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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मोबाईल-मोबाईल

कल शाम बिलासपुर हाई कोर्ट से वापस दुर्ग आने के लिए स्टेशन पंहुचा। भगत की कोठी आने वाली थी, टिकट लिया, रात होने के कारण स्लीपर नहीं कट पाया, गाड़ी प्लेटफार्म नं. 3 में आ गई। स्टेशन में दाहिने तरफ की सीढ़ी रिपेयरिंग के लिए बंद है सो बाएं तरफ की सीढ़ी और एस्केलेटर से प्लेटफार्म आते तक गाड़ी छूट गई। अगले प्लेटफार्म पर शिवनाथ देरी हो जाने के बाद, नहा-धो के 15 मिनट में छूटने वाली थी। मैं उसमे बैठ गया, बेसमय चलने के कारण उसमे सवारी बहुत कम थे।
गाड़ी छूटने के पहले टीटी दल आया, मैंने टिकट उन्हें दिखाया और स्लीपर काट देने के लिए बोला। टीटी ने टिकट को देर तक देखा तब ध्यान आया कि मेरी टिकट तो मेल-एक्सप्रेस की है और यह सुपर फ़ास्ट है। टीटी ने अंतर का टिकट और जुर्माना लिया, स्लीपर के लिए कोच एस 6-7 में जाने के लिए बोला जिसमें स्लीपर चार्ज नहीं लगता।
एस 6 में कुल जमा 5 यात्री थे, खिड़की के तरफ वाले बर्थ पर एक लड़की बैठी थी और बाजू वाले बर्थ पर एक महिला बैठी थी। दो लड़के अलग-अलग बर्थ पर बैठे थे। मैं आगे बढ़ कर कोच के बीच वाले किसी बर्थ पर जाकर बैठ गया।
गाड़ी चली, अचानक आवाज आई 'चोर! चोर! जंजीर खींचो! चोर!' लड़की बदहवास चिल्ला रही थी। जंजीर खीचने पर भी गाड़ी रुकी नहीं, तब तक एक लड़का दूसरे कोच से आ गया और हम चारो उस लड़की के पास पहुँच कर कारण पूछने लगे।
सिसकियों के बीच लड़की ने बताया कि ट्रेन जब चलने लगी तो वह अपने पर्स से मोबाईल निकाली, अपने पिता को फोन लगाने को थी वैसे ही बाजु के बर्थ पर बैठे लड़के ने मोबाईल छीना और ट्रेन से कूद गया।
अपने नए मोबाईल, उसमे संग्रहित चित्र और ओपन आईडी की उसे चिंता थी। हम सबने उसको ढांढस बंधाया, बाद में स्क्रीन लॉक होने की बात पर वह कुछ नार्मल हुई। उसके छीन लिए गए मोबाईल नंबर पर मैंने रिंग किया तो उधर से किसी ने फोन उठाया, मैंने फोन रेलवे थाने में जमा करने कहा तो उसने हाँ कहा। मतलब छीनी गई मोबाईल फोन आन था, हम लोगों ने 182 में पुलिस को यह बात बताई। लड़की लगातार विलाप करते हुए रो रही थी, उसके हाँथ पैर अकड़ रहे थे। हमने उसकी माँ से बात कराई, उसकी माँ ने उसे भाटापारा तक सुरक्षित छोड़ने को कहा। बातें करते-करते भाटापारा आ गया जहाँ उसे लेने उसके पापा, बड़े पापा और भाई आ गए थे। गाड़ी चलते ही रेलवे पुलिस भी आ गई जिन्हें हमने उनके पास भेज दिया।
तो क्या हुआ, यह तो आये दिन होते रहता है इसे हमें पढ़वा कर, लिख कर हमारा और अपना समय क्यूँ ख़राब किया?
वो इसलिए कि, जब लड़की बदहवास विलाप कर रही थी तो उसे मैंने समझाते हुए कहा कि बेटा मोबाईल ही गया, शुक्र करो कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ, वो आपका बैग, पर्स छीन सकता था, आपको शारीरिक क्षति पंहुचा सकता था जिससे तुम बच गई। तो उसने रोते हुए भोलेपन से कहा जो भी होता, मेरा मोबाईल तो बच जाता न।
.. यानि, मोबाईल के लिए इस कदर मोह?
आजकल के बच्चों के मोबाईल प्रेम का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।
... और यह भी कि, 182 में फोन करने पर अगले स्टेशन पर सहायता पहुँचती है।
©तमंचा रायपुरी के बक-बक

टिप्पणियाँ

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 31 अगस्त का इतिहास और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  2. मेल से प्राप्‍त Aadesh Thakur जी की टिप्‍पणी -
    आपकी इस ताजा रपट से शिक्षा यह मिलती है कि ट्रेन में सावधान रहें, खासकर जब वह चलने को होती है। मोबाइल मोह का असल कारण उसमें सेव किए गए डेटा और सेल्फीज़ हैं। बड़ी मुश्किल हो जाती है उनके गुम होने से... पुलिस तो पुलिस ही है चाहे वह लोकल हो या जीआरपी या कोई और...
    धन्यवाद आपको सूचना प्रसारण के लिए।

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  3. मोबाईल प्रेम नहीं यह तो मोबाइल फोबिया है ..
    प्रेरक प्रस्तुति

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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