विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
एक बार फिर चंदैनी-गोंदा की स्मृतियाँ ताजी हो गई और कुछ लिखने की इच्छा जाग गई. सत्तर के दशक की शुरुवात में ग्राम- बघेरा, दुर्ग के दाऊ राम चन्द्र देशमुख ने ३६ गढ़ के 63 कलाकारों को लेकर "चंदैनी-गोंदा" की स्थापना की. "चंदैनी-गोंदा" किसान के सम्पूर्ण जीवन की गीतमय गाथा है. किसान के जन्म लेने से लेकर मृत्यु होने तक के सारे दृश्यों को रंगमंच पर छत्तीसगढ़ी गीतों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया गया कि यह मंच एक इतिहास बन गया.
चंदैनी गोंदा की प्रथम प्रस्तुति दाऊ रामचंद्र देशमुख के गृहग्राम बघेरा में हुई। दूसरी प्रस्तुति ग्राम पैरी (बालोद,जिला दुर्ग के पास) छत्तीसगढ़ के जन कवि स्व.कोदूराम "दलित" को समर्पित करते हुए दाऊ जी ने मंच पर उनकी धर्म-पत्नी को सम्मानित किया था. इस आयोजन की भव्यता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि चंदैना गोंदा देखने सुनने के लिए लगभग अस्सी हजार दर्शक ग्राम पैरी में उमड़ पड़े थे. इस प्रदर्शन के बाद जहाँ भी चंदैनी-गोंदा का आयोजन होता,आस -पास के सारे गाँव खाली हो जाया करते थे. सारी भीड़ चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने रात भर मधुर गीतों और संगीत की रसभरी चांदनी में सराबोर हो जाया करती थी. इसके बाद छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर चंदैनी-गोंदा के सफल प्रदर्शन हुए.चंदैनी-गोंदा के प्रदर्शन छत्तीसगढ़ के बाहर भी कई शहरों में हुआ.
चंदैनी-गोंदा के उद्घोषक सुरेश देशमुख की मधुर और सधी हुई आवाज दर्शकों को भोर तक बाँधे रहती थी.चंदैनी गोंदा के मधुर गीतों को स्वर देने वाले प्रमुख गायक-गायिका थे रविशंकर शुक्ल, लक्ष्मण मस्तुरिया, भैय्या लाल हेडाऊ, केदार यादव, अनुराग ठाकुर, संगीता चौबे, कविता हिरकने (अब कविता वासनिक) साधना यादव, संतोष झाँझी, लीना,किस्मत बाई आदि. प्रमुख गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के आलावा रवि शंकर शुक्ल, पवन दीवान, स्व.कोदूराम "दलित", रामेश्वर वैष्णव, नारायणलाल परमार, रामरतन सारथी, द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, भगवती सेन, हेमनाथ यदु आदि। पारंपरिक गीत भी रहे. इन गीतों को संगीतबद्ध करने वाले संगीतकार थे खुमान लाल साव. खुमान लाल साव के साथ बेन्जो पर गिरिजा शंकर सिन्हा, बांसुरी पर संतोष टांक, तबले पर महेश ठाकुर आदि. मंच पर सशक्त अभिनय का लोहा मनवाते थे- दाऊ रामचंद्र देशमुख, भैया लाल हेडाऊ, शिव कुमार दीपक (हास्य), सुमन, शैलजा ठाकुर आदि. साउंड-सिस्टम पर नियंत्रण रहता था स्वर-संगम, दुर्ग के बहादुर सिंह ठाकुर का. (गायक, गीतकार, वादक, अभिनय के नाम अपनी याददाश्त के अनुसार लिख रहा हूँ, इन नामों के आलावा और भी बहुत से कलाकारों का संगम था चंदैनी-गोंदा में. यदि किसी पाठक के पास जानकारी उपलब्ध हो तो मेरे लेख को पूर्ण करने में मदद करेंगे,मैं आभारी रहूँगा.)
छत्तीसगढ़ी गीतों से सजे चंदैनी-गोंदा के मधुर गीतों का उल्लेख किये बिना यह लेख अधूरा ही रह जायेगा. चल - चल गा किसान बोये चली धान असाढ़ आगे गा में जहाँ आसाढ़ ऋतु का दृश्य सजीव होता था वहीँ आगी अंगरा बरोबर घाम बरसत हे -गीत ज्येष्ठ की झुलसती हुई गर्मी का एहसास दिलाती थी. छन्नर –छन्नर पैरी बजे, खन्नर-खन्नर चूरी गीत में धान-लुवाई का चित्र उभर आता था, आज दौरी माँ बैला मन... गीत अकाल के बाद किसान की मार्मिक पीड़ा को उकेरता था. किसान कभी अपना परिचय देता है...मयं छत्तीसगढ़िया हौं गा. मयं छत्तीसगढ़िया हौं रे, भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया हौं गा.....कभी अपनी मातृ- भूमि को नमन करते हुए गा उठता है... मयं बंदत हौं दिन-रात,मोर धरती-मैय्या जय होवै तोर.. चंदैनी-गोंदा में बाल मन में-चंदा बन के जिबो हम,सुरुज बनके जरबो हम, अनियाई के आगू भैया, आगी बरोबर बरबो हम जैसे गीत के माध्यम से देश प्रेम की भावना का संचार किया गया तो कभी आगे सुराज के दिन रे संगी ... के द्वारा आजादी का आव्हान किया गया.. संयोग श्रृंगार में नायक-नायिका ददरिया गाते झूमते नजर आते थे-मोर खेती-खार रुमझुम, मन भँवरा नाचे झूम-झूम किंदर के आबे चिरैया रे... नई बाँचे चोला छूट जाही रे परान, हँस-हँस के कोन हा खवाही बीड़ा पान. छत्तीसगढ़ी श्रृंगार -गीत में खुमान लाल साव ने अद्भुत संगीत से इस गीत को संवारा-बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमे.... अपने नायक की स्मृति में कभी नायिका कह उठती है... तोला देखे रहेवं गा, तोला देखे रहेवं रे,धमनी के हाट माँ बोइर तरी... नायिका अपने घर का पता कुछ तरह से बताती है.. चौरा माँ गोंदा, रसिया मोर बारी माँपताल.... प्रेम में रमी नायिका को जब मुलाकात में हुई विलम्ब का अहसास होता है तो घर लौटने का मनुहार कभी इस प्रकार से करती है... अब मोला जान दे संगवारी, आधा रत पहागे मोला घर माँ देही गारी रामा... और कभी कहती है.... मोला जावन दे ना रे अलबेला मोर, अब्बड़ बेरा होगे मोला जावन दे ना.. नायिका के विरह गीतों में काबर समाये रे मोर बैरी नयना मा, मोर कुरिया सुन्ना से,बियारा सुन्ना रे,मितवा तोर बिना का बेहतरीन मंचन किया गया..
चंदैनी-गोंदा में पारंपरिक गीतों में सोहर, बिहाव-गीत, गौरा-गीत, करमा, सुवा-गीत, राउत नाचा, पंथी नृत्य तथा अन्य लोक गीतों का समावेश भी खूबसूरती से किया गया था. गौरा गीत मंचन के समय बहुत बार कुछ दर्शकों पर तो देवी भी चढ़ जाती थी जिसे पारंपरिक तरीकों से शांत भी किया जाता था. चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने पता ही नहीं चलता था की रात कैसे बीत गई.
चंदैनी-गोंदा के मुख्य गायक- गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया हैं. उपरोक्त अधिकांश गीत उन्ही के द्वारा रचित हैं सन 2000 के दशक के प्रारंभ से शुरू हुई अनेक छत्तीसगढ़ी फिल्मों में उनके गीत लोकप्रिय हुए.. संगीतकार खुमान लाल साव ने छत्तीसगढ़ी गीतों को नया आयाम दिया. आपने भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अपना योगदान दिया है. चंदैनी-गोंदा के बाद छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य परिष्कृत रूप में बनने प्राम्भ हो गए. बाद के अन्य संगीतकारों की संगीत रचनाएँ भी काफी मशहूर हुई किन्तु उनमें कहीं न कहीं खुमान लाल साव की शैली का प्रभाव जरुर होता था.बंगाल में जैसे रविन्द्र-संगीत का प्रभाव है उसी तरह खुमान - संगीत पर भी विचार किया जाना चाहिए. भैयालाल हेडाऊ ने सत्यजीत रे की फिल्म सद्गति में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी.शैलजा ठाकुर भी रुपहले परदे पर नजर आई. सन १९८२ में तेरह इ.पी.रिकार्ड के जरिये चंदैनी गोंदा के बहुत से गीतों ने छत्तीसगढ़ में धूम मचाई, आज भी अच्छे सुनने वालों के पास ये गीत उनके संकलन में हैं.
दाऊ रामचंद्र देशमुख ने चंदैनी गोंदा के बाद "देवार- डेरा" और "कारी" का भी सफल मंचन किया. इनमें संवाद लेखक प्रेम साइमन थे। चंदैनी गोंदा के प्रदर्शन के लगभग साथ-साथ ही दुर्ग के दाऊ महा सिंह चंद्राकर ने "सोनहा-बिहान" और "लोरिक चंदा" को मंच पर प्रस्तुत कर छत्तीसगढ़ को अनमोल भेंट दी. इनके बाद छत्तीसगढ़ में बहुत से कलाकारों ने इस दिशा में प्रयास किये हैं किन्तु चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान ही सर्वाधिक सफल मंच रहे. केदार यादव के " नवा-बिहान" ने भी काफी लोकप्रियता हासिल की. दुर्ग के संतोष जैन के मंच "क्षितिज रंग शिविर" ने छत्तीसगढ़ तथा भारत के अनेक प्रदेशों में अपने उत्कृष्ट से अभिनय को नई उँचाईयां प्रदान की हैं. छत्तीसगढ़ के रंगमंच को जीवंत करने में अर्जुन्दा के दाऊ दीपक चंद्राकर और दुर्ग के दाऊ विनायक अग्रवाल की महत्वपूर्ण भूमिका भी कभी भुलाई नहीं जा सकती।
(समस्त चित्र लोकप्रिय पत्रिका-धर्मयुग -25 मार्च 1979 में प्रकाशित श्री परितोष चक्रवर्ती के आलेख से साभार)
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़
चंदैनी गोंदा की प्रथम प्रस्तुति दाऊ रामचंद्र देशमुख के गृहग्राम बघेरा में हुई। दूसरी प्रस्तुति ग्राम पैरी (बालोद,जिला दुर्ग के पास) छत्तीसगढ़ के जन कवि स्व.कोदूराम "दलित" को समर्पित करते हुए दाऊ जी ने मंच पर उनकी धर्म-पत्नी को सम्मानित किया था. इस आयोजन की भव्यता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि चंदैना गोंदा देखने सुनने के लिए लगभग अस्सी हजार दर्शक ग्राम पैरी में उमड़ पड़े थे. इस प्रदर्शन के बाद जहाँ भी चंदैनी-गोंदा का आयोजन होता,आस -पास के सारे गाँव खाली हो जाया करते थे. सारी भीड़ चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने रात भर मधुर गीतों और संगीत की रसभरी चांदनी में सराबोर हो जाया करती थी. इसके बाद छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर चंदैनी-गोंदा के सफल प्रदर्शन हुए.चंदैनी-गोंदा के प्रदर्शन छत्तीसगढ़ के बाहर भी कई शहरों में हुआ.
चंदैनी-गोंदा के उद्घोषक सुरेश देशमुख की मधुर और सधी हुई आवाज दर्शकों को भोर तक बाँधे रहती थी.चंदैनी गोंदा के मधुर गीतों को स्वर देने वाले प्रमुख गायक-गायिका थे रविशंकर शुक्ल, लक्ष्मण मस्तुरिया, भैय्या लाल हेडाऊ, केदार यादव, अनुराग ठाकुर, संगीता चौबे, कविता हिरकने (अब कविता वासनिक) साधना यादव, संतोष झाँझी, लीना,किस्मत बाई आदि. प्रमुख गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के आलावा रवि शंकर शुक्ल, पवन दीवान, स्व.कोदूराम "दलित", रामेश्वर वैष्णव, नारायणलाल परमार, रामरतन सारथी, द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, भगवती सेन, हेमनाथ यदु आदि। पारंपरिक गीत भी रहे. इन गीतों को संगीतबद्ध करने वाले संगीतकार थे खुमान लाल साव. खुमान लाल साव के साथ बेन्जो पर गिरिजा शंकर सिन्हा, बांसुरी पर संतोष टांक, तबले पर महेश ठाकुर आदि. मंच पर सशक्त अभिनय का लोहा मनवाते थे- दाऊ रामचंद्र देशमुख, भैया लाल हेडाऊ, शिव कुमार दीपक (हास्य), सुमन, शैलजा ठाकुर आदि. साउंड-सिस्टम पर नियंत्रण रहता था स्वर-संगम, दुर्ग के बहादुर सिंह ठाकुर का. (गायक, गीतकार, वादक, अभिनय के नाम अपनी याददाश्त के अनुसार लिख रहा हूँ, इन नामों के आलावा और भी बहुत से कलाकारों का संगम था चंदैनी-गोंदा में. यदि किसी पाठक के पास जानकारी उपलब्ध हो तो मेरे लेख को पूर्ण करने में मदद करेंगे,मैं आभारी रहूँगा.)
छत्तीसगढ़ी गीतों से सजे चंदैनी-गोंदा के मधुर गीतों का उल्लेख किये बिना यह लेख अधूरा ही रह जायेगा. चल - चल गा किसान बोये चली धान असाढ़ आगे गा में जहाँ आसाढ़ ऋतु का दृश्य सजीव होता था वहीँ आगी अंगरा बरोबर घाम बरसत हे -गीत ज्येष्ठ की झुलसती हुई गर्मी का एहसास दिलाती थी. छन्नर –छन्नर पैरी बजे, खन्नर-खन्नर चूरी गीत में धान-लुवाई का चित्र उभर आता था, आज दौरी माँ बैला मन... गीत अकाल के बाद किसान की मार्मिक पीड़ा को उकेरता था. किसान कभी अपना परिचय देता है...मयं छत्तीसगढ़िया हौं गा. मयं छत्तीसगढ़िया हौं रे, भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया हौं गा.....कभी अपनी मातृ- भूमि को नमन करते हुए गा उठता है... मयं बंदत हौं दिन-रात,मोर धरती-मैय्या जय होवै तोर.. चंदैनी-गोंदा में बाल मन में-चंदा बन के जिबो हम,सुरुज बनके जरबो हम, अनियाई के आगू भैया, आगी बरोबर बरबो हम जैसे गीत के माध्यम से देश प्रेम की भावना का संचार किया गया तो कभी आगे सुराज के दिन रे संगी ... के द्वारा आजादी का आव्हान किया गया.. संयोग श्रृंगार में नायक-नायिका ददरिया गाते झूमते नजर आते थे-मोर खेती-खार रुमझुम, मन भँवरा नाचे झूम-झूम किंदर के आबे चिरैया रे... नई बाँचे चोला छूट जाही रे परान, हँस-हँस के कोन हा खवाही बीड़ा पान. छत्तीसगढ़ी श्रृंगार -गीत में खुमान लाल साव ने अद्भुत संगीत से इस गीत को संवारा-बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमे.... अपने नायक की स्मृति में कभी नायिका कह उठती है... तोला देखे रहेवं गा, तोला देखे रहेवं रे,धमनी के हाट माँ बोइर तरी... नायिका अपने घर का पता कुछ तरह से बताती है.. चौरा माँ गोंदा, रसिया मोर बारी माँपताल.... प्रेम में रमी नायिका को जब मुलाकात में हुई विलम्ब का अहसास होता है तो घर लौटने का मनुहार कभी इस प्रकार से करती है... अब मोला जान दे संगवारी, आधा रत पहागे मोला घर माँ देही गारी रामा... और कभी कहती है.... मोला जावन दे ना रे अलबेला मोर, अब्बड़ बेरा होगे मोला जावन दे ना.. नायिका के विरह गीतों में काबर समाये रे मोर बैरी नयना मा, मोर कुरिया सुन्ना से,बियारा सुन्ना रे,मितवा तोर बिना का बेहतरीन मंचन किया गया..
चंदैनी-गोंदा में पारंपरिक गीतों में सोहर, बिहाव-गीत, गौरा-गीत, करमा, सुवा-गीत, राउत नाचा, पंथी नृत्य तथा अन्य लोक गीतों का समावेश भी खूबसूरती से किया गया था. गौरा गीत मंचन के समय बहुत बार कुछ दर्शकों पर तो देवी भी चढ़ जाती थी जिसे पारंपरिक तरीकों से शांत भी किया जाता था. चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने पता ही नहीं चलता था की रात कैसे बीत गई.
चंदैनी-गोंदा के मुख्य गायक- गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया हैं. उपरोक्त अधिकांश गीत उन्ही के द्वारा रचित हैं सन 2000 के दशक के प्रारंभ से शुरू हुई अनेक छत्तीसगढ़ी फिल्मों में उनके गीत लोकप्रिय हुए.. संगीतकार खुमान लाल साव ने छत्तीसगढ़ी गीतों को नया आयाम दिया. आपने भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अपना योगदान दिया है. चंदैनी-गोंदा के बाद छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य परिष्कृत रूप में बनने प्राम्भ हो गए. बाद के अन्य संगीतकारों की संगीत रचनाएँ भी काफी मशहूर हुई किन्तु उनमें कहीं न कहीं खुमान लाल साव की शैली का प्रभाव जरुर होता था.बंगाल में जैसे रविन्द्र-संगीत का प्रभाव है उसी तरह खुमान - संगीत पर भी विचार किया जाना चाहिए. भैयालाल हेडाऊ ने सत्यजीत रे की फिल्म सद्गति में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी.शैलजा ठाकुर भी रुपहले परदे पर नजर आई. सन १९८२ में तेरह इ.पी.रिकार्ड के जरिये चंदैनी गोंदा के बहुत से गीतों ने छत्तीसगढ़ में धूम मचाई, आज भी अच्छे सुनने वालों के पास ये गीत उनके संकलन में हैं.
दाऊ रामचंद्र देशमुख ने चंदैनी गोंदा के बाद "देवार- डेरा" और "कारी" का भी सफल मंचन किया. इनमें संवाद लेखक प्रेम साइमन थे। चंदैनी गोंदा के प्रदर्शन के लगभग साथ-साथ ही दुर्ग के दाऊ महा सिंह चंद्राकर ने "सोनहा-बिहान" और "लोरिक चंदा" को मंच पर प्रस्तुत कर छत्तीसगढ़ को अनमोल भेंट दी. इनके बाद छत्तीसगढ़ में बहुत से कलाकारों ने इस दिशा में प्रयास किये हैं किन्तु चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान ही सर्वाधिक सफल मंच रहे. केदार यादव के " नवा-बिहान" ने भी काफी लोकप्रियता हासिल की. दुर्ग के संतोष जैन के मंच "क्षितिज रंग शिविर" ने छत्तीसगढ़ तथा भारत के अनेक प्रदेशों में अपने उत्कृष्ट से अभिनय को नई उँचाईयां प्रदान की हैं. छत्तीसगढ़ के रंगमंच को जीवंत करने में अर्जुन्दा के दाऊ दीपक चंद्राकर और दुर्ग के दाऊ विनायक अग्रवाल की महत्वपूर्ण भूमिका भी कभी भुलाई नहीं जा सकती।
(समस्त चित्र लोकप्रिय पत्रिका-धर्मयुग -25 मार्च 1979 में प्रकाशित श्री परितोष चक्रवर्ती के आलेख से साभार)
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग छत्तीसगढ़
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