विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
1 ‘जी कुल अडतीस लोग हैं’ , थर्टी एट औरत मर्द मिलाकर, बाकी चार पांच स्टाफ के लोग हैं खिदमतगार ... स्कूल की घंटी की तरह थाली पर चम्मच बजने की आवाज़ आने लगी | दोपहर के अढाई बज रहे थे | खाना खाकर शायद कुछ लोग अपने अपने वार्ड में आराम कर रहे थे, बाहर दो चार लोग धुप सेंक रहे थे | घंटी की आवाज़ से धीरे धीरे कदम रखते निर्विकार और पथराये चेहरे हाल में एकत्र होने लगे | कुछ औरतें और मर्द नीचे दरी पर बैठ गए | जो घुटनों और कमर दर्द के कारन नीचे नहीं बैठ पाए वो वहीँ रखी प्लास्टिक की कुर्सियों पर यंत्रवत बैठ गए | किसी के भी चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं थी | उन सब के लिए यह सब कोई नइ बात भी नहीं थी | प्रायः समाज सेवी कहलाने वाली संस्थाएं आये दिन यह सारे दिखावे के कार्यक्रम करती ही रहती थी | बुरा मत मानियेगा यह सब एक दिखावा ही तो है | कोई उनकी कहानी, उनकी आपबीती दुःख-दर्द , उनकी जरूरतें नहीं पूछता , बस कम्बल कपडे , खाने पीने का सामान देते हुए उनके साथ खड़े होकर सभी फोटो अवश्य खिंचवाते हैं ताकि पेपरों में छपवाकर वाह वाही लुट सकें | हमारे क्लब की भी महिलाऐं दो बुलेरो गाड़ियों में भरकर वहाँ कुछ सा