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जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

अमेरिकी विली बाबा की लास्ट विल-मुझे छत्तीसगढ़ में ही दफनाना

विश्रामपुर में दशकों रहकर 1967 में अमेरिका लौटे थे विलियम विटकम, यहीं दफन करने की अंतिम इच्छा, बेटी तथा परिजन लाए अंतिम अवशेष दैनिक भास्‍कर के लिए रिपोर्टिंग : परिष्‍ठ पत्रकार जॉन राजेश पॉल रायपुर, विलियम कैथ विटकम (विली बाबा) ...जन्म 1924 (अमेरिका)... बचपन में ही परिवार के साथ रायपुर से 65 किमी दूर विश्रामपुर आ गए। विटकम चार दशक यहां रहने के बाद 1968 में वापस यूएस लौटे, लेकिन भारत जेहन में ही रहा। बीमार हुए तो अंतिम इच्छा जाहिर की कि विश्रामपुर में ही दफ्न किया जाए। परिजनों ने ऐसा ही किया। विली बाबा की अस्थियां और भस्म अब भारत माता की गोद में हैं। छत्तीसगढ़ के विश्रामपुर में विटकम और उनका परिवार लंबे अरसे तक रहा। इस कस्बे के पुराने लोग अब भी विली बाबा को भूल नहीं पाए हैं। यही वजह थी कि विटकम की अंतिम यात्रा भी यहां ऐतिहासिक हो गई। अमेरिका में जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो परिजनों ने इच्छा के अनुरूप छत्तीसगढ़ में दफ्न करने की सरकारी प्रक्रिया शुरू कर दी। छत्तीसगढ़ डायसिस ने यहां का जिम्मा संभाला। विटकम की बेटी कैथ, दामाद और डेढ़ दर्जन रिश्तेदार खूबसूरत काफिन में उनकी अस्थियां व भ

एक बाल कवि की जबरदस्‍त मुक्‍तक प्रस्‍तुति : वीडियो देखें

छत्‍तीसगढ़ के बलौदाबाजार के मयंक वर्मा के मुक्‍तक का आनंद लेवें, मेरा दावा है आपको भी पसंद आयेगा. Mayank verma ,balodabazar

लघु कथा : जूता निकालो

सुबह की दिनचर्या में दादाजी अपने लाडले छोटे पोते को रोज घर के नजदीक स्कूल पैदल छोडने जाया करते। स्कूल से लौटने के बाद दादाजी अखबार पढते, चाय पीते फिर घर में मरम्मत करवाए जा रहे, कमरों, दालानों को घूम-घूमकर मुयायना करते थे। एक दिन स्कूल जाते समय पोते ने अचानक जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। उसके रोने के घरवाले भी बाहर निकल आये। बच्चो रोते-रोते अपनी पैर की ओर इशारा करके बता रहा था। घरवालों ने सोचा कि पैर में शायद दर्द हो रहा होगा। तुरंत बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाया गया। डॉक्टर ने देख-परखा और दर्द के लिए इंजेक्शन और पेन किलर दवा दिया। फिर भी दर्द कम नहीं हुआ। तब कुछ देर बाद डॉक्टर ने बच्चे के पैर से जूता जब निकाला तो जूते के अंदर एक कंकड पाया गया, जिसके कारण बच्चे की उंगलियों में चुभन हो रही थी। पैर से जूता निकालने के बाद ही दर्द कम हुआ और बच्चे ने रोना बंद किया। दादाजी अपनी मित्र मंडली के संग शाम को अपने घर में पोते के बारे में चर्चा करने के बाद टी.व्ही. पर एक आतंकवादी घटना से संबंधित समाचार देख रहे थे। समाचार के अंत में दादाजी बोल पडे कि- ' आतंकवाद भी इसी तरह

छत्‍तीसगढ़ी शब्दकोशों की दशा

सामान्यत: कोश किसी न किसी रूप में भण्डार, ढेर या खजाने को सूचित करने वाला शब्द है। संस्कृत हिन्दी शब्दकोश में 'शब्दकोश' को शब्दार्थ संग्रह कहा गया है, तो अशोक मानक हिन्दी-हिन्दी शब्दकोशकार ने अंग्रेजी के 'डिक्शनरी' के पर्याय के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'वह ग्रंथ जिसमें किसी विशेष क्रम से शब्द और उनके अलग-अलग अर्थ का पर्याय हो।' कुछ इसी तरह की मिलती-जुलती बात भार्गव आदर्श हिन्दी शब्दकोश में भी कही गई है। देखिए- अकारादि क्रम में लिखी हुई पुस्तक जिसमें शब्दों के अर्थ दिए हों। बोली के शब्दकोश के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए रामहृदय तिवारी कहते हैं कि 'लगभग तीन हजार भाषाओं वाले इस सभ्य संसार में अनगिनत बोलियां हैं। इन बोलियों के अलग-अलग रंग हैं पर गंध सबकी एक है- माटी की गंध। माटी चाहे किसी भी देश या अंचल की हो, उनकी आत्मा में एक ही तडप होती है-फूल बन कर खिलने की, हरियाली बनकर लहलहाने की। सारी सीमाओं के पार माटी की यह मासूम तडप, बोलियों की शक्ति है और माधुर्य भी, जिन्हें अर्थ के आयाम देते हैं शब्द| शब्द ज्ञान जगत की अद्भुत उपलब्धि है। ऐसी प्

जनजातियों को मुख्यधारा में नहीं उन्हें मुख्यधारा मानकर हो विकासः प्रो. शुक्ल

राजिम दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन संगोष्ठी में 200 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत, विदेश से भी आया शोध पत्र रायपुर-  राजिम के राजीव लोचन शासकीय महाविद्यालय में लोक साहित्य में जनजातीय संस्कृति व परंपरा पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन 7 जनवरी को हो गया। समापन मौके पर बतौर मुख्य अतिथि सासंद चंदूलाल साहू, अध्यक्षता छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष विनय कुमार पाठक, विशिष्ठ अतिथि प्राचार्या डॉ. आभा तिवारी और मुख्य वक्ता प्रोफेसर वीरेन्द्र मोहन शुक्ल रहें।  समापन मौके पर सांसद चंदूलाल साहू ने कहा कि राजिम संस्कृति संगम की नगरी है। छत्तीसगढ़ के भीतर संस्कृति और परंपरा की आदिम इतिहास है। प्रदेश की जनजातियों के विकास के लिए सरकार बेहतर काम कर रही है। ये सच है कि उनके संस्कृति और परंपरा को बचाने निरंतर शोध होते रहना चाहिए साथ विकास के नाम पर उनकी संस्कृतियों को हनन ना हो यह भी देखना जरूरी है। वहीं अध्यक्षता कर रहे डॉ. विनय कुमार पाठक ने कहा कि लोक साहित्य में छत्तीसगढ़ का कोई तोड़ नहीं है। यहां कि वाचन परंपरा बहुत ही प्राचीन है। जनजातियों की संस्कृति और परंपरा में साह

छत्तीसगढ़ी उपन्यासों की सूची

1. हीरू के कहिनी 1926 पाण्डेय बंशीधर शर्मा 2. दियना के अंजोर 1964 शिवशंकर शुक्ल 3. मोंगरा 1964 शिवशंकर शुक्ल 4. चंदा अमरित बरसाइस 1965 लखन लाल गुप्त 5. फुटहा करम 1971 ठाकुर हृदय सिंह चौहान 6. कुल के मरजाद 1980 केयूर भूषण 7. छेरछेरा 1983 पं. कृष्ण कुमार शर्मा 8. उढरिया 1999 डॉ. जे.आर. सोनी 9. कहाँ बिलागे मोर धान के कटोरा 2000 केयूर भूषण 10. दिन बहुरिस 2001 अशोक सिंह ठाकुर 11. आवा 2002 डॉ. परदेशी राम वर्मा 12. लोक लाज 2002 केयूर भूषण 13. कका के घर 2003 रामनाथ साहू 14. चन्द्रकला 2005 डॉ. जे.आर.सोनी 15. भाग जबर करनी मा दिखाये 2005 संतोष कुमार चौबे 16. माटी के मितान 2006 सरला शर्मा 17. बनके चंदैनी 2007 सुधा वर्मा 18. भुइयॉं 2009 रामनाथ साहू 19. समे के बलिहारी 2009 से 2012 केयूर भूषण 20. मोर गाँव 2010 जनार्दन पाण्डेय 21. रजनीगंधा 2010 डॉ. बलदाऊ प्रसाद पाण्डेय पावन 22. विक्रम कोट के तिलिस्म 2010 डॉ. बलदाऊ प्रसाद पाण्डेय पावन 23. तुंहर जाए ले गियाँ 2012 कामेश्वर पाण्डेय 24. जुराव 2014 कामेश्वर पाण्डेय 25. करौंदा 2015 परमानंद वर्मा राम 26. पुरखा के भुइयॉं 201

शुभदा मिश्र कहानी : दृष्टि दोष

घर के सामने हाते में बैठी थी वह। ठण्ड की दुपहरी। हल्की गुनगुनी धूप। महकती बगिया का छोटा सा आहाता। चारों ओर बेल और गुलाब की खिलती कलियां। सबसे सामने गुलदाउदी के श्वेत फूल। फाटक पर बसंत मालती की छिटकी बेल। उसकी मेहनत के फूल हैं ये। बहुत मेहनत करती है वह अपने नन्हे से बगीचे में। वैसे बगल का हाता भी सुन्दर है। वहां श्रीमती बोस बैठी हुई हैै, कुछेक महिलाओं के साथ। धूप सेंकतीं, स्वेटर बुनतीं, सब बड़ी मीठी, सब बड़ी व्यवहार कुशल। मगर सब की सब एक से बढ़कर एक शातिर। घाघ। भुगत चुकी है इन सबको। इसी से अकेले ही बैठती हैं वह अपने हाते में। पढ़ती है या स्वेटर बुनती है। डरती भी हैं, कहीं कोई पड़ोसिन न आकर बैठ जाए। उसके घर से लगे घर से लगातार आवाजें आ रही है- जनानी और मर्दानी। कभी फुसफुसाहट, कभी दबे-दबे कहकहे। कभी कुछ उठा-पटक सी। कभी रोमांचित से करते ठहाके। लगता है, आज दिनेशजी ऑफिस नहीं गए हैं। घर में ही हनीमून मना रहे हैं। बेटियां गई हैं पिकनिक मनाने। नौकर गया है अपने गांव। भरपूर एकांत है। सचमुच किस्मत भी कोई चीज होती है, वर्ना दिनेशजी ऐसी मोटी भैंस जैसी पत्नी पर इस कदर दीवाने होते। स्वयं क

जनकृति अंतर्राष्‍ट्रीय पत्रिका के लोकभाषा विशेषांक में छत्‍तीसगढ़ी

आप सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ी की उत्पत्ति अधर्मागधी - प्राकृत - अपभ्रंशों से हुई है। अर्ध मागधी के अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से इसका विकास हुआ है। यह पूर्वी हिन्दी का एक रूप है जिस पर अवधी का बहुत अधिक प्रभाव है। अवधी के प्रभाव के कारण ही छत्ती्सगढ़ी भाषा के साहित्य का भी उत्तरोत्तेर विकास हुआ है। छत्तीसगढ़ी भाषा का व्याकरण सन् 1885 में हीरालाल काव्यो पाध्याय के द्वारा लिखा गया था जो हिन्दी के व्याकरण के पहले सन् 1890 में अंग्रेजी के व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन के अनुवाद के साथ छत्तीसगढ़ी-अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुआ था। जो छत्तीसगढ़ी भाषा की भाषाई परिपूर्णता को स्वमेव सिद्ध करती है। भाषा का सौंदर्य और उसकी सृजनात्मकता उसके वाचिक स्वरूप और विलक्षण मौखिक अभिव्यक्तियों में निहित है। छत्तीतसगढ़ी का वाचिक लोक साहित्य सदियों से लोक गाथाओं और गीतों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो रही है। लिखित-मुद्रित अभिव्यक्तियों और औपचारिक साहित्य में यही वाचिक साहित्य़ क्रमश: रूपांतरित भी हुई है और रचनाकारों नें अपनी अनुभूति को समय व परिस्थितियों के अनुसार अभिव्ययक्त किया है। यहॉं का लिखित