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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सलाम बंडू, कुकूर!!

बात सन 1983 के किसी जड़काले की है, मध्य प्रदेश माध्यमिक परीक्षा मंडल की अंतिम मैट्रिक परीक्षा की अंकसूची में छपे शब्दों में बसी खुशबू बरकार थी। भिलाई स्टील प्लांट में श्रमिकों की भर्ती के लिए जिला रोजगार कार्यालय दुर्ग द्वारा समय वरीयता के अनुसार समय-समय पर बुलावा पत्र गांवो के लड़कों को मिल रहे थे। इसके लिए न्यूनतम योग्यता मैट्रिक थी और रोजगार कार्यालय में जीवित पंजीयन आवश्यक था।
अंकसूची मिलने के बाद उसकी दस-बारह फ़ोटो कापी निकलवा कर कोनी बिलासपुर में फिटर आईआईटी और बेमेतरा में बी.काम. के लिए फार्म भरने और दोनों जगह प्रवेश मिल जाने के बाद ऊहापोह में मैं, बी.काम. में प्रवेश ले चुका था।
दीपावली की लम्बी छुट्टी के बाद गांव में ही लल्लू दाऊ ने दुर्ग जाकर रोजगार कार्यालय में पंजीयन करा लेने का प्लान बनाया। हम सरकारी रूप से बेरोजगार दर्ज होने के लिये सुबह घी में बोरकर अंगाकर पताल धनिया मिर्च धड़के और सायकल से दुर्ग के लिए निकल पड़े। हमारा गांव शिवनाथ नदी के किनारे पर बसा हुआ है। 
हमारे गांव से लगभग दो किलोमीटर दक्षिण पूर्व में खारुन और शिवनाथ का संगम है। शिवनाथ यहां दक्षिण पश्चिम से बहती हुई आती है, जिसके तट पर किरितपुर नाम का गांव है। खेत के मेढ़ों से होकर जाने से किरितपुर भी हमारे गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर है। धान के कट जाने के बाद खेतों के बीच मेढ़ काटकर बनाये गए गाड़ा रावन से सायकल उचकते हुए निकलती है। सुविधाजनक पहुँच मार्ग नही होने के बावजूद इन दोनों गांवो के बीच यही सुगम मार्ग है। इससे होते हुए हमने शिवनाथ पार में पहुचे। नदी में पानी घुटनें भर रही होगी, हमने सायकल रोककर लफ़र्रा बेलबॉटम को मोड़कर जांघ तक चढ़ाया। जैसे ही हमने सायकल के स्टैंड को हटाया, कूँ-कूँ की आवाज पर हमने पीछे देखा। हमारे गांव का बंडू कुकूर पूछ हिलाते खड़ा था।
हँसी के साथ हमने उसे गाली दिया- 'तैं कहाँ इँहा घुमरत हस साले।'
वह पूँछ हिलाते हुए सायकल के चक्के पर लोटने लगा।
लल्लू ने फिर गाली दिया- 'भाग भोसडी के, हमर पीछू कहाँ आबे।'
वह गुर्राने लगा। हम उसे नजरअंदाज कर पानी मे उतर गए, बेडौल बिच्छल पत्थरो और तेज बहाव में कभी सायकल तो कभी जाँघ तक चढ़े पैंट को बचाते हमने नदी पार कर लिया। पानी के बाद उस पार के ऊंचे करार तक रेत फैली हुई थी। रेत में सायकल को ठेलते हुए आगे ले जाना मेहनत का काम है, करार तक पहुँचते-पहुँचते अंगाकर रोटी पच गया। ऊँचे करार पर सायकल चढ़ाने के पहले हम शक्ति संचय के लिए वहां रुक गए। पीछे मुड़ कर देखा कितना सफर तय हुआ। बंडू कुकूर पानी-पत्थर-बूटा कूदता हुआ फिर हमारी ओर दौड़ता हुआ आ रहा है।
लल्लू ने फिर गाली देते हुए कहा- 'ये हमन ल पदोही तइसे लागथे दाऊ।' 
अब उसने गोंटा उठाकर उसकी ओर उछाल दिया- 'भाग साले।' 
गोंटा से बचते हुए वह कूँईं करता फिर हमारे पास। हमने उसे खूब गाली दिया, समझाया भी कि हम दुर्ग जा रहे हैं, डेढ़ सौ किलोमीटर दूर। उसने सुना, पर वह ठान के बैठा था, चलेगा हमारे साथ।
सरदा आ गया, कबीरपंथी चौका आरती की आवाज लाऊड स्पीकर में गूंजने लगी। बस्ती में हम जैसे ही घुसे भौ-भौं करते कुत्तों का दल हमारी ओर दौड़ने लगा। हमे ब्रेक लगाना पड़ा, बंडू कुकूर हम दोनों के सायकल के बीच पूछ दुबकाये बैठ गया। लल्लू ने फिर गाली दिया- 'मर भोसडी के, हमू मन ल मारबे।'
हमारे हात हूत से गांव के कुत्ते दूर में ही गुर्राते रुक गए पर भागे नहीं। सरदा से हमे डामर वाली सड़क मिल गई थी। उन दिनों ट्रफिक कम थी, हम दोनों के सायकल के बीच मे वह सुरक्षित आगे दौड़ने लगा। शाम तक हम कुसमी पहुँच गए, साथ मे बंडू भी था।
पूरे रास्ते मे घेरी-बेरी रुक-रुक कर बंडू कुकूर को वापस गांव खेदारते रहने के कारण हम देर से कुसमी पहुँचे। सामान्य अवस्था मे हम अब तक दुर्ग पहुँच गए होते। शाम को अनजान शहर में जाने के बजाय लल्लू दाऊ ने सुझाव दिया कि रात कुसमी में ही रुका जाय और दूसरे दिन सुबह से दुर्ग के लिए निकला जाय।
उन दिनों हमारे चाचा का बेटा राजू, कुसमी में अपने नाना के घर मे रह कर कर पढ़ाई कर रहा था। कुसमी में हमारा आना जाना लगा रहता था और हम वहां कुछ दिन बिलमते भी थे।
मैंने भी सोचा कि इसी बहाने इस बंडू कुकूर से पीछा छूटेगा। सुबह इसे चकमा देकर दुर्ग के लिए निकल लेंगें। वापसी में इसे लेते हुये गांव आ जाएंगे।
रात कुसमी में रुके, सुबह उठ कर तरिया में नहाने गए, बंडू भी गया। मैने लल्लू से कहा- 'येला कइसे चूतिया बनाबों दाऊ, ये साले हमर पीछा नई छोड़य।' 
बंडू मुझे बोटबोट से निहार रहा था जैसे उसने मेरी बात सुनी ही नहीं।
कटकटात जाड़ में दु डुबकी मार के घर पहुँचे, घर मे थोड़ा बहुत बिलमें ताकि बंडू भुला जाए। जब वह सुनहरी घाम में घर से लगे कोठार में फैले धान के पैर में मस्तियाने लगा। हम सायकल उठाये और दुर्ग की ओर भागे।
बेरला के पहले किटप्लाई वाले परसरामपुरिया के फार्म के पास पहुँचे ही थे कि बंडू हँफरते, जीभ निकाले पहुँच गया।
'जौहर होंगे रे।'
लल्लू ने चिल्लाया।
अब वह साथ छोड़ेगा नही और उसे झेलना पड़ेगा। नए शहर में जाने की उत्सुकता, मोटर, गाड़ी, ट्रेन, सेक्टर, फैक्ट्री, मैत्री बाग, रंग-रंग के टुरी की बातें सब सटक गया था। दिल दिमाग मे बंडू कुकूर था, इसे कैसे बचाएंगे, कहाँ कैसे रखेंगे।
वह हमारी चिंता से बेखबर हमारे पीछे दौड़ता रहा, कभी कभी रोड के चढ़ाव में वह हमसे आगे बढ़ जाता और हमारे आते तक सड़क में पसर जाता, हमे देखता, यूँ कह रहा हो अड़बड़ धिरन्त हव जी तुमन।
रास्ता पूछते-पूछते अहिवारा, जामुल, भिलाई से दुर्ग पहुँचते तक हमने रोजगार पंजीयन के संबंध में दो-चार बार ही बातें की बाकी बंडू कुकूर दिल दिमाग मे छाया रहा।
स्टेडियम में सुबह सात बजे से लाइन लगी है हम यहां नौ बजे पहुँचे हैं, साढ़े दस बजे काउंटर खुलेगा जहाँ फार्म मिलेगा। उसे भरकर अंकसूची के फोटोकॉपी के साथ दूसरे काउंटर में जमा करना है। ढाई बजे दूसरा काउंटर खुलेगा। शाम पांच बजे कार्ड बनकर मिलने लगेगा। यदि सब काम फटा फट हुआ तो पहट बेरा तक हम लहुट जाएंगे। रात में सर-सर सर-सर सायकल चलाते दस-ग्यारा बजे तक गांव।
'शहर में सायकल को बने चेत करके रखना बेटा।'
निकलते वक्त मां ने कहा था। कहाँ रखें, यहाँ तो सायकलों की भीड़ है। स्टेडियम के गेट के सामने सायकलों के बीच मे हमने अपनी सायकलों को घुसाया, ताला लगाया, हैंडल में टंगे झोले को निकाल कर लाइन में लग गए। बंडू कुकूर को शायद पता था, हम देर से लौटेंगे और सायकल के बिना कहीं नही जाएंगे, सो वह वहीँ पसर गया। तुमन आवव जी मैं इही जघा अगोरत हँव।
हम लाइन पे लाईन लगते गए शाम साढ़े पांच बज गए, बाबू ने एलान किया कि बचें हुए लोगों का रोजगार कार्ड कल मिलेगा।
'हम अड़बड़ दुरिहा ले आये हवन सर, पिलीज हमर कारड ल दे दव!' 
रुवांसी होकर मैन कहा था।
'क्या नाम है?'
'संजीव तिवारी'
'त्रिविध नारायण दुबे'
हमने संयुक्त रूप से कहा।
थोड़ी देर वह फाइलों-कागजों को तमडता रहा फिर कहा- 'नहीं, कल ही मिलेगा।'
सूरज ढल चुका था, पीले रौशनी वाले बल्ब जल गए थे। हमने एक दूसरे के ओथराये मुह को देखा और झोला कंधे में लटकाए भीड़ से बाहर निकलने का उदीम करने लगे। हमारे जैसे बहुत सारे लोग थे जिनको कार्ड मिल नहीं पाया था।
'अब कइसे करबो दाऊ'
लल्लू ने पूछा, मेरे पास कोई जवाब नहीं था। दो बच्चों ने कहा कि चलो रेलवे टेंसन वहीँ रात में रुकेंगे, यहां से पास में ही है।
हम सायकल के पास आए, वहां अंधेरे में ईक्का-दुक्का सायकलें ही बची थीं, बंडू हमारे पहुँचते ही कूँ-कूँ करते हुए मस्तियाने लगा। लल्लू ने एक भरपूर लात उसे मारी।
'भोसड़ा के तोरे कारन फदग गेन।'
कायँ-कायँ चिल्लाते हुए वह कातर निगाहों से हमे देखने लगा। उसके पूछ लगातार हिल रहे थे।
हम रेलवे स्टेशन के सायकल स्टैण्ड में घुसे ही थे कि शहरी मुस्टंड कुत्तों के झुंड नें बंडू को घेर लिया। हम सायकल से उतरे उन्हें भगाने की कोशिश भी किया, पर वे उसे नहीं छोड़े। उस ग्रुप के मजबूत कुत्ते ने सिर हिला हिला कर बंडू को काटा। एकाध मिनट के बाद वह उनके चुंगुल से बचकर हमारी ओर भागा, उसके जख्मो से खून बहने लगे थे।
कुत्तों ने बंडू को कई जगह से काटा था, वह लड़खड़ा रहा था, अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था। लल्लू के निग़ाहों में भी करुणा और पीड़ा तैर गई। गांव में होते तो दु हत्था लठ्ठ लेकर उन कुत्तों को कुदा-कुदा कर मारते, यहां सायकल के हैंडल के मूठ को मुट्ठियों में जोरदार दबाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था।
रात घिर आई थी और हमे रेलवे स्टेशन में रुकने का इंतजाम देखना था, हम जानते नहीं थे कि स्टेशन में कहां रुक कर सोया जा सकता है। बंडू को इस हालत में छोड़ा नहीं जा सकता था, मैं खामोशी से उसे अपने चोटों को जीभ से चाटते देख रहा था।
'चल छोड़ दाऊ, अब येला एकर किस्मत म छोड़।'
लल्लू ने कहा था, लल्लू मेरा भतीजा था किंतु मेरे से उम्र में बड़ा था। मुझमे अपनी उम्र के हिसाब से आवश्यक परिपक्वता नहीं थी, मेरी सुई बंडू पर ही अटकी हुई थी।
हम कहाँ अपनी सायकल रखे, कहाँ, कैसे सोये, मुझे कुछ पता नहीं। प्लेटफार्म पर बेमेतरा, बेरला, नवागढ़ के बहुत सारे लड़के थे जिनका रोजगार पंजीयन हो नहीं पाया था। सब अपनी-अपनी जगह पोगरा कर पंछा जठा कर लेटे थे। 50-60 किलोमीटर सायकल ओटने के कारण हम पर थकावट हावी हो रही थी। लल्लू मुझे प्लेटफार्म पर बिठा कर होटल से चार समोसा लाया, हम खाये, प्लेटफार्म के नल से ससन भर पानी पिया। आंखों में बंडू लिए सो गए, ट्रेन जब गुजरती तब बंडू फिर दिमाग मे आता पर थकावट नींद को पोटारे रहती।
सुबह बंडू कहीं नजर नहीं आया।
'छोड़ दाऊ, चल जल्दी दतवन कर।'
लल्लू मुझे स्टेशन के सामने घूमते देखकर कहा, उसके हाथ मे बंबूल के दो दातून थे जिसे वह गाँव से ही अपने झोले में ले आया था।
हम फिर स्टेडियम पहुँचे, बेरोजगारों के भीड़ में उबुक चुबुक होते, आखिर लगभग बारा बजे हमें नीले रंग का पोस्टकार्ड साइज रोजगार पंजीयन कार्ड मिल गया।
लल्लू ने कहा कि अभी समय है मैत्री गार्डन घूम लेते हैं। मैं बिना प्रतिरोध उसके साथ मैत्री गार्डन की ओर बढ़ गया। पूछते-पूछ्ते हम वहाँ पहुचे। लल्लू धारी दार बाघ और बब्बर शेर सहित सभी जानवर को उत्सुकता से और देर तक रुक कर देखता था। मुझे असकट लग जाता, मुझे सब जानवर बंडू जैसे लगते।
'चल दाऊ अड़बड़ भूख लागत हे, गाँव जाए बर तको मंझन होही।'
मेरे उकताहट को समझते हुए लल्लू अब जल्दी जल्दी जानवरों पर नजर मारते बाहर निकल आया। बाहर ठेले में दो प्लेट चना चरपटी दहेल के जो पैडिल पे पांव धरे कि दिया बत्ती तक अपने गाँव।
समय के साथ साथ बंडू वाला वाकया मैं भूल गया। बेमेतरा से 1986 में बी.कॉम. किया और साइंस कॉलेज व सुराना कालेज दुर्ग से 1988 में एम.कॉम.। इस बीच दोस्त बताते कि पांच हजार खर्च करने पर रोजगार कार्यालय से बीएसपी के लिए काल लेटर निकल जाता है फिर नौकरी पक्की। पांच हजार इहि जघा हे जी, चलो सकेलता हूँ। 
इस सकेलने के जद्दोजहद में रोजगार पंजीयन कार्ड धूमलहा हो गया, कई कई बार फ़ोटो कापी कराने, धरने निकालने में फट भी गया पर रोजगार नहीं मिला। 
पिछले अठ्ठाइस सालों से मैं दुर्ग में रहता हूँ,  आज सोचता हूँ कि बंडू मेरे साथ गाँव से यहाँ क्यूँ चला आया था? जबकि गाँव मे वह मेरे साथ इतना घुला-मिला भी नहीं था। वह स्कूल जाते समय सिमगा के पुल तक हमारे साथ भी नही जाता था। यदि वह जाता तो झोले से रोटी निकाल कर खाते हुए हम कुछ टुकड़े उसकी ओर उछाले भी रहते जिसके नमक के चलते वह हमारे साथ चलता। गाँव की थोड़ी बहुत जान पहचान बस।
शायद वह तैंतीस साल पहले बता देना चाहता था कि यहीं लड़ना है तुम्हे, बेरोजगारी से, भूख से, ताकि शहरी लोगों का झुंड तुम्हे हटक न सके।
सलाम बंडू, कुकूर!!
-संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. इसे तो चोरी करना पड़ेगा. :)
    पर, नाम, आभार लिंक के साथ.
    बहुत ही मार्मिक संस्मरण.

    जवाब देंहटाएं
  2. इसे यहाँ भी साझा किया है - http://www.rachanakar.org/2017/11/blog-post_42.html

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  3. बहुत खूब रही
    आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

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