३६ गढ के स्कूलों में बच्चों पर गो मूत्र का छिडकाव : पवित्रीकरण सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

३६ गढ के स्कूलों में बच्चों पर गो मूत्र का छिडकाव : पवित्रीकरण

समाचारों में आदिवासी ईलाकों के स्कूलों में शिक्षकों के द्वारा दलित बच्चो पर पवित्रीकरण के लिये गो मूत्र के छिडकव करने की सूचना मिलने पर -

सचमुच में यह बहुत बडी विडंबना है कि हम आज भी आदम के युग से उबर नही पाये हैं । हमारी यही प्रवृत्ति के कारण ही समाज में भाई‍ चारा कायम नही हो पा रहा है पर जब भी ऐसे समाचार मुझे झकझोरते हैं, मैं अपने अतीत को झांकता हूं । मैं एक मालगुजार परिवार से हूं, जहां मेरे दादा मालगुजार थे यानी आस पास के चार गावों के पालनहार या तानाशाह । 60 के दसक की जानकारी जो मुझे मेरे परिवार जन देते थे तब की कुछ यादें आज भी शेष हैं । दादा जी का खौफ़ कुछ एसा था कि हमारे घर के सामने की गली से हर कोई अपने जूते उतार कर चलता था चाहे कितनी भी तेज तपिश हो यदि दूसरे स्‍थान में रहने वाला तनिक विकासवादी या अनजान, जूते के साथ हमारी गली में दाखिल हुआ नही कि मेरे दादा के गुर्गे जो साहू, निषाद, सेन व यादव हुआ करते थे अपने ही जात भईयों को मेरे दादा के प्रति स्वामिभक्ति एवं चाटुकारिता प्रदर्शित करने के लिये बेरहमी से पीटते थे और अपने मूछों में ताव देते थे ।

मेरे दादा स्‍वयं इसके लिए हमारे नौंकरों, दरोगाओं, लठैतों को कभी उकसाये हों ऐसा मैनें कभी नही देखा ना सुना पर ऐसा कह कर मैं अपने दादा का पक्ष नही रख रहा हूं जो तटस्‍थ है . . . समय लिखेगा उसके भी अपराध . . . को मैं जानता हूं । बिना अपराध किये पुरखो के अपराध को ढोने का अपराधबोध क्या होता है यह हमारे जैसो से पुछा जा सकता है । हमें कई बार एसे लोगों से दो चार होना पडता है जो अधुरे ईतिहास के जानकार रहे है, जिनके दिल में सवर्णो के लिये कोई दया नही है । ईनके सामने पूरी जिंदगी उंच नीच का भेद व्यवहार किये बिना भी नाम के पीछे तिवारी होने के कारण हमारे जैसे लोग अपराधी ठहराये जाते है ।

मुसलमान शासकों को हमने यह कह कर अभयदान दे दिया कि उन्‍होनें अपने राज्‍य व्‍यवस्‍था को कायम रखनें के लिए दमन एवं धर्म परिवर्तन का सहारा लिया । यह कूटनीति थी राजनीति थी । सहानुभूति के कई शव्‍दों का प्रयोग भिन्‍न भिन्‍न जगह किया गया है, जबकि हिन्‍दुस्‍तान गवाह है कि मुगल काल में बहुतेरे गरीब तबके के लोग मुसलमान बनाये गये या स्‍वेच्‍छा से बन गये दमन एवं आतंक का नंगा नाच तब भी लेखा गया था, सिखों का प्रादुर्भाव क्‍यों हुआ था सभी जानते हैं पर मुगलों को बाबर का संतान कह कर नीचा नही दिखाया जाता ।


यह सब अप्रासांगिक एक दूसरे से बेमेल बाते प्रसंशवश ही कह रहा हूं आज दलितों को अपवित्रं पवित्र: कहने वाले कही न कही से कुलीनता का लबादा ओढे भ्रष्‍ट परिवार के ही अंश हैं यदि ये कुलीन हैं तो सौ प्रतशित वैधानिक और यदि ये स्‍वयं दलित ओ बी सी आदि हैं और ऐसा कर रहे हैं तो सौ प्रतशित अवैधनिक रूप से आरंभिक 19 वी सदी के पंडितों के संतान हैं क्योकि वैदिक संस्कृति के अनुसार मनु ही प्रथम मनुष्य थे ।

मैं लोगों के द्वारा मनु के संतान शव्‍द के प्रयोग करने पर आपत्ति पेश करता हूं । अज्ञानी के कान में वेद के ऋचाओं का स्‍वर पडने मात्र पर खौलता शीशा उनके कान में डालने का इंटरप्रिटेशन करने वालों को ही लोग आधुनिक युग में मनु के संतान की संज्ञा देते है । यानी गंदा इंशान जबकि हमें अपने आप को मनु के संतान कहलाने में गर्व महसूस करना चाहिए । मनु हिन्‍दू संकृति के आदि पुरूष् हैं, फिर भी हमें उनसे नफरत है बल्कि हमें नफरत उन पंडितों से करना चाहिए जिन्‍होंनें अपनी स्‍वार्थ सिद्धि के लिए अपने अनुसार स्मृतियों के अर्थ जनसुलभ कराये । क्या मनु ने स्वयं मनु स्मृति को लिखा ? उनको तो संतानोत्पत्ति कर पृथ्वी में मनुष्य संसार को रचना था उनके पास ईतना समय (मेरी समझ के अनुसार) बिल्कुल भी नहीं रहा होगा । जो भी लिखा गया वह पंडितों के द्वारा ही लिखा गया था, चूकि मनुष्य मनु के संतान थे इसलिये मनुष्य के जीवन व्यवहार की संहिता बनाने के उद्देश से तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार तात्कालिक परिस्थितियों के लिये ही, जो नियमावली की रचना की गयी उसे मनु स्मृति का नाम दे दिया गया । ठीक उसी प्रकार से जैसे राज्य के उत्पत्ति के सिद्धांत में संगठन व संम्हिता का श्रजन होता है । और ये गो मूत्र से दलितों को पवित्र करने वाले भी उन्‍ही पंडितों के वंशज हैं वही पंडित जिन पर वैदिक काल में भी हमारे बच्‍चों के शिक्षा की जिम्‍मेदारी थी और आज भी है । “पंडित सोई जो गाल बजावा . . .”

आज मात्र ऐसे समाचारों के शीर्षक को पढ कर सर्वणों के विरोध में दस पन्‍ने का भाषण देने वाले तथाकथित अम्‍बेडकर वादी भी हैं जिनका एक मात्र उददेश्‍य सर्वणों का विरोध करना है इसलिए नही कि सर्वण गलत हैं इसलिए क्‍योंकि यह समय की मांग है और इसी में ताली के ज्‍यादा बजने की संभावना है ।

गो मुत्र का छिड्काव करने के लिये किसने किन परिस्थितियो में कहा और क्यो कहा शिक्षकों ने एसा क्यो किया यह हमारे लिये मायने नहीं रखता मायने रखता है बाल की खाल निकालना कहां किसी से चूक हुई और “सींका के टुट्ती बिलईया के झपट्ती “

टिप्पणियाँ

  1. अपने नारद परिवार से व्यक्तिगत चर्चा -

    मित्रो एवं गुरुओ को मेरा नमस्कार !

    आपके द्वारा मेरे चिठ्ठे मे टिप्पणी करने एवं उत्साह बढाये जाने के कारण ही मै यह चिठ्ठा लिख रहा हूं खासकर भाई नीरज दीवान ने मेरा मनोबल को बढाया है । आप सभी को बहुत बहुत धंयवाद । मै भरसक प्रयत्न करूगा कि छत्तीसगढ से संबंधित सामयिक चिठ्ठा लिखते रहूं । (हालांकि अभी मै नये राजधानी के लिये छत्तीसगढ शासन के द्वारा भारी मात्रा में भूमि अधिग्रहण, ग्रामीणो के सम्भावित निर्वासन व नये रायपुर के मास्टर प्लान के विरोध में खाख छान रहा हूं )
    मै बी बी सी के पूर्व पत्रकार व सी जी नेट के भाई शुभांशु का भी आभारी हू जो मुझे नित नये विवादास्पद समाचारों से मेल के द्वारा अवगत कराते रहते है और जिसके कारण ही मुझे विषय सूझते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी09 मई, 2007 09:35

    मनु व अम्बेडकर के संबंध में हम टिप्पणी नहीं करेंगे इस संबंध अपकी जानकारी अधूरी है

    जवाब देंहटाएं
  3. भाई तिवारी जी बहुत सही कहा

    जवाब देंहटाएं
  4. संजीव जी आपकी जानकारी के हम कायल है जब्से आपका चिट्ठा पढ़ना प्रारम्भ किया है हमे बहुत जानकारी मिलने लगी है,..बहुत ही अच्छा लगा सब पढकर,..ये सच है आज भी हमारे देश में चारो और लूट-खसोट मची हुई है,..और पढ़-लिख कर भी लोग अंधविश्वासी बने हुए है,..दादागिरी अभी भी कायम है बस अन्दाज बदल गये हैं,..
    आपके तिवारी नाम के विषय में हम कुछ नही जानते सिवाय इसके की तिवारी ब्राहृमण होते है,..
    मुझे भी इन बेबुनियादी बातों से सख्त नफ़रत है,..जो भी लिखा है सब पंडितो का किया धरा है,..आज वक्त बदल गया है कोई पिछड़ा नही और कोई उच्च-वर्ग का नही है,..
    एक बार फ़िर धन्यवाद।
    सुनीता(शानू)

    जवाब देंहटाएं
  5. बेनामी09 मई, 2007 19:05

    जानकारी देने के लिए शुक्रिया. क्या गौमूत्र वाला समाचार कहीं प्रकाशित हुआ था. यदि उपलब्ध हो तो मुझे अवश्य बताएं. मेरा मेल पता है - neerajdiwan at gmail dot com

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी कुछ बातों से सहमत हूँ कुछ से नहीं।

    पहली बात तो यह कि न मैंने न मेरे पुरखों ने किसी दलित पर अत्याचार किया फिर हर बात के लिए पूरी कौम को दोषी क्यों ठहराया जाता है। और जिनके पुरखों ने अत्याचार किया भी उनको कोसने का क्या तुक।

    दूसरी बात जाति प्रथा के बारे में मेरा सपष्ट विचार है कि देश काल के अनुसार हमेशा परिस्थतियाँ बदलती हैं। किसी समय व्यवस्था चलाने के लिए जाति प्रथा कायम की गई होगी। आज के समय में यह अर्थहीन हो चुकी है।

    बल्कि यह धीरे-धीरे खत्म हो रही है लेकिन दो चीजें इसे खत्म होने नहीं दे रही - एक तो जातिगत आरक्षण दूसरा जाति के नाम पर राजनीतिक रोटियाँ सेकने वाले और पिछड़ों के कथित नेता एवं मसीहा।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म