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नवंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भीम सम विधान

हमारा संविधान सचमुच में भीम है, इसलिए नहीं कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर उसके निर्माता हैं। बल्कि अपनी सम्पूर्णता में वह भीम है। हमारा संविधान विश्व का सर्वश्रेष्ठ भारतीय नागरिक संहिता है। भीम शब्द को इसके साथ युग्म करना सार्थक है क्योंकि संविधान को अम्बेडकर से और अम्बेडकर को संविधान से पृथक नहीं किया जा सकता। हमारे देश के चौक-चौराहों में लगी प्रतिमाओं में भी संविधान भीम के साथ उपस्तिथ है जिसे अम्बेडकर ने पोटार कर रखा है, बच्चे की तरह। दुनिया में संभवत: भारत ही ऐसा देश है जहां चौराहों में संविधान मूर्ति के रूप में उपस्थित है। स्थूल मूर्तियां प्रतीक रूप में जीवन को सक्रिय करती हैं शायद इसलिए मूर्तियों को चौक चौराहों में लगाने की भारतीय परंपरा रही है। यह अलग बात है कि इन मूर्तियों में पक्षी बीट करते हैं और उसकी रखरखाव तरीके से नहीं हो पाती है। किन्तु भारत में अन्य लोगों के बरस्क अंबेडकर की प्रतिमा का देखरेख बहुत अच्छे ढंग से होता है जो यह सिद्ध करता है कि भारत में उनकी जबरदस्त साख है। होना ही चाहिए, उन्होंने दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान जो हमें रच के दिया है जिस पर हमें गर्व है। इसीलिए इ

जो छली है वही बली है

सभा-गोष्टियों में बचपन से सुनते आ रहा हूं कि छत्तीसगढ़िया सदियों-सदियों से छले गए, हमें फलाने ने छला, हमें ढेकाने ने छला, ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ। इसे सुनते-सुनते अब ऐसी मनःस्थिति बन चुकी है कि छत्तीसगढ़िया छलाने के लिए ही पैदा हुए हैं। नपुंसकीय इतिहास से सरलग हम पसरा बगराये बैठे हैं कि आवो हमें छलो। हम सीधे हैं, सरल हैं, हम निष्कपट हैं, हम निच्छल हैं। ये सभी आलंकारिक उपमाएं छल शास्त्र के मोहन मंत्र हैं। हम इसी में मोहा जाते हैं और फिर हम पर वशीकरण का प्रयोग होता हैं। बिना रीढ़ के हम जब पूरी तरह से उनके वश में हो जाते हैं तब हमें चाउर चबा के पूज दिया जाता है। मरे हुए हम, उच्चाटन का इंतजार करते रहते हैं किंतु हमारे लिए कोई भी उच्चाटन मंत्र का जाप करने नहीं आता क्योंकि इस छल शास्त्र में उच्चाटन मंत्र का अध्याय ही नहीं है। हमें छलने वालों की संख्या हमसे कम है किंतु वे भुलवारने में निपुण है। उनके पास कपट के दिव्याश्त्र हैं जिससे वे हमारी एका विदीर्ण करते हैं। वे हम पर राज करते है, क्योंकि फूट हमारी पहचान है और एका उनकी शान। ऐसे में कोई एक यदि क्रांति का छत्तीसगढ़िया बाना उचाता भी ह

चेथ्थुल : ललियाये चेथी को सहलाते हुए

चेथ्थुल ठेठ देसी खेल है, इस पर हमारा कॉपीराइट भी है। यह अलग बात है कि इस में निपुण परदेसिया लोग ही हैं। कमोबेश पृथ्वी के हर हिस्से में यह खेल अपने आदिम स्वरुप में विद्यमान है। मुझे यह खेल बचपन में बहुत पसंद था, शायद इसलिए कि इस खेल के लिए सहमति आपको जोखिम के प्रति सचेत करती है। पिछले दिनों अनुपम ने इसे याद दिलाया था, अनुपम का चेथ्थुल अनुपम था सो उसके ही बात को लमाया जाय। अनुपम के यहां हांथो की छोटी ऊँगली को जोड़कर चेथ्थुल खेला जाता था। जैसे ही पहले के छीनी उंगली का संबंध दूसरे के छीनी अंगुली से अलग होता, एक झन्नाटेदार रहपट चेथी पर पड़ता। मेरे यहां चेथ्थुल जोरदार घोष के साथ आरंभ होता और जो चेथ्थुल कहने के बाद भी अपने सिर के पीछे हाथ नहीं रखता, उसके चेथी पर अनचेतहा थप्पड़ पड़ता। यह खेल जहाँ चाहे जिस प्रकार से खेला जाता हो यह सिर के पिछले हिस्से में झन्नाटेदार थप्पड़ मारने का खेल है। चेथ्थुल नंदाने वाला खेल नहीं है, इसका स्वरुप भर बदला है। आज भी लोग चारो तरफ चेथ्थुल खेल रहे हैं। राजनीति में ही ले लीजिये, पिछले दिनों भूपेश ने अमित के साथ तो अजीत ने भूपेश के साथ चेथ्थुल खेला जि

पनही के बहाने

पनही पर भक्ति काल के कवियों ने बहुत कुछ लिखा है। उस समय के सभी दास कवियों ने पनही संस्कृति को अपने-अपने मंजुल मति अनुसार समृद्ध किया है। तत्कालीन ब्रांड एम्बेसडर संत रविदास तो इसकी जियो ब्रांडिंग करते हुए, कई बार संतों को तथा जनसाधारण को बिना कीमत लिये ही पनही भेंट कर दिया करते थे। यदि इन कवियों ने पनही पर उस समय अपना ध्यान केंद्रित नहीं किया होता तो उपेक्षित सा पनही घेरी-बेरी आज के सन्दर्भों में उफला नहीं पाता। बेकाम संत मोको कहाँ सीकरी सो काम  लिखते हुए भी उस समय की राजधानी सीकरी गए। हमें बताया कि रियाया की शोभा गोड़ से ही होती है मूड़ तो शहनशाहों का ही होता है। पनही को मूड़ पर मुकुट जइसे मढ़ाया नहीं जा सकता, उसकी फितरत खियाने  की ही होती है। गांव में  पनही पहिरि चमाचम ग्वाला खांधा मा डारे नोय  घूमता था। कोई कहता कि छाड़ि दे ग्वाला बजनी पनहिया छाड़ि खांधा के नोय  तो वह झट मना कर देता। इस बजनी पनही  के दम पर सात बिआही नौ उढ़री सोरह सखी कुंवारि  उस पर मोहित है। मने आप समझ सकते हैं इसकी महिमा। हमारे जीवन में भी इस पनही का बहुत महत्व रहा है, घर में नौकर एक-एक जोड़ी भंदई-पनही

कैशलेश छत्तीसगढ़

कैशलेश (नोटबंदी, विमुद्रीकरण) मौद्रिक योजना की बात जो आप अभी कर रहे हैं, यह तो छत्‍तीसगढ़ की परंपरा ही रही है। हमारे प्रदेश में आरंभ से ही कैशलेश अर्थव्यवस्था विद्यमान है। हम वस्‍तु के बदले वस्‍तु प्राप्‍त करने के अभ्‍यासी हैं। हम जीवन की आवश्यकता की अन्य चीजें क्रय नहीं करते थे बल्कि उसे अन्‍न के बदले प्राप्‍त करते थे। हमारे प्रदेश में वस्तु के बदले वस्तु के विनिमय की अर्थव्यवस्था धान के भरपूर पैदावार के कारण थी। हम धान के कटोरा कहे जाने वाले प्रदेश के वासी हैं और हमारे लिए धान मुद्रा का विकल्‍प रहा हैं। हमारे यहां नौकर, पहटिया, नाई, पौनी-पसारी भी धान के काठा-खंडी के वार्षिक मेहनताना पर लगाये जाते रहे हैं। यहां तक कि एक जमानें में, शिक्षा देनें वाले गुरूजी भी बच्‍चों के सिर के हिसाब से गुरू दक्षिणा धान के रूप में लेते थे। सेवा देनें वाले और लेने वाले बिना किसी का हरताल किये, इस मौद्रिक व्‍यवस्‍था से पूर्ण संतुष्‍ट रहते थे। ये सब होता इसलिए था कि हमें बचपन से ही सिखाया जाता कि पैली भर धान के बदले केंवटिन काकी दो पईली मुर्रा देगी। हम सीला इसलिए बिनते कि उसके बदले में चना-मुर्रा-लाई

सेकंड मैन : कहानी की कहानी

तापस चतुर्वेदी हिन्दी कथा की दुनिया में एक नया नाम है जिनकी छः कहानियों का एक संग्रह 'सेकेंड मेन' अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 'ज्यादा हरा मुल्क', 'नट', 'नदी के किनारे', 'दादी का घर', 'एक शरीफ विधुर के सपने' और 'सरासम' शीर्षक से कहानियाँ संग्रहित है। लेखक तापस चतुर्वेदी पेशे से पत्रकार हैं एवं स्क्रिप्ट राइटर हैं। इस संग्रह के प्रकाशक डबल लिटरेचर ने तापस के लिए लिखा है कि 'वह लेखन तकनीक में गति और ठहराव पर प्रयोग कर रहे हैं।' इस लिहाज से इस संग्रह की कहानियों में तापस के प्रयोग से रूबरू होने, हमने इन कहानियों को पढ़ा और एक पाठक के नजरिये से जो महसूस हुआ उसे आप सबसे शेयर कर रहे हैं। लेखक ने संग्रह की कहानियों को आधुनिक कथा लेखन शैली से लिखा है, कहानी के पारंपरिक ढांचे से इतर ये कहानियां आख्यानिक ढंग से लिखी गई है। लेखक के पत्रकार होने के कारण उसकी स्वाभाविक लेखन शैली भी इसमें उभर कर सामने आई है। कहानियों में घटनाओं और काल-परिस्थितियों का चित्रण विवरणात्मक है जिसे पढ़ते हुए पात्रों और स्‍थानों में जीवंतता का अह