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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

नउवा : संस्मरण



रमउ हमारे पिताजी से चार पांच साल बडे थे हमारे दादा जी नें इसे पास के गांव से लाकर हमारे गांव में बसाया था दस एकड जमीन और जुन्‍ना बाडा को देकर । रमउ हमारे परिवार का हजामत बनाया करता था और उसकी पत्‍नी छट्ठी छेवारी उठाती थी । रमउ स्‍वभाव से बहुत बातूनी था यही मेरे सभी चाचा, बुआ सहित पिताजी के लिए लडकी देखने गया था और इसी नें शादी लगाने की समस्‍त दायित्‍वों को डाट काम कंपनियों के सी ई ओ की भंति भली भंति निबटाया था ।

रमउ का बेटा जो हमारे साथ ही पढा है, कोरबा कालेज में समाजशास्‍त्र का प्रोफेसर है पिछले दिनों पेपर में पढा था कि वह पी एच डी भी कर लिया है । रमउ की सभी आदतें उसे विरासत में मिली हुई है । हमारे बचपन का दोस्‍त है दोस्‍त क्‍या हमारे एहसानों के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता हुआ एक आदर्श नमक हलाल । मैट्रिक के बाद से हम रायपुर भिलाई आ गये वह पता नहीं कहां कहां फूफा मोसा के यहां पढता रहा फिर प्रोफेसर भी बन गया।

हम विगत दिनों कोरबा प्रवास में थे उनसे मिलने की इच्‍छा हुई । मोबाईल से फोन किये तो बोला “बालको चौक में संतोष केंस कर्तनालय है वहीं संझा कन आ जाना वहां से घर चलेंगे ।“
चौंक पहुच कर हमने सोंचा पांन ठेले से पान खाकर दुकानदार से संतोष केश कर्तनालय का पता पूछा जाय । पान ठेले में पहले से दो नव धनाड्य किशोर सिगरेट पी रहे थे उनमें हंसी ठिठोली चल रही थी वो दाढी नही बनवाने के संबंध में ही कुछ कह रहे थे । मैंनें उनसे ही पूछ लिया “भाई संतोष केश कर्तनालय कहां पर है ?”
लडके फिर हंसने लगे ।
मैनें पूछा “क्‍या हुआ ?”
कहने लगे “अंकल वो देखें वो है ।“
मैं ठेले से सीधे कर्तनालय पहुच गया । अंदर देखकर मैं हतप्रभ हो गया हमारा पी एच डी प्राध्‍यापक हांथ में उस्‍तरा लिये किसी का दाढी बना रहा था । हमें देखते ही दाढी बनाना छोड के हमारे दोनो जूतों को छू कर प्रणाम किया “दाउ पाय लागौं ।“
“थोरिक बैठव मैं हजामत बना लेथव तहां ले आप संग गोठियाहूं ।“
उसके दाढी बनाते तक मैं भाव शून्‍य हो उसे देखते रहा ।
मुझे अपनी ओर अपलक ताकते हुए देखकर वह बोला
”का करबे दाउ पुरखौती धंधा ये करबे नही त सबके हजामत कौन बनाही ।“
”सबके मेछा दाढी तो साधु संत असन बाढ जाही, जउन करही शरम तेखर फूटे करम ।“
हा हा हा कह कर वह हंसने लगा ।
आज तक मेरे स्‍मृति में उसका उस्‍तरा पकडे हुए मुस्‍कुराता चेहरा घूमता है । भंगी मैला ढोना छोड दिये, धोबी कपडा चुरोना छोड दिये । वाह रे नउवा तोर दिन कब फिरही । तुम आदर्श हो समाज के ।

टिप्पणियाँ

  1. अच्छा लगा आपका संस्मरण पढ़कर.

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  2. गज़ब!!!
    पी एच डी करने, प्राध्यापक होने के बाद भी हाथों में कैंचीं-कंघा!!
    मानना पड़ेगा इन जनाब को!!

    जवाब देंहटाएं

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