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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

हमारी हिन्दी का भी कल्याण हो ! रूपर्ट स्नेल


गांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री अनुपम मिश्र द्वारा प्रकाशित अहिंसा-संस्कृति की द्वैमासिक प्रकाशन “गांधी मार्ग” में प्रकाशित रूपर्ट स्नेल, (हिन्दी प्राध्यापक, स्कूल आफ ओरियंटल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, लंदन विश्वविद्धालय) द्वारा लिखित लेख के कुछ रोचक अंश हिन्दी को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध भाईयों के लिए सादर प्रस्तुत है -

. . . . .शायद एक ऐसी पीढी जल्द ही बनेगी जिसको न अंग्रेजी ठीक तरह से आती हो, न हिन्दी ही । या यों कहा जाय कि वह पीढी बन चुकी है शव्दों के मर्म से गाफिल इस पीढी का भी कल्याण हो !

. . . . . लक्ष्मी के घर से थोडे ही फासले पर एक नया शिव मंदिर बनाया गया है । इसमें शिव जी की जो मूर्ति स्थापित है, वह संगमरमर की बनी हुई है। लक्ष्मी नें ही मुझे बताया था कि यह मूर्ति संगमरमर की है । कमाल है, मार्बल शव्द का इस्तेमाल उसने नहीं किया! मैने सोंच रखा था कि संगमरमर शव्द कब का मर-खप गया । उत्तर भारत के जितने संगमरमर के विक्रेता हैं, सबके सब अपने को `मार्बल' के विक्रेता कहते हैं । लक्ष्मी का मैं अत्यंत आभारी हूं कि उसने अनायास ही संगमरमर की सुंदरता को बचाये रखा है । यह बात दूसरी है कि बाद में उसने ही यह बात भी जोडी कि मूर्ति पर पेंट लगाया गया है । आखिरकार संगमरमर की सारी सुन्दरता जाती रही और संगमरमर वाले उस वाक्य की भी । तो भी हो, शिव की मूर्ति हमारा कल्याण करे!

. . . . . .देहरादून आते समय हमारा ध्यान कई बार किसी न किसी जूस कार्नर पर गया-चाहे गणेश जूस कार्नर हो चाहे लकी जूस कार्नर, या ब्राईट जूस कार्नर । ऐसी दुकानों का एक अडिग सिद्धांत होता है कि उनके नजदीक किसी तरह का कार्नर नही होगा, बल्कि प्रत्येक जूस कार्नर दुकानों की एक लंबी कतार के बीचों बीच कहीं सजा होगा । यह बात हमें बहुत मजेदार लगी । इन दुकानों में दूसरे ताजे रसों के साथ-साथ हास्य रस का भी स्वाद चखने को मिलेगा! आखिर में एक ऐसे ही रस की दुकान दिखाई दी जो वाकई सडक के कोने पर थी - यानी चौराहे पर ही बनी हुई थी, और उसका नाम था इंडिया जूस सेंटर! खैर, भारत के सभी कार्नर-हीन जूस कार्नरों का कल्याण हो !


आदरणीय अनुपम जी का यह प्रकाशन भी अनुपम है “गांधी मार्ग” का प्रकाशन जनवरी १९५७ से प्रारंभ हुआ था अभी अनुपम जी इस पत्रिका को १०० रू वार्षिक शुल्क पर उपलब्ध करा रहे हैं इतने कम शुल्क पर स्तरीय गांधी विचारकों के लेखों सें परिपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन अनुपम जी का गांधी यज्ञ है ।
श्री मिश्र जी का पता है -

श्री अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, २२३ दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली ११०००२
फोन - ०११ २३२३७४९१ए २३२३७४९३ए फैक्स - ०११ २३२३६७३४

टिप्पणियाँ

  1. जी हां! पत्रिका लगातार देख रहा हूं .

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  2. लेख के लिये शुक्रिया. मैं इस पत्रिका से अनभिज्ञ था, लेकिन अब चन्दा भेजने जा रह हूं -- शास्त्री जे सी फिलिप

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  3. दिल्ली में आग राग का गायन
    इन दिनों साहित्य की तथाकथित राजधानी दिल्ली में आग राग का गायन हो रहा है. मैंने गायक महोदय से जिज्ञासा की कि भई यह आग राग क्या है? तो काशी गुरु से दीक्षा ले चुके गायक जी ने कहा कि जिसको सुनकर झांट में आग लग जाए उसको आग राग कहते हैं. उनकी इस व्याख्या और इस नए राग को सुनकर अपन तो निहाल हो गये. फिर उन्होंने कहा कि बालक एक बात ध्यान से सुन लो कि इन दिनों दिल्ली में ऐसे-ऐसे संपादकाचार्य बंगाली बाजार से आए हैं जो मूतते कम हैं और हिलाते ज्यादा हैं. जब हिलाने से भी जी नहीं भरता तो अपने रात के साथी पालक पुत्रों को चाटते हैं, फुचकारते हैं. फटे में डालने की ताकत तो नहीं बची इसीलिए काने लिलीपुटियनों की मदद से लोगों से बूढ़ी गायों को गाभिन करने की कोशिश में हलकान हुए जा रहे हैं. शेष खबर लाने के लिए नारद जी जा रहे हैं.

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  4. लेख के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया..किताब मंगवाने का पता लिख कर आपने अच्छा किया है...

    सुनीता

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  5. गांधी मार्ग के नए अंक तो नहीं पढ़े मैनें पर पुराने अंक जो घर मे उपलब्ध हैं जरुर पढ़े हैं। अब लगता है कि नए अंक भी पढ़ने होंगे!
    आभार

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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