रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य

डोम, तूफान और सरकार

अभी तक बहस चल रही है। डोम कैसे गिरा? उसके पीछे षडय़ंत्र की बू तक लोगों ने सूंघ लिया। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। हमें सही दिशा में सोचने की आदत नहीं है। डोम एक बार नहीं, दो बार भरभरा कर गिरा। चारों खाने चित हुआ। दबे हुए लोगों की कराह भी सुनी गई। हमें अपनी सोच को सही दिशा में केन्द्रित करना चाहिए। मुश्किल तो यही है कि सही दिशा नहीं मिल पाती। तेज तूफान आया बड़ा डोम था। दिल्ली वाला। मजदूरों के तो बाप-दादाओं ने इतना बड़ा डोम पहले कभी नहीं देखा था। याने अजूबा था। जल्दबाजी की तैयारी थी। कीलें, जमीन के भीतर ज्यादा गहराई तक नहीं गड़ी थीं। भारी-भरकम स्ट्रक्चर था, गिर गया। अचानक आए तूफान को झेल नहीं पाया। ठेकेदार भी कितनी मजबूती देता। हिस्से-बांटे के आधार पर काम तय होता है। इसमें उसका क्या दोष? वह बचने की पूरी कोशिश करेगा। कोशिश पूरी ईमानदारी से होगी तो यह तय है कि वह बच जाएगा। बचने की नई-नई टैक्निक सामने आ चुकी है।
इसकी भी खूब चर्चा चली कि ठेकेदार दिल्ली का था। पार्टी के नेता का करीबी था। ये सब तो होते रहता है। ठेका करीबियों को ही मिलता है। रहा सवाल दिल्ली का? यह तो बेतुका तर्क है। अरे भाई दिल्ली के बजाय मुंबई या नागपुर का ठेकेदार होता, तो क्या डोम नहीं गिरता? ऐसे तूफान में डोम को गिरना ही था। वह जरूर गिरता। रायपुर का ही ठेकेदार होता तो, कौन सा तीर मार लेता। क्या तूफान रोक देता? तीर चलाकर उसकी दिशा मोड़ देता? याने कि पौराणिक युग में पहुंच जाता। ये सब फिजूल प्रश्न है। मुद्दे से भटकाने वाले। हमें तूफान का शुक्रगुजार होना चाहिए। सही समय पर सही दिशा से आया। अपनी पूरी ताकत से। कमजोर डोम और व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं। उसे तूफान ही हिला सकता है। रामलीला मैदान की ऐतिहासिक रैलियां हों या जंतर-मंतर का धरना। भ्रष्टाचार के आगे बौने साबित हुए। इन महारैलियों और अनशन से ऐसा लगा था कि पूरे देश से भ्रष्टाचार का खात्मा होकर रहेगा? लेकिन हुआ नहीं, सपना सच नहीं हो सका। हो जाता तो, कितना अच्छा होता। डोम गिरने की नौबत नहीं आती।
हम प्रकृति और पर्यावरण के दुश्मन बने हुए हैं। जानी दुश्मन लेकिन प्रकृति ने हमारा कितना साथ दिया। सोचा अगर तूफान दो दिन बाद आता तो? ऐन वक्त पर सभा रद्द करनी पड़ती। कितनी भाग-दौड़ होती। अफरा-तफरी मचती। बदनामी पहले से ज्यादा। तूफान तो तूफान होता। लेकिन सरकार बुरी तरह हिल जाती। विपक्ष और भी हिलता। हिली तो अभी भी है, लेकिन हिलकर रह गई। आगे और सोचो? सोचने में क्या जाता है। मान लो सरकार आ जाती। पी.एम. का भाषण होते रहता। खचाखच भीड़ के बीच। इसी समय तूफान आ जाता तो, सोचने से ही रोंगटे खड़े होने लगते हैं। पन्द्रह करोड़ का पूरा डोम धराशायी हो जाता। घायलों से पूरा सभास्थल भरा रहता। मरने वालों के आंकड़े रहरस्यमय बने रहते। हमारा नया शहर बसने के पहले ही बर्बाद हो जाता। हम मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। मंत्री दबकर प्राण गंवाते। साथ में संत्री भी जाते। आईएएस, आईपीएस, आईएफएस न जाने कितनों की शामत आती। यह शुरुवाती सदी का एक बड़ा हादसा होता। हम तो इसे कुदरत का करिश्मा ही कहेंगे। मिटते-मिटते रह गए। पूरी सरकार बैठ जाती।
एक सरकार का बैठना, एक युग का बैठना होता है। सारे करिश्माई व्यक्तित्व धरे के धरे रह जाते। भला हो तूफान का। समय पर आकर गुजर गया। अपनी अमिट छाप-छोड़ गया। वरना वर्तमान भाप बनकर उड़ जाता। भविष्य गहरी खाई में समा जाता। खुरदरी हकीकत सामने आती। जनता बेवजह की उलझन में उलझी रहती है। तूफान आराम से गुजर गया। यही कोई दस-पन्द्रह सेकण्ड में। लेकिन उफान अभी बाकी है। कोई एफआईआर के पीछे पड़ा है। एक बड़ा वर्ग ठेकेदार के संबंधों की पड़ताल में निकल पड़ा है। डोम के मलवे के नीचे दबे लोगों की चीख-पुकार कुछ सुनी गई। कुछ अनसुनी रह गई। हमेशा की तरह। दुनिया छोडक़र जाने वालों का मुंह मुआवजे की रकम से बंद है। विपक्ष के हमले तेज हैं। सत्तापक्ष सफाई की चादर बिछाकर बैठा है। चादर सफेद है। दाग का नामोनिशान नहीं। सरकार कहती है, यह प्राकृतिक प्रकोप है। जिसके आगे सभी बेबस हैं। वैसे तो सच को मान लेने से झूठ का मुंह काला हो जाता है। लेकिन सच किधर है? और झूठ किधर है? जनता असमंजस में है। आखिर जनता का संबंध असमंजस से कब तक बना रहेगा? खोजबीन जरूरी है। जनता जनार्दन को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है।
साल भर पहले भी एक तूफान आया था। उसकी याददाश्त में होगा। वह लोकतंत्र का तूफान था। हर पांच साल बाद आता है। उसने दिल्ली के एक बड़े डोम को ऐसा तहस-नहस किया कि उसका अता-पता अभी तक नहीं चला। एक सौ तीस साल पुराना ऐतिहासिक डोम था। जिसकी जड़ें पूरे देश में फैली हुई थी। पूरी मजबूती के साथ ऐसा उड़ा कि बस उड़ा। बड़े-बड़े दिग्गज देखते रह गए। जैसे खुले मैदान में खड़ा बच्चा, आसमान में उड़ते एरोप्लेन को देखते रह जाता है। मतदाताओं का तूफान किसी भयावह सुनामी से कम नहीं होता। प्राकृतिक तूफान आने की कोई सूचना नहीं मिलती। अचानक आ धमकता है। मतदाताओं का तूफान आने से पहले बार-बार दस्तक देकर अपने आने की पुख्ता सूचना देता है। लेकिन सरकार उसे अनसुना कर देती है। सुनकर भी नहीं सुनती उसकी चेतवनी का कोई असर नहीं होता। नतीजा आप देख ही रहे हैं न? विपक्षी दल का दर्जा भी नहीं मिल पाया। इसे कहते हैं मतदाताओं का तूफान। जिसने समझा वह सिकन्दर। आगे तुक मिलाते हुए कह सकते हैं जो समझ न पाया वह चुकन्दर।


साहित्य का चोंगा और साहित्य शिरोमणि

पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कालजयी कहानी ‘उसने कहा था’ यह शताब्दी वर्ष है। युद्ध की पृष्ठभूमि वाली कहानियों पर मैंने अपने मित्र का एक अच्छा आलेख पढ़ा। कुछ देर के लिए कहानियों की दुनिया में खोया रहा। दूसरे पृष्ठ का समाचार पढक़र मेरा माथा ठनका। माथा ठीक ठाक है। उसे ठनकना ही था। समाचार ही कुछ ऐसा था। अवधबिहारी की हीरक जयंती का! साथ में नागरिक अभिनन्दन। जयन्तियों के साथ अभिनन्दन का पुछल्ला बराबर लगा रहता है। ये एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। हीरक जयंती का समाचार चांैकाने वाला नहीं है। जयंती मनाना सबका अधिकार है। संविधान इस मामले में कोई भेदभाव नहीं करता। जल्दी है तो, स्वर्ण जयंती मना ले। षष्ठिपूर्ति एक आदर्श स्थिति है। सरकारी कर्मचारी तो सेवानिवृत्ति में ही निपट जाता है। जिन्दा रह गए तो शताब्दी समारोह भी धूमधाम से मनाया जा सकता है। लेकिन शरीर इसकी इजाजत नहीं देता। जीते जी शताब्दी समारोह भाग्यशाली ही मना पाते हैं।
अवधबिहारी का मामला कुछ और है। साहित्य की कोई गुमनाम सी संस्था, उसे साहित्य शिरोमणि की उपाधि देने जा रही है। एक खूबसूरत निमंत्रण पत्र आया है। आर्ट पेपर पर शानदार बहुरंगी छपाई। आकर्षक और कलात्मक दोनों कोई एक बार देखे तो, दुबारा भी पलटकर देखना चाहे। सम्हालकर रख भी ले। एक भव्य समारोह की तारीख निश्चित है। कार्यक्रम एक महंगे होटल में है। अनेक स्वनाम धन्य महारथियों के नाम निमंत्रण पत्र में है। सबके सब कालातीत। एक्सपायरी डेट की दवाईयों की तरह जिसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं रहा। उन्हें साहित्य शिरोमणि की उपाधि दी जा रही है। माथा इसीलिए ठनका था। साहित्य की उपाधियों के इतने बुरे दिन आ गए।
अवधबिहारी बाईस साल की उम्र में सरकारी नौकरी में आया। फारेस्ट डिपार्टमेंट की नौकरी। कई ऐसे कर्मचारी हैं, जो जंगल विभाग की नौकरी पाकर जंगल के होकर रह गए। उनका संबंध और सम्पर्क मानवजाति से कम जानवरों से ज्यादा हो जाता है। अवधबिहारी कुछ इसी किस्म के प्राणी निकले। तीस साल तक हरियाली के दुश्मन बने रहे। जितना बन सका हरियाली चरते रहे। पर्यावरण संतुलन में अपना योगदान देने से नहीं चूके। आदिवासियों का प्यार दुलार पाकर उन्हें लूटते रहे। इस बीच देश दुनिया में क्या घटता रहा नहीं जान पाए। सारा परिवार शहर में रहकर सुख के सागर में गोते लगाता रहा। अवधबिहारी जंगल में रमे रहे। तीस साल की नौकरी के बाद सस्पेंसन की गाज गिरी। उससे उबरने का मौका नहीं मिला। ले-देकर बहाल हुए। इस शर्त पर कि बहाली के बाद अपना इस्तीफा सौंप देंगे।
जैसा कि अक्सर होता आया है, सेवानिवृत्ति के बाद अवधबिहारी समाजसेवी बने। कहना चाहिए समाज के होकर रह गए। हराम की कमाई का एक बड़ा हिस्सा समाज सेवा के काम आया। बेईमानी के घर में समाज सेवा का पौधा अच्छा फूलता-फलता है। बिना खाद लहलहाता है। मसलन कई प्याऊ बने। मंदिर का अहाता बना। बच्चों के लिए झूलाघर। युवाओं के लिए मुहल्ले में लायबे्ररी। खेलकूद के लिए टूर्नामेंट। मां के नाम पर हर वर्ष मंदिर में भंडारा। पिता की स्मृति में वृद्धाश्रम जाकर फल वितरण उर्सपाक के सालाना जलसे में सहायता। यतीमखाना की मदद। सारे लोक लुभावन काम होते रहे। प्रसिद्धि मिली, मान-सम्मान बढ़ा, पुराने पाप धुल गए। जंगल की अवैध कमाई से समाजसेवा का नया फार्मूला सामने आया।
अपनी दूसरी पारी खेलते हुए अवधबिहारी करवट बदलकर साहित्य सेवा के क्षेत्र में आ गए। जैसे हरे-भरे खेतों को देखकर छुट्टा सांड़ चरने लगता है। तुक्कड़, नुक्कड़, फूहड़ हास्य और बाजारू लतीफेबाज कवियों के संयोजक बनकर खूब वाहवाही बटोरी। अपने दमखम पर बड़े-बड़े कवि सम्मेलन कराते रहे। अवधबिहारी कवियों से ज्यादा लोकप्रिय हो गए। साहित्य की एक विधा गौमाता है। वह है कविकर्म। गरीब की भौजाई। आपसे कुछ भी लिखा-पढ़ा नहीं जाता, निराश न हो आपके लिए कुछ है। बहुत कुछ है। आप कविता लिखिए। छोटे-छोटे बेतरतीब वाक्यों से जो भी लिखा समझ लो कविता है। कविता के मामले में हमारे एक कवि मित्र का दावा गौरतलब है। वे एक रात में चालीस-पचास कविताएं लिखकर रिकार्ड बना सकते हैं। अगर कोई चैलेंज करने वाला मिल जाए तो वे इससे आगे भी जा सकते हैं। जो कुछ भी गुनगुनाते हुए गेय लिख दिया वह गीत है। गीतों को जी भरकर तोड़ा मरोड़ा तो वह नवगीत की शक्ल में आ जाता है। इस पेटर्न को आजमाते अवधबिहारी कवि बन गए। पक्के कवि। गोष्ठियों में न केवल जाने लगे, बल्कि अध्यक्षता भी करने लगे।
दो काव्य संग्रह भी आ गए, देखने लायक। लोकगीतों व लोककथाओं को संग्रहीत कर दो किताबें अपने नाम और कर लीं। सम्पादक और संग्रहक भी बन बैठे। सक्रियता इतनी बढ़ी कि लोकगीत, लोकसंगीत, लोक मुहावरे, लोक संस्कृति, लोक त्यौहार, लोक संस्कार याने जो भी लोत मौजूद है, वह सब अवधबिहारियों के कब्जे में है। साहित्यिक सफलता प्राप्त करने में पूरी उम्र झोंक देना पड़ता है। कई बार तो मृत्यु के बाद भी उचित सम्मान नहीं मिल पाता। अवधबिहारी अपवाद हैं। साहित्य का चोंगा पहनकर साहित्यकर बन गए। सब कुछ रहस्यवादी कविता की तरह रहस्यमय है। साहित्य शिरोमणि जैसा सम्मानित शब्द, उनके लिजलिजे माथे पर तिलक बनकर लगने जा रहा है। इस उपाधि से उन्हें कौन रोक सकता है। साहित्य साधक, साहित्य श्री, साहित्य रत्न, साहित्य भूषण किस्म की उपाधियों की बाढ़ आई हुई है। अनेक स्वनाम धन्य साहित्यकार इन उपाधियों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। जितने लेने वाले, उतने देने वाले। आंकड़ा बराबरी का है। निमंत्रण पत्र पढक़र मेरा माथा अब भी ठनक रहा है। मैंने उपेक्षित भाव से उसे टेबल के एक कोने में रख दिया। मेरी उपेक्षा के बावजूद निमंत्रण पत्र मुस्कुरा रहा है।

मुखौटे के भीतर और कितने मुखौटे

सन् 2014 झाड़ूओं के लिए याद किया जाएगा। पहली झाड़ू क्रांति, दिल्ली चुनाव में हो गई। सत्तर सीट की विधानसभा में सड़सठ सीट की जीत का कोई जवाब नहीं। अर्वे-सर्वे एक्जिट पोल आदि का दिवाला पिट गया। अनेक महारथी चारों खाने चित। दिशा निर्देशक दिशा भूल गए। महारैलियां फीकी पड़ गईं। कसमे-वादे का जनाजा निकल गया। जनता-जनार्दन की ताकत ने दिल्ली में एक अलग दुनिया आबाद कर दी। भारत में महाभारत का दृश्य, वैसे तो भारतीय जनता अपनी ताकत कई बार बता चुकी है। इतिहास की धारा बदली है। झाड़ू छाप ने उथल-पुथल मचाकर राष्ट्रवाद को करारा झटका दिया। इसके दूरगामी परिणामों का सर्वे राजनीति के पंडित अभी तक करते न•ार आ रहे हैं। समीकरणों के बंद द्वार खुल गए। एक-दूसरे के करीब आते-आते गले लग गए। अस्तित्व संकट से गुजर रही पार्टियों में नए जोश का संचार दिखलाई देने लगा। जोश को भी होश आया।
दूसरी झाड़ू भारत स्वच्छता अभियान की है। इस झाड़ू ने जो कीर्तिमान स्थापित किए, उसका टूटना फिलहाल असंभव दिखलाई देता है। प्राइम मिनिस्टर के हाथ में झाड़ू आई। ये पहले पीएम है। आ•ाादी के पूरे अड़सठ बरस बाद, जिनके हाथ में झाड़ू दिखी। फिर पूरे केबिनेट के हाथ में झाड़ू। क्लिक करते फोटोग्राफर परेशान। छापते-छापते अखबार हैरान। लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल...। पूरे देश की चर्चा के केन्द्र में झाड़ू। मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के हाथ में झाड़ू। किस्म-किस्म के झाड़ू। जैसा प्रदेश, वैसा भेष। अनेकता में एकता का दर्शन चरितार्थ होते दिखा। विभिन्न भारतीय भाषाओं के अखबारों में झाड़ू छाया रहा। इस अभियान से भाषायी एकता को भी बल मिला। अरबपतियों के हाथ में झाड़ू देखकर तो तबीयत बाग-बाग होते रही। ऐसे दिन तो कभी आए ही नहीं थे। इससे अच्छे दिन और क्या आएंगे। सारे अरबपति सड़कों पर झाडू करते दिखें। सड़क, झाड़ू और कचरा तीनों धन्य हुए। बड़ी फिल्मी हस्तियों के हाथ में झाड़ू। बादशाह के हाथ में। शहंशाह के हाथ में। सदी के महानायक के हाथ में झाड़ू। प्रोड्यूसर के हाथ में झाड़ू आई। डायरेक्टर के हाथ से होते हुए निकल गई। ये दिलचस्प दौर रहा। ऐसी रोशनी आसमान में बार-बार दिखने वाली नहीं। ऐसी भी खबर है कि कुछ लेखकों के हाथ में झाड़ू आई। वे एक-दूसरे के साहित्य कर्म पर झाड़ू मारते दिखे।
रंगीन पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित सचित्र समाचारों को मैंने अलबम में सहेज कर रखा है। मैं इसे राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा देता हूं। बड़ी-बड़ी हस्तियां झाड़ू के साथ। कोई सड़क की सफाई करते दिखता है। कोई आफिस की सफाई में मगन। कोई संसद के गलियारे में। कोई ताजमहल के आंगन में। समय बीतते देर नहीं लगती। कुछ वर्षों के बाद यही चित्र ऐतिहासिक जो जायेंगे। गुगल, इंटरनेट और फेसबुक के जमाने में कुछ सहेजकर रखने की जरूरत नहीं है। फिर भी अलबम की हकीकत अपनी जगह पर कायम है। जब कभी शहर में कचरों का ढेर बढ़ जाता है, मैं इस अलबम को निकालकर पलट लेता हूं। इससे दो हाथ लम्बा सुकून मिलता है।
समय ने बहुत जल्दी पलटी मारी, अब दोनों किस्म की झाड़ू अपने भविष्य को लेकर चिन्तित और निराश है। एकमुश्त सड़सठ सीट जीतने वाली झाड़ू ने तो सोचा भी नहीं था कि इतनी जल्दी उसे दुर्दिन घेर लेंगे। बेवजह नोक-झोंक, उठापटक और कीचड़ उछाल का दृश्य देखकर झाड़ू पसीना-पसीना है। मुहर लगाने वाले मतदाताओं के मुंह से आवाज नहीं निकलती। उपलब्धियां उल्लुओं की आंखों से झांक रही है। स्वच्छ भारत अभियान की झाड़ू का और बुरा हाल है। एक भव्य इमारत की दीवार से टिककर कोने में सिसकती पड़ी है। क्रियाशील नेतृत्व गुमसुम और खामोश। उसने तो सोचा भी नहीं था, अच्छे दिन आते-आते इतनी जल्दी हथेलियों से फिसल जाएंगे। बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद डरावने स्वप्न में बदल गई। साफ-सफाई के लिए झाड़ू ने हमेशा अपना तन-मन न्योछावर किया। काम हो जाने के बाद स्वार्थी समाज से उसे हमेशा लताड़ और फटकार मिली। लोकप्रियता के आसमान को छूते-छूते अचानक जमीन का स्पर्श। कहना न होगा कि स्वच्छता अभियान के इस कारपोरेटी नाटक को विशाल रंगमंच मिला। मंजे हुए कलाकार। सधी हुई भाषा में मोहक संवाद। साथ में महा मीडिया का सहयोग वैश्विक स्तर पर शायद ही कहीं देखने मिले।
स्वच्छ भारत अभियान में सबसे ज्यादा फायदेमंद रहे अहमद अली और नरोत्तमदास। इन दोनों की एक दूकान है। झाड़ू की चालीस साल पुरानी। एक साथ पढ़े। खेले-कूदे-और आगे बढ़े। ज्यादा आगे नहीं, झाड़ू दूकान तक आए। धंधा विरासत में मिला। दोनों के पिता सुदूर आदिवासी अंचल से झाड़ू लाकर बेचते रहे फेरी लगाकर। इन दोनों ने मिलकर दूकान आगे बढ़ा दी। पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। स्वच्छ भारत अभियान में तो इनकी लॉटरी ही लग गई। इतने आर्डर मिले कि सप्लाई करना मुश्किल हो गया। लाखों की कमाई। दूकान की साख बढ़ी बढ़ते चली गई। 'एच.एम.ब्रान्ड' फेमस हो गया। 'एच. एम.' याने 'हिन्दू-मुस्लिम ब्रान्ड' स्वच्छता अभियान के गुब्बारे की हवा जरूर निकल गई, लेकिन झाड़ू की बिक्री आज भी रिकार्ड तोड़ती नजर आती है। इन दोनों की साख समाज में मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानी 'पंच परमेश्वर' जैसी बनी हुई है। इस कहानी को सौ साल पूरे होने को आए।
विज्ञान के विकास की दस्तक मंडल ग्रह में सुनी जा रही है। इधर हम धर्मान्तरण के मुद्दे पर उलझे हुए है। एक ओर देश छोडऩे की बात होती है। दूसरी ओर, मताधिकार से वंचित कर देने की आवाज सुनाई देती है। तीसरी तरफ अलगाववादी झंडा फहराकर पिट्ठू होने का एहसास कराते हैं। कौन सी कौम कितने बच्चे पैदा करें? इस पर रोचक बहस जारी है। तमाम ज्वलंत मुद्दों के बीच 'एच.एम. ब्रान्ड' पर कोई असर नहीं पड़ा है। यह भी एक मिसाल है। अहमद अली और नरोत्तम दास की। सेतुबंध में सहयोग प्रदान करती नन्ही गिलहरी की तरह।

- रवि श्रीवास्तव
सेक्टर-10, भिलाईनगर
आप इनसे फेसबुक में यहॉं संपर्क कर सकते हैं।

टिप्पणियाँ

  1. रवि भैया कलम के सिपाही हैं, उन्हें लिखने के लिए सोचना नहीं पडता, सहज रूप से उनके विचारों के तार उनकी लेखनी से जुड जाते हैं और पाठक तक दौड कर पहुँच जाते हैं और पाठक आनंद से अभिभूत हो जाता है । वे सभी विधाओं में लिखते हैं और सभी में पारंगत हैं । मुझे कुछ पूछना होता है तो मैं तीन लोगों से पूछती हूँ - विनय अंकल,रमेन्द्र भैया और रवि भैया । अभी बहुत दिन से रवि भैया का फोन नंबर मेरे पास नहीं है इसलिए उन्हें परेशान नहीं कर पा रही हूँ ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म