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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

पनही के बहाने

पनही पर भक्ति काल के कवियों ने बहुत कुछ लिखा है। उस समय के सभी दास कवियों ने पनही संस्कृति को अपने-अपने मंजुल मति अनुसार समृद्ध किया है। तत्कालीन ब्रांड एम्बेसडर संत रविदास तो इसकी जियो ब्रांडिंग करते हुए, कई बार संतों को तथा जनसाधारण को बिना कीमत लिये ही पनही भेंट कर दिया करते थे। यदि इन कवियों ने पनही पर उस समय अपना ध्यान केंद्रित नहीं किया होता तो उपेक्षित सा पनही घेरी-बेरी आज के सन्दर्भों में उफला नहीं पाता। बेकाम संत मोको कहाँ सीकरी सो काम लिखते हुए भी उस समय की राजधानी सीकरी गए। हमें बताया कि रियाया की शोभा गोड़ से ही होती है मूड़ तो शहनशाहों का ही होता है। पनही को मूड़ पर मुकुट जइसे मढ़ाया नहीं जा सकता, उसकी फितरत खियाने की ही होती है।

गांव में पनही पहिरि चमाचम ग्वाला खांधा मा डारे नोय घूमता था। कोई कहता कि छाड़ि दे ग्वाला बजनी पनहिया छाड़ि खांधा के नोय तो वह झट मना कर देता। इस बजनी पनही के दम पर सात बिआही नौ उढ़री सोरह सखी कुंवारि उस पर मोहित है। मने आप समझ सकते हैं इसकी महिमा।

हमारे जीवन में भी इस पनही का बहुत महत्व रहा है, घर में नौकर एक-एक जोड़ी भंदई-पनही और दो खण्डी धान में लगता था। नांगर-बखर के लिए जोंता-बरही संग परिवार के बाकी लोगों के लिए भी पनही बनवाना होता इसके कारण साल-दो साल में दो जोड़ी ही मिल पाता था। एक कड़े चमड़े वाला जो खेत-खार जाने के लिए और एक नरम चमड़े वाला जो बाहर गांव-गौंतरी जाने के लिए उपयोग में लाया जाता। इनके चिरा जाने पर भी घेरी-बेरी सिलवा-सिलवा कर फटते तक पहनना होता था। पनही का नाप देने दूसरे गांव जाना होता। एक सप्ताह बाद चमचमाती पनही दरवाजे पर मिल जाती थी, जो अंदर आते ही ललचाती थी। बाबूजी डाँटते थे, गांव-गौंतरी जाने के लिए खरीदी गई पनही यूँ ही कभी भी पहनी नहीं जा सकती थी। बाल मन मानता नहीं था और पनही पैरों में लहा के देखने के बहाने गली-खोर में निकल आती थी। बिना दांत के छीनी अंगरी और एडी के ऊपर चाबने के बाद भी पनही पैरों से स्वामिभक्ति दिखाते रहती। प्रभु की चाल बता देती थी कि टुरा नवा पनही पहना है।

बारात-सारात जाने के लिए चचेेरे भाई से एक-दो दिन के लिए सहरी पनही उधार भी ली जाती रही और क्रीम पालिस कराकर वापस की जाती रही। मुझे याद आता है एक बार के ऐसेही पनही उधारी में, राज्य परिवहन की खटखटिया बस से उतरते समय फटे पायदान में फसकर फट गई। अब उधारी देने वाला नया पनही मांगने लगा और परिवार के सामने नोटबंदी से बड़ी समस्या आन पड़ी। जैसे-तइसे सिलवा कर पनही वापस की गई, पनही का रौब भूल जाने की शिक्षा मिली।

बाढ़ने के बाद भी हमारे लिए पनही दुर्लभ रही क्योंकि तब करोना और बाटा का सस्ता स्लीपर आ गया था। इस स्लीपर ने ही हमारे पांवो की शोभा और नंबर दोनों बढ़ाई। बचपन से पनही के लिए ललचाते मन को अभी दसेक सालों से संतुष्टी मिली, अब हमारे पास चार जोड़ी है। यह दरवाजे के पास रखे रैक में सजाने का काम भी आती है।

इन चारों में से एक इम्पोर्टेड है, अर्जेंटीना के मगरमच्छ के खंडरी से बना एकदम नरम। पैर में डालते ही इसका अहसास लम्बे कदम चलने का विश्वास भर देता है। यह पनही मुझे बहुत पसंद है, इसलिए कि इसे मेरे मालिक ने दिया है। या यूँ कहें बाप-बेटे के पनही संबंधी मुहावरों सा कुछ। हालाँकि मालिक ने मुझे इस महँगे पनही को इसलिए दिया है कि यह उनके नाप से बड़ा है। मालिकों का पैर हमेशा छोटा होता है और नौकरों का बड़ा। मालिक का दिया नौकर के लिए क्या अहमियत रखती है, इसको मेरे जैसा हर भूतपूर्व गौंटिया बेहतर ढंग से समझ सकता है। तब जब हमारे पास जमीनें थी और नौकर भी थे, तब हम महसूस करते थे कि नौकरों को हमारे दिए कपडे और पनही बहुत पसंद आते थे। अब स्थिति ऐसी नहीं रही, गौंटी छिन गई और हम किसी के नौकर हो गए।

खैर.., मैं पिछले तीन साल से इस इम्पोर्टेड पनही को सरलग पहन रहा हूं। अब यह काफी खिया गया है, श्रीमती जी कहती है कि अब इसे बदल लो, मगर मन है कि मानता नहीं, पनही-प्रेम जो है।
- तमंचा रायपुरी

टिप्पणियाँ

  1. लाल रंग पढ़ने में (स्पीड रीडिंग में) बाधा पहुँचा रहा है. इसे काला बोल्ड ही रहने दें. पहले लगा कि यह लिंक है. परंतु केवल हाईलाइट है.
    (टैक्स्ट ह आंखी मं चकचकावत हे जी, कइसन कर दे हस. ठीक करबे त बने रही)

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