूर सम्‍मान रहा । वह विद्वान एवं आदिवासियों पर प्रेम करने वाला सफल दीवान रहा । संपूर्ण बस्‍तर राजा भैरमदेव से ज्‍यादा लाल कालेन्‍द्र सिंह का सम्‍मान करती थी । तत्‍कालीन राजा भैरमदेव के दो दो रानियों के बावजूद कोई संतान हो नहीं रहे थे ऐसे में लाल कालेन्‍द्र सिंह के मन में यह बात रही हो कि भावी सत्‍ता उसके हाथ में ही होगी यह उनका पारंपरिक अधिकार भी था किन्‍तु रानी के गर्भवती हो जाने पर अपने स्‍वप्‍न को साकार होते न देखकर लाल कालेन्‍द्र सिंह के कुछ आदिवासी अनुयायियों नें यह फैलाना चालू कर दिया कि रानी का गर्भ अवैध है एवं कुंअर रूद्र देव प्रताप सिंह में राजा के अंश न होने के कारण वह भावी राजा बनने योग्‍य नही है उसके इन बातों का समर्थन एक और रानी सुबरन कुंअर नें किया और दबे जबानों से आदिवासियों की भावनाओं को वैध अवैध का पाठ पढाया जाने लगा । परिस्थितियों नें राजा रूद्र प्रताप देव के विरूद्ध असंतोष को हवा दिया और आदिवासियों का साथ दिया । लाल कालेन्‍द्र सिंह एवं रानी सुबरन कुंअर नें आदिवासी जनता पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि किशोर कुंअर रूद्र प्रताप सिंह राजा घोषित होने के बाद भी इन दोनों से डरता था । और वह समय भी आ गया जब लाल कालेन्‍द्र सिंह को दीवान के पद से हटा दिया गया और अंग्रेजों के द्वारा नियुक्‍त प्रशासक पंडा बैजनाथ बस्‍तर का दीवान घोषित हो गया । पूर्व दीवान लाल कालेन्‍द्र सिंह व रानी सुबरन कुंअर की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को विराम लगा दिया गया, आदिवासियों को य‍ह अनकी अस्मिता पर कुठाराघात प्रतीत हुआ ।


उपरोक्‍त सभी परिस्थितियां एक साथ मिलकर भूमकाल विद्रोह की भूमिका रच रहे थे । बारूद तैयार था और उसमें आग लगाने की देरी थी और यह काम किया लाल कालेन्‍द्र सिंह, कुंअर बहादुर सिंह, मूरत सिंह बख्‍शी, बाला प्रसाद नाजीर के साथ में थी रानी सुबरन कुंअर । इन सभी नें मुरिया एवं मारिया व घुरवा आदिवासियों के हृदय में अंग्रेजी हुकूमत प्रत्‍यक्षत: पंडा बैजनाथ के विरूद्ध नफरत को और बढाया एवं इस नफरत नें माडिया नेता बीरसिंह बेदार और घुरवा नेंता गुंडाधूर को विप्‍लव की नेतृत्‍व सौंप दी ।


बेहद प्रभावशाली व्‍यक्तित्‍व के गुंडाधूर नें भूमकाल विद्रोह के लिये आदिवासियों को संगठित करना आरंभ किया । सभी वर्तमान शासन से त्रस्‍त थे फलत: संगठन स्‍वस्‍फूर्त बढता चला गया । इस संबंध में अपने पुस्‍तक ‘बस्‍तर इतिहास व संस्‍कृति’ में लाला जगदल पुरी बतलाते हैं कि गुंडाधूर नें इस क्राति का प्रतीक आम के डंगाल पर लाल मिर्च को बांध कर तैयार किया ‘डारा मिरी’ । यह ‘डारा मिरी’ आदिवासियों के मंजरा, टोला, गांवों में भरपूर स्‍वागत होता एवं आदिवासी इस क्राति की स्‍वीकृति स्‍वरूप इस ‘डारा मिरी’ को आगे के गांव में लेजाते थे । इस पर बस्‍तर के एक और विद्वान जो इन दिनों भोपाल में रहते हैं एवं बस्‍तर विषय पर ढेरों किताबें लिखी हैं, डॉ. हीरालाल शुक्‍ल अपनी किताब ‘छत्‍तीसगढ के जनजातीय इतिहास’ में लिखते हैं कि क्रांति के प्रतीक के रूप में गुंडाधूर के कटार को पूरे बस्‍तर में घुमाया गया, जहां वो कटार जाता था जन समूह गूंडाधूर के समर्थन में साथ देते थे । यह कटार सुकमा के जमीदार के दीवान जनकैया के पास से आगे नहीं बढ पाया क्‍योंकि वह अंग्रेजों का चापलूस था । उसने इस विद्रोह के बढते चरणों की सूचना अंग्रेजी हुकूमत को भेज दी तब तक लगभग 13 फरवरी 1910 तक राजधानी जगदलपुर सहित दक्षिण पश्चिम बस्तर का संपूर्ण भू भाग गुंडाधुर के समर्थकों के कब्जे में हो चुका था । मुरिया राज की स्‍थापना के इस शंखनाद के क्रमिक घटनाक्रम का उल्‍लेख लाला जगदलपुरी अपनी कृति ‘बस्‍तर इतिहास एवं संस्‍कृति’ में करते हुए कहते हैं कि 2 फरवरी से यह विद्रोह अपनी उग्रता में आता गया इस दिन पूसापाल बाजार भरा था, क्रांतिकारियों की भीड नें मुनाफाखोर व्‍यापारियों को भरे बाजार मारा पीटा और उनका सारा सामान लूट लिये उसके बाद 4 फरवरी को कूकानार में दो आदिवासियों नें एक व्‍यापारी की हत्‍या कर दी, 5 फरवरी करंजी बाजार लूट लिया गया । अब तक बस्‍तर में आदिवासियों के द्वारा अंग्रेजी हुक्‍मरानों, व्‍यापारियों जो आदिवासी शोषक थे की जमकर धुनाई होने लगी थी । संचार साधनों व सरकारी इमारतें विरोध स्‍वरूप ध्‍वस्‍त किया जाने लगा था । राजा रूद्र देव प्रताप सिंह स्थिति का सामना करने में असमर्थ थे । बडी मुश्किल से 7 फरवरी को राजा का तार रायपुर पहुंचा तब अंग्रेजों को इस विद्रोह के संबंध में पता चला ।


भीड हर जगह पंडा बैजनाथ को ढूढ रही थी, पंडा अपनी जान बचाते लुकते छिपते रहा । 9 फरवरी को उग्र भीड नें तीन पुलिस वालों को मार डाला । 10 फरवरी को पंडा के अनिवार्य शिक्षा के दबाव एवं पालकों पर जुर्म के विरोध में मारेंगा, तोकापाल और करंजी स्‍कूल जला दिये गये । यह क्रम 16 फरवरी तक चलता रहा, फिर रायपुर व मद्रास रेसीडेंसी से सैन्‍य सहायता पहुचनी आरंभ हो गई थी । अंग्रेज पुलिस अधीक्षक गेयर का मुठभेड खडकाघाट में उग्र क्रांतिकारियों की भीड से हो गया, गेयर के द्वारा भीड पर गोली चलाने का आदेश दे दिया गया जिसमें सरकारी आकडों के अनुसार पांच व गैरसरकारी आंकडों के अनुसार सैकडों आदिवासी मारे गये । गेयर के अंग्रेजी सेना के दबाव में क्रांति कुछ दब सा गया एवं 22 फरवरी तक सभी मुख्‍य 15 क्रांतिकारी नेता गिरफ्तार कर लिये गये । नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन फिर उग्र हो गया 26 फरवरी को 511 छोटे बडे आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिये गये और सभी को सरेआम बेदम होते तक मारा गया और छोड दिया गया ताकि अंग्रेजों का दबदबा बना रहे किन्‍तु विद्रोह न दब सका । सरकारी गोदाम लूटे जाने लगे, छोटे नगरों और कस्‍बों के कैदखानों में बंद कैदियों को छुडा लिया गया । जंगल कानून से त्रस्‍त व परदेशियों के नाम आदिवासियों की जमीन चढा देनें एवं राजस्‍व अभिलेखों में गडबडी करने वाले पटवारियों को चौंक चौराहों में लाकर पीटा गया और उनके पीठ को नंगा कर छूरी के नोक से उसमें नक्‍शे बनाये गये ।


अंग्रेजी हुकूमत नें आदिवासियों के इस विद्रोह को दबाने में अपनी रायपुर व मद्रास रेसीडेंसी की सेना के साथ ही घुडसवार पुलिस व पंजाब बटालियन को भी लगा दिया पर स्‍वस्‍फूर्त संगठित आदिवासियों का समूह अलग – अलग स्‍थानों पर छापामार गुरिल्‍ला युद्ध के तरीकों को अपनाते हुए भारी संख्‍या में अपने पारंपरिक पोशाकों व तीरों से लैस होकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ प्रदर्शन व तोडफोड - आगजनी आदि करने लगते थे और अंग्रेजी सेना के आने तक जंगल में गुम हो जाते थे । अंग्रेज इस लम्‍बी लडाई से त्रस्‍त हो चुके थे ।


25 मार्च 1910 तक यह क्रम चलता रहा । गूंडाधूर शोषित व अत्‍याचार से दमित मूल आदिवासियों के क्रांतिकारी समूह का नेतृत्‍व करता रहा । क्रांतिकारी अपने विजय यात्रा में बढते हुए नेतानार नामक गांव में इकट्ठे हुए यहां अश्‍त्र शस्‍त्र भी इकट्ठे किये गये । कुटिल अंग्रेजों नें आदिवासियों के बीच के ही एक आदिवासी सोनू मांझी को तोड लिया । सोनू मांझी नें अपने ही भाईयों के साथ गद्दारी की, क्रांतिकारियों की सभी सूचनायें अंग्रेजों को देने लगा । उसने 25 मार्च को नेतानार में भारी संख्‍या में क्रांतिकारियों के इकट्ठे होने की सूचना भी अंग्रेजों को दी । अंग्रेजों नें चाल चली वहां प्रशासन के द्वारा सोनू मांझी के सहयोग से भारी मात्रा में शराब व मांस पहुंचाया गया (एने सोनू मांझी बिचार करला/दुई ढोल मंद के नेई देला/चाखना काजे बरहा पीला/अतक जाक के रूढांई देला/सेमली कोनाडी नेला/सोनू मांझी – र अकल निरगम मारला)। लंबे युद्ध के कारण आदिवासी थक गये थे ऐसे में उनका प्रिय पेय भारी मात्रा में मिला तो वे अपना संयम खो बैठे । सभी क्रातिकारियों नें छक कर शराब का सेवन किया और बेसुध हो गये (मंद के दखि करि सरदा हेलाय/बरहा पीला के पोडाई देलाय/मंद संग काजे चाखना करलाय/खाई देलाय हांसि माति/गोठे बाती होई निसा धरि गला/अदगर कुप राति/निसा धरबा के पडला सोई/तीर धनु-कांड भाटा ने ठोई/अतक गियान तिके खंडकी ना रला/मातलाय बुध गुपाई) ऐसे ही समय में सोनू मांझी नें अंग्रेजों की सेना को सूचित किया अंग्रजों नें नेतानार में आक्रमण कर दिया । आदिवासी मुकाबला कर नहीं सके, अंग्रेजी सेना की बंदूकें गरज उठी लडखडाते कदमों व थरथराते हांथों नें तीर कमान तो थामा पर वे मारक वार कर न सके । सैकडों की संख्‍या में आदिवासी पुरूष व महिला क्रातिवीरों का शरीर गोलियों से छलनी होकर नेतानार में कटे पेडों की भांति गिरने गला, धरती खून से लाल हो गई । अंग्रेजों के बंदूकों नें बस्‍तर के मुक्ति संग्राम को नेतानार में सदा सदा के लिये मौत की नीद सुला दिया । भूमकाल के अनगिनत स्‍वतंत्रता के परवाने इस मुक्ति संग्राम की ज्‍वाला में भस्‍म हो गये जिनका नाम तक लोगों के जुबान में नहीं है यही वे सपूत थे जो कलसों की स्‍थापना के लिये संग्राम करते रहे ऐसे ही कंगूरों से स्‍वतंत्र भारत की इमारत खडी हो सकी ।


आलेख एवं प्रस्‍तुति -

संजीव तिवारी

(संदर्भ ग्रंथ : बस्‍तर इतिहास एवं संस्‍कृति – लाला जगदलपुरी, छत्‍तीसगढ का जनजातीय इतिहास – डॉ.हीरालाल शुक्‍ल, आई प्रवीर दि आदिवासी गॉड – महाराजा प्रवीर चंद भंजदेव, मारिया गोंड्स आफ बस्‍तर – डब्‍्ल्‍यू व्‍ही ग्रिग्‍सन, बस्‍तर एक अध्‍ययन – डॉ.रामकुमार बेहार व विभिन्‍न पत्र-पत्रिकायें)

यह लेख स्थानीय लघु पत्रिका 'इतवारी' के 15 जून 2008 के अंक में प्रकाशित हुआ है, इसका ई - संस्करण आप यहां देख सकते हैं पेज क्र. 27 , 28 , 29 , 30 , 31 , 32 , 33

टिप्पणियाँ

  1. संजीव जी,


    इत्तेफाक है कि बस्तर पर अपने संस्मरणों की श्रंखला में मैं "बस्तर अतीत और वर्तमान" पर कलम चलाते हुए इसी प्रसंग के माध्यम से नक्सलवाद पर प्रहार करना चाहता था कि बस्तर के भीतर अपनी ही आग है और वह अपनी लडाई लडना जानता है...उसे नक्सली आतताईयों की आवश्यकता नहीं।

    बस्तर के गौरवशाली अतीत की इस सुन्दर प्रस्तुति के लिये मैं आभारी हूँ। अनुरोध करता हूँ कि इस उपेक्षित अंचल के एसे गौरव शाली सच से आप ब्लॉग जगत को परिचित कराते रहेंगे। आपका आलेख संग्रहणीय है और मैंनें अपने संग्रह में संजो लिया है।


    आभार सहित।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  2. आपका आलेख संग्रहणीय है आभार .

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  3. bahut sundar lekh hai, bhukal vidroh ke bare me tatha basar ke kranteekariyo ke bare vyapak shodh kee jarurat hai taki bastar ke bare me or adhik jana ja sake ,..............

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  4. माया ಮಾಯಾ மாயா માયાমাযা जी का ई मेल से प्राप्त टिप्पणी -
    भूमकाल के बारे मे लिखा गया आपका लेख काबिले तारीफ़ है ,इसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है !

    जवाब देंहटाएं
  5. आज की कॄत्रीम जिंदगी मे सहज होना अत्यंत असहज हो गया है तथापि माँ दंतेश्वरी की छ्त्रछाया मे अपने गौरवशाली इतिहास के साथ बस्तर अपनी सहजता के साथ यु ही खडा है ॥

    निश्चीत ही नक्सली आतंक और राजिनितिक दावपेच से उभर कर इनका गौरवमय स्वर मुखर होगा इसकी आजान आपके ब्लाग ने इस पोस्ट के माध्यम से दे दी है !!

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  6. बहुत बढ़िया।
    कुछ दिन पहले एक शाम पूर्व सांसद केयूर भूषण जी के यहां उनके साथ बैठा यही सब सुन रहा था, इसी मुद्दे पर उनकी एक पुस्तिका जल्द ही आने वाली है।

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  7. itihaas se bahut kuchh seekhne ko bhi milta hai..bharat ke ateet ka yah hissa pahli baar padha.
    dhnywaad

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