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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

छत्तीसगढ़ी डायस्पोरा : शून्य से शिखर की यात्रा

छत्तीसगढ़ से रोजगार या सही शब्दों में कहे तो रोज़ी रोटी की  तलाश में लोगों के पलायन का इतिहास बहुत ही पुराना है . यह भी संभव है कि, पलायन करने वाले लोग शायद भुखमरी या ऐसे ही किन्ही अन्य आपदा के चलते पलायन करके ही छत्तीसगढ़ आये रहे हों. पलायन आम तौर पर ख़राब हालात से जन्मते है, जबकि आप्रवासन पैसे कमाने या व्यापार के लिए होते हैं. पर बेचारा छत्तीसगढ़ी अभी कुछ दशक पहले तक पहली वाली श्रेणी का ही होता था. ऐसा ही पलायन आज से लगभग 150 साल पहले, तब शुरू हुआ था जब यहाँ के लोग पेट बिकाली के लिए असम के चाय बागानों में मजदूरी करने जाना शुरू किये. उस समय चाय के बागान भी बस शुरू ही हुए थे या हो रहे थे और इन छत्तीसगढ़ियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी उन बागानों में काम करते हुए ऐसी दक्षता अर्जित की कि आज वे पूरी दुनिया में सबसे बेहतरीन चाय के उत्पादक कहलाने लगे लेकिन तमगा आज भी वही टी गार्डन वर्कर या गार्डन लेबर का .  तब प्रवास के यातायात इतने सुगम नहीं थे, रास्ते में सुविधाओं का सख्त अभाव रहा होगा, कई दिनों में यहाँ से अपर असम पहुचा जाता रहा होगा, अनजाने लोग, अनजाना देश और अनजानी भाषा. हमारे उन पलायन करते भाई बहनों ने कितनी विषम परिस्थितियों का सामना किया होगा, उन्होंने किस तरह वहां अपने और अपने परिवार को व्यवस्थित किया होगा? उन्होंने ऐसा करते करते डेढ़ सौ साल गुज़ार दिए पर इन सब के बीच एक ख़ास बात जो इन्हें अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को सहेजने के लिए प्रेरित करती रही, वह है उनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी और उनकी अपनी बहुरंगी छत्तीसगढ़ी संस्कृति. सुखद लगता है कि आज जब यहाँ अपनी भूमि पर छत्तीसगढ़ी बोलने वाले समाज और परिवार अपनी भाषा के स्थान पर अन्य भाषा बोलने में गौरव की अनुभूति करने के वहम में इस भाषा को तिरियाने लगे हैं. वहीँ असम में रहने वाले छत्तीसगढ़ी वंशी जिनकी संख्या इन 150 सालों में बढ़कर 15 से 20 लाख के करीब हो गयी है, आज भी छत्तीसगढ़ी को ही अपनी मातृभाषा के रूप में प्रयोग करते हैं.

छत्तीसगढ़ से सबसे पहली बार आजीविका के लिए परदेस गमन की शुरुआत के बारे में असम में रहने वाले छत्तीसगढ़ वंशी लोगों का कहना है कि जब सन 1855 में छत्तीसगढ़ में भयावह भूकंप आया तब लोग बेघर हो गए और उनके लिए जीवन यापन कठिन हो गया तब वे लोग आजीविका की तलाश में यहां से बाहर निकलना शुरू किये ( यद्धपि 1855 में छत्तीसगढ़ के किसी भूभाग में भूकंप की पुष्टि, इतिहास नहीं करता हो सकता है किसी अकाल जैसी विभीषिका से भुखमरी की स्थिति निर्मित हुई रही हो और लोगों ने उदर पोषण के लिए परदेस का रुख किया हो). उस समय अंग्रेजी शासन द्वारा असम में चाय बागानों की स्थापना की जा रही थी जिसमे काम करने के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी. भर्ती एजेंट यहाँ से लोगों को कलकत्ता फिर वहां से गौहाटी ले जाते थे जहाँ से फिर उन्हें उत्तर असम के चाय बागानों में ले जाया जाता था . असम इम्पीरियल गजेटियर में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि, 19 शताब्दी के उत्तरार्ध में जब असम में चाय बागन विकसित किये जाने लगे तब सन् 1876 से उन बागानों में काम करने के लिए उड़ीसा, झारखण्ड, संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त आदि से मजदूर लाने की शुरुआत हुई. उसमे आगे यह भी लिखा है की सन् 1905 में चाय बागानों में रहने वालों में मध्य प्रान्त से आये लोगों की संख्या 65 हज़ार से अधिक थी. चूंकि उस समय छत्तीसगढ़ मध्य प्रांत का हिस्सा था, जिसके आधार पर हमारा अनुमान है यह संख्या छत्तीसगढ़ियों की ही होगी.उस दौर में जो लोग गए उनमे छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले लगभग सभी ग्रामीण समाज के लोग शामिल थे जैसे तेली, कुर्मी, धोबी, गोंड, राउत, केंवट, कलार, पनिका, सतनामी और अन्य जाति के लोग.

आज इन छत्तीसगढ़ी वंशियों की संख्या लगभग 15 से 20 लाख के आसपास है. उनमे से अधिकतर लोग चाय बागानों में ही रहते है. एक बसाहट में इनकी संख्या 100 से 3-400 घरों की है. इनके गाँव मिश्र प्रवृत्ति के है जिसमे ओरांव, मुंडा, संथाल आदि अन्य राज्य से आये लोग भी निवास करते हैं. इनके घरों में अभी भी मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी ही बोली जाती है और घर से बाहर भी एक दूसरे के साथ इसी भाषा में वार्तालाप होता है. अन्य भाषा भाषी लोगों के साथ संवाद के लिए एक नयी भाषा विकसित हो गयी है जिसे बागानी बोली कही जाती है जिसमे आसामी तथा छत्तीसगढ़ी सहित अन्य आप्रवासी भाषाओं के शब्द शामिल हैं. आज भी उनके जीवन संस्कार से संबंधित सभी अनुष्ठान पूर्ण छत्तीसगढ़ी हैं तथा विवाह भी वहां रह रहे स्वजातीय लोगो के बीच होते हैं. पर ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ से उनक कोई संपर्क नहीं हो, उनमे से अनेक लोगों की इच्छा छत्तीसगढ़ में विवाह सम्बन्ध बनाने की रहती है, अनेकों का अभी भी अपने मूल ग्रामों तथा वहां रह रहे रिश्तेदारों से संपर्क है. वे छत्तीसगढ़ी गीत संगीत के बड़े शौक़ीन हैं जिसकी पूर्ती रेडियो में छत्तीसगढ़ी प्रसारण सुन कर की जाती है. अपने पारंपरिक सभी तीज त्योहारों को भी उनके द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है.

डेढ़ सौ साल के अंतराल ने दुनिया के साथ ही उनकी भी स्थिति बदली है और परिणामतः पहले जहां छत्तीसगढ़ी वंशी लोग बागान कर्मी का ही काम करते थे वे अब शिक्षा प्राप्त कर अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बना लिए हैं. उनमे से अब लोग शिक्षक, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर, इंजिनियर और अन्य पेशे वाले तो बन ही गए हैं साथ ही उनमे से कुछ लोगों ने राजनीति में भी महत्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित की हैं. पिछले कई असम विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ी विधायक लगातार निर्वाचित होते रहे हैं. इस बार भी दो लोगो ने विधान सभा चुनाव जीता है और इस बीच एक विशेष उपलब्धि यह रही है कि रामेश्वर तेली जी, जो छत्तीसगढ़ी वंशी है उन्होंने डिब्रूगढ़ संसदीय क्षेत्र के सामान्य सीट से जीत प्राप्त कर संसद सदस्य बने हैं. असम राज्य प्रशासन तथा पत्रकारिता में भी छत्तीसगढ़ियों का महत्वपूर्ण स्थान है

दूसरा महत्वपूर्ण स्थान छत्तीसगढ़ के लोगों का बाहर काम के लिए जाने से संबंधित जो रहा है वह है जमशेदपुर या टाटानगर. 1907 में जब यहाँ पारसी उद्योगपति जमशेद जी टाटा ने स्टील प्लांट लगाया तो उस समय छत्तीसगढ़ से काफी तादात में लोग उस कारखाने में काम करने के लिए गए ,फिर वे वहीँ बस गए आज इनकी संख्या लगभग दो लाख के आसपास है है और वे, वहां हवाई अड्डे के नज़दीक स्थित इलाके सोनारी में निवास करते हैं. उनका उस शहर के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है. रघुवर दास जी जो आज झारखण्ड राज्य के मुख्यमंत्री हैं वे जमशेदपुर से ही हैं और छत्तीसगढ़ी मूल के हैं, वहां भी जीवन में छत्तीसगढ़ी संस्कृति और भाषा जीवन्तता के साथ विद्यमान है.

वैसे तो छत्तीसगढ़ के लोग अपनी श्रमशक्ति और इमानदारी के लिए उन सभी स्थानों में लोकप्रिय हो जाते है जहाँ वे काम करने के लिए जाते है. यहाँ के अनेक गावों के लोगों द्वारा सीज़नल माइगरेसन तो साल दर साल होते रहता है इसलिए हम उन्हें लद्दाख से शुरू हो कर पूरे देश में काम करते पा सकते हैं किन्तु आज़ादी के बाद छत्तीसगढ़ के लोगों ने अनेक स्थानों में स्थायी रूप से बसना प्रारंभ किया और उन शहरों में अपनी विशेष पहचान बनाई है.

सन 1975 में मैं कलकत्ता गया था जहाँ मैं अपने एक मित्र के साथ रूका था. जहां मैं ठहरा था उनका तेल का व्यापार था. वहाँ काम करने वालों को शुद्ध बांगला भाषा में बात करते सुनता था, एक बार सुखद आश्चर्य हुआ जब मैंने उन काम करने वालों को आपस में छत्तीसगढ़ी में वार्तालाप करते देखा. उनसे बात की, तो पता चला कि वे कई पीढ़ियों से कलकत्ता में बस गए हैं तथा उन्हें बिलासपुरी लेबर के नाम से जाना जाता है और उनकी संख्या कई हज़ारों में है .

नागपुर छत्तीसगढ़ी डायस्पोरा का एक बहुत पुराना और महत्वपूर्ण स्थल है. दिल्ली में भी इनकी संख्या काफी है. एक बार जब स्वर्गीय अर्जुन सिंह दिल्ली से लोकसभा के चुनाव प्रत्याशी थे तो उनके पक्ष में चुनाव प्रचार के लिए स्वर्गीय पवन दीवान जी ने लम्बे अरसे तक दिल्ली में डेरा डाल कर प्रचार कार्य किया था, क्योंकि उस निर्वाचन क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी मतदाताओं की काफी बड़ी संख्या थी.

भोपाल में जब 1964 में हेवी इलेक्ट्रिकल कारखाना खुला जिसे अब भेल कहा जाता है, उसमें काम करने छत्तीसगढ़ के काफी लोग भोपाल गए और उनमे से बहुतेरे लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी वहीँ रह रहे हैं. उस समय छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के समीप कोनी में ही आई टी आई था जहां से प्रशिक्षण प्राप्त लोगो ने भेल में रोजगार पाया. कालांतर में अन्य नौकरीपेशा और श्रमिक वर्ग के लोग भी गए. धीरे धीरे इनकी संख्या बढती गयी जिसके चलते आज वहां छत्तीसगढ़ कालोनी, सतनामी नगर तो हैं ही, नेहरु नगर, 11 नंबर क्षेत्र, शाहपुरा में भी निवास करने वाले छत्तीसगढ़ियों की संख्या काफी अधिक है जहाँ हमें पूर्ण छत्तीसगढ़ी सास्कृतिक जीवन जिनमे जोत – जंवारा, गौरा, जैतखाम आदि देखने को मिलता है.

पिछले लगभग 5 – 6 दशकों में शिक्षा के चलते छत्तीसगढ़ियों के बीच एक ऐसा बड़ा वर्ग तैयार हुआ जो पेट बिकाली नहीं अपितु बेहतर जीवन के लिए देश के विभिन्न भागों के साथ ही दुनिया के कई देशों में काम करने जाने लगा. अच्छी पढ़ाई कर विदेश काम करने के लिए जाने, फिर वहीँ बस जाने की शुरुआत संभवतः आज से लगभग 50 – 60 साल पहले हुई जब डा श्याम नारायण शुक्ला, डा खेतराम चंद्राकर, डा इंदु शुक्ला आदि लोग पश्चिमी देशों में गए और वहीँ बस गए, अब इन विदेश प्रवासियों की तादात काफी अधिक हो गयी है जो अमेरिका के नासा और सिलिकन वेली जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के साथ ही ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और अन्य अनेक देशों में अपने ज्ञान तथा कौशल से अपना और छत्तीसगढ़ का नाम रोशन कर रहे हैं .

आव्रजन खासकर छत्तीसगढ़ियों द्वारा आजीविका के लिए ही पारंपरिक रूप से किया जाता रहा है, जीवन में बेहतरी के लिए आव्रजन की शुरुआत तो यहाँ के लोगों द्वारा अभी हाल में ही की गयी है किन्तु पेट बिकाली के लिए सैकड़ो – हज़ारों मील जाकर बसे छत्तीसगढ़ी लोगों द्वारा शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, राजनीति में अपना लोहा मनवाना और प्रशंसनीय मुकाम हासिल करना छत्तीसगढ़ वंशियों के लिए गौरव की बात है. आज भी भारत में कहीं भी जायें छत्तीसगढ़ी श्रमिक अपनी काम के प्रति लगाव, समर्पण और इमानदारी के लिए जाना जाता है और परदेसी धरती में इन मुकामों को हासिल करने में उनके इन्ही गुणों ने ही इन्हें मदद की होगी, किसी किस्म के छल – कपट और पैसों ने नहीं.

विगत कुछ वर्षों से यह इच्छा बलवती है कि इनके बीच जाकर इनकी जीवन यात्रा, संघर्ष गाथा और सामाजिक सांस्कृतिक वृत्तान्त को जानने समझाने की कोशिश की जाए. आज छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य है इसलिए उम्मीद है सैकड़ों सालो से, विभिन्न क्षेत्रों में हज़ारों मील दूर रहने वाले अपने 15-20 लाख भाई बहनों की कुछ सुध लेगा, उनके साथ दोस्ती तो नहीं कहना चाहिए बल्कि पारिवारिक रिश्ते कायम करने के लिए सेतु का निर्माण करेगा. भारत शासन ने केंद्र स्तर पर तो बाकायदा एक मंत्रालय की ही स्थापना की है जो दुनिया भर में बसे प्रवासी भारतीयों का देश के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ करने का काम करता है. हम सब यह बाद में करें जब हम उन्हें समझ ले और समझाने के लिए पहले इस उद्देश्य से वहां जायें तो. मुझे यह ज्ञात है कि राज्य के संस्कृति विभाग में काम करने वालों का ओरियंटेशन पुरातत्व से है, नृतत्व से नहीं इसलिए इस काम में शायद विभाग को रूचि न हो और काम की सफलता को लेकर भी शंसय हो . किन्तु मुझे लगता है कुछ तो शुरुआत की जाए . क्या यह संभव है कि एक विस्तृत प्रलेखन योजना लेकर सरकार से सहयोग करने कहा जाए . हमारे जैसे सामान सोंच वाले जनों की आर्थिक स्तिथि ऐसी नहीं है की उत्कट इच्छा होने के बावजूद हम इसे पूरा कर पाएं. यह ऐसा काम है जिसमे सरकार को अपना दायित्व समझना चाहिए और आगे बढ़कर इस काम को अंजाम देने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए. यह प्रयास वास्तविकता की धरातल को तभी छू सकेगा जब कुछ लोगों का एक छोटा समूह, वहां 2-3 हफ़्तों के लिए जाए.  वहां जाकर नृविज्ञान/मानव शास्त्रीय अध्ययन करते हुए उसका का प्रलेखन करे और एक तथ्यपरक ग्रन्थ का लेखन हो, जो उस यात्रा की परिणति के रूप में सामने आये.  यात्रा के उपरांत यहाँ छत्तीसगढ़ में, यात्रा के दौरान खींचे गए चित्रों की और आडिओ - विडिओ रिकॉर्डिंग की प्रदर्शनी लगाई जाए। इनके सहारे मुख्य रूप से इस बात को जानने की कोशिश की जाए की क्या उन्हें अपनी मूल भूमि से कुछ अपेक्षाए हैं? और हम उन्हें संस्कृति सरंक्षण में क्या योगदान दे सकते हैं? उनसे रिश्तों को ताज़ा और गर्मजोश बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? यह सब हम दिल में महसूस करें और समझें, अध्ययन के आधार पर कुछ तथ्यात्मक कार्य करें. हो सकता है हम उनसे सीखें कि भाषा और संस्कृति की वाकई में क्या महत्ता होती है, जो हमें ज़िन्दगी देती है हम उसे कैसे ज़िंदा रख सकते हैं. अपनी माटी से कट चुके ये माटी के सपूतों की अपनी संस्कृति और परंपरा से जुड़े रहने की जिजीविषा हमें खुद के अन्दर झाकने कहेगी कि देखो तुम्हारी उदासीनता उसे धीमा ज़हर देकर कहीं उसका अंत तो नहीं कर रही है।
-अशोक तिवारी
अशोक तिवारी जी का परिचय यहॉं उनके ब्‍लॉग में है.

टिप्पणियाँ

  1. छत्तीसगढ़ से कई पीढ़ियों पहले रोजी रोटी के लिए बाहर गये लोगों से मेरा भी विभिन्न यात्राओं के दौरान सम्पर्क हुआ। कई पीढ़ियों से बाहर रहने के बाद क्या सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक परिवर्तन आए, उन्हें भी समझने का प्रयास किया। इस विषय में वृहद एवं व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। आलेख के लिए अशोक तिवारी जी को सादर शुभकामनाएँ।

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    1. भाई जी मैं 2,वर्षो से फरक्का बंगाल में निवासरत हूं, लेकिन दुर्भाग्य से कोई छत्तीसगढ़ी नहीं मिला।

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  2. छत्तीसगढ़ से कई पीढ़ियों पहले रोजी रोटी के लिए बाहर गये लोगों से मेरा भी विभिन्न यात्राओं के दौरान सम्पर्क हुआ। कई पीढ़ियों से बाहर रहने के बाद क्या सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक परिवर्तन आए, उन्हें भी समझने का प्रयास किया। इस विषय में वृहद एवं व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है। आलेख के लिए अशोक तिवारी जी को सादर शुभकामनाएँ।

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  3. यह तो एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। धन्यवाद अशोक जी का और आपका भी। इसे इस अंतर्जाल में सहेजने के लिए।

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  4. अशोक तिवारी जी की दृष्टि और उनका सानिघ्य क्यों अमूल्य है, प्रमाण के लिए यहां पर्याप्त से भी आगे की बातें हैं.
    किसी अच्छे शोध-सर्वेक्षण का प्रस्ता्व कितना गंभीर और विचारपूर्ण हो, इसका आदर्श नमूना माना जा सकता है यह आलेख.
    अभभिूत हूं.

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  5. छत्तीसगढ़ी diaspora को 'छत्तीसगढ़ वृहत्तरी' कहा जा सकता है?

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  6. महत्वपूर्ण जानकारी आदरणीय तिवारी जी।
    अपन जनमभूमि ल छोड़ दूर देश म करम जगइया भाई मन ले फेर रोटी—बेटि के नता जोरे के पहल होना चाही।

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  7. आपका दस्तावेज बहुत ही बढ़िया है।इसकी जरुरत आज छत्तीसगढ़ के लोगों को है।छत्तीसगढ़ी भाषा के लिये लड़ रहे है पर एक वर्ग ऐसा भी है जो छत्तीसगढ़ी बोलने में शर्म महसूस करता है।इस तरह के लोग मै दिल्ली और नागपुर मे देखी थी। वहाँ पर आकाशवाणी मे कार्यक्रम भी आता है।इतनी दूर अपनी भाषा और संस्कृति को बचाकर रखना बहुत बड़ी बात है।

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  8. आपका दस्तावेज बहुत ही बढ़िया है।इसकी जरुरत आज छत्तीसगढ़ के लोगों को है।छत्तीसगढ़ी भाषा के लिये लड़ रहे है पर एक वर्ग ऐसा भी है जो छत्तीसगढ़ी बोलने में शर्म महसूस करता है।इस तरह के लोग मै दिल्ली और नागपुर मे देखी थी। वहाँ पर आकाशवाणी मे कार्यक्रम भी आता है।इतनी दूर अपनी भाषा और संस्कृति को बचाकर रखना बहुत बड़ी बात है।

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  9. वाकिय मे यह कार्य राज्य के लिये गौरव पुर्ण होन्गे।प्रवासी छत्तीसगढिया भी इस से अभिभूत होन्गे।जब यहाँ भोजपुरी महोत्सव छट इत्यादि हो सकते है।लन्गर ग्रन्थों जत्थेदार सिख गुरुद्वारे मे आते-आते है।गुजरात का गरबा रास और उडीसा का नुआखाई रथयात्रा का गरिमामय आयोजन होते है

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    1. तब सुदुर जगहों पर बसे हमारे छत्तीसगढिया भाइयों के सुख दुख के प्रतिभागी क्यो नही बन सकते।गम्भीरता से प्रयास होना चाहियें ।गिरौदपुरी मेला मे प्रतिवर्ष हजारों दर्शनार्थी आते है।अनेक लोग रिश्तेदारी मे आते जाते है।हमारे ग्राम के एक परिवार वहा है। असमिस बहू रखे है वे लोग जयन्ती परब या गिरौदपुरी मेला के समय अक्सर आते है।
      छग की प्रथम महिला सान्सद मिनीमाता जी का जन्म दौलमुख जमुनामुख आसाम है ।वर्तमान मे सतखोजन दास गुरु गोसाई का ब्याह असम मे ही हुआ है।
      बाहरहाल भाषायी और सान्कृतिक अस्मिता हेतु अपने देश भर फैले अपने परिजनों से मेल मुलाकात इत्यादि जरुर होने चाहिये।इस आलेख के माध्यम से आद तिवारी जी एक नई प्रसन्ग को उजागर किये इसके लिये वे साधुवाद के पात्र है।

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